संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०९

पत्युराज्ञां विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी।
आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत्।

♦️भावार्थ : पति की आज्ञा के बिना जो स्त्री उपवास रुपी व्रत करती है, वह अपने पति की आयु को कम करने वाली होती है। वह स्त्री नरक में जाती है, उसे महान कष्ट भोगने पड़ते हैं।



♦️श्लोक :- १०

न दानैः शुध्यते नारी नोपवासशतैरपि।
न तीर्थसेवया तद्वद् भर्तुः पादोदकैर्यथा।।

♦️भावार्थ - स्त्री अनेक प्रकार के दान करने से शुद्ध नहीं होती अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती, सैकड़ों उपवास करने से भी वह शुद्ध नहीं होती, अनेक तीर्थों की यात्रा करने के बाद भी वह शुद्ध नहीं होती, वह तो केवल पति चरणों की सेवा से ही शुद्ध हो सकती है अर्थात मोक्ष प्राप्त कर सकती है।

आचार्य चाणक्य के अनुसार स्त्री का सबसे प्रथम कर्तव्य अपने पति की सेवा है। जो स्त्री अपने पति की सेवा न करती हो तथा अन्य धार्मिक कार्यों में अपना समय व्यतीत करने का प्रयत्न करती है, उसे कोई विशेष लाभ नहीं होता। उसका सर्वप्रथम कर्तव्य पति की सेवा करना है, उसी से उसे मोक्ष मिलता है। परोक्ष रूप से संदेश यह है कि स्त्री पहले अपने पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वाह करे। सेवा ही उसकी मुक्ति का साधन है।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ११

दानेन पाणिर्न तु कंकणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन।।

♦️भावार्थ - हाथ की शोभा कंगन पहनने से नहीं वरन् दान आदि देने से होती है। शरीर की शुद्धि स्नान करने से होती है, चन्दन लगाने से नहीं। मनुष्य की तृप्ति आदर-सम्मान से होती है, भोजन से नहीं और मनुष्य को मोक्ष ज्ञान से होता है, चन्दन आदि के तिलक लगाने से नहीं।। ११ ।।

आचार्य चाणक्य ने यहाँ पर बाहरी साधनों की निरर्थकता बतलाते हुए आंतरिक श्रेष्ठता और संतुष्टि पर जोर दिया है। बाह्य साधनों को ही असल मान लेना मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है। यह भूल अक्सर लोग करते ही रहते हैं।


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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १३

सद्यः प्रज्ञाहरा तुण्डी सद्यः प्रज्ञाकरी वचा ।
सद्यः शक्तिहरा नारी सद्यः शक्तिकरं पयः ।।

♦️भावार्थ - कुंदरु खाने से तत्काल मनुष्य की बुद्धि नष्ट होती है, वच खाने से तत्काल बुद्धि बढ़ती है, नारी शीघ्र ही शक्ति का हरण करती है और दूध पीने से उसी क्षण बल प्राप्त होता है।।१३।।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १५

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।

♦️भावार्थ : भोजन करना, नींद लेना, भयभीत होना और मैथुन अर्थात सन्तान की उत्पत्ति करना, ये सब बातें मनुष्य और पशु में एक जैसी होती हैं। मनुष्य में पशुओं की अपेक्षा धर्म ही ऐसी विशेष वस्तु है जो उनसे अधिक होती है। यदि मनुष्य में धर्म न हो तो वह पशु के समान है।।१५।।


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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १६

दानार्थिनो मधुकरा यदि कर्णतालैर् दूरीकृताः करिवरेण मदान्धबुद्ध्या।

तस्यैव गण्डयुगमण्डनहानिरेषा भृंगाः पुनर्विकचपद्मवने वसन्ति।।१६।।

♦️भावार्थ : यदि मद में अंधा हाथी अपनी मंदबुद्धि के कारण अपने मस्तक पर बैठे हुए मद पीने के इच्छुक भौरों को अपने कान फड़फड़ाकर दूर भगा देता है तो इसमें भौरों की कोई हानि नहीं होती। वे जाकर खिले हुए कमलों पर जा बैठते हैं, उन्हें वहाँ से रस मिल जाता है परन्तु ऐसा करने से हाथी के गण्डस्थल की ही शोभा नष्ट होती है।

आचार्य चाणक्य का अभिप्राय है कि कुछ माँगने आये हुए याचक को लौटाने से याचक की हानि नहीं होती अपितु दाता की हानि होती है। याचक को निराश नहीं लौटाना चाहिये, उसका सम्मान करके उसको दान दक्षिणा दें, जिससे वह लोगों के सामने दाता के गुणों का वर्णन करे।।१६।।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १७

राजा वेश्या यमो ह्यग्निस्तस्करो बालयाचकौ।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो ग्रामकण्टकः ।।

♦️भावार्थ : राजा, वेश्या, यमराज, अग्नि, चोर, बालक, याचक और ग्रामीणों को सताने वाले - ये आठों बड़े ही कठोर होते हैं। ये दूसरों के कष्टों को नहीं समझते। संकेत है कि इनसे बचकर रहें।।१७।।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १७

राजा वेश्या यमो ह्यग्निस्तस्करो बालयाचकौ।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो ग्रामकण्टकः ।।

♦️भावार्थ : राजा, वेश्या, यमराज, अग्नि, चोर, बालक, याचक और ग्रामीणों को सताने वाले - ये आठों बड़े ही कठोर होते हैं। ये दूसरों के कष्टों को नहीं समझते। संकेत है कि इनसे बचकर रहें।।१७।।

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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १८

अधः पश्यसि किं वृद्धे पतितं तव किं भुवि।
रे रे मुर्ख न जानासि गतं तारुण्यमौक्तिकम्।

♦️भावार्थ - किसी अत्यंय बूढ़ी स्त्री को, जिसकी कमर बुढ़ापे के कारण झुक गयी थी, देखकर कोई युवक व्यंग्य करते हुए पूछने लगा - हे वृद्धे नीचे क्या ढूँढ़ रही हो? क्या पृथ्वी पर तुम्हारी कोई चीज गिरी पड़ी है? तुम्हारा कुछ खो तो नहीं गया? उस व्यंग्य को सुनकर बूढ़ी औरत ने कहा कि अरे मूर्ख ! तू नहीं जानता कि मेरा यौवनरुपी मोती खो गया है। मैं उसी को ढूँढ़ रही हूँ।

वृद्धा का संकेत है कि इस संसार में जिसने जन्म लिया है, वह बचपन, किशोर और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था को प्राप्त होता है, इससे कोई भी नहीं बच सकता। तू भी यहाँ पहुंचेगा। इसलिये मुझ पर न हंस! जिसका सामना करना हो, उस पर क्यों हँसना?

यह श्लोक वृद्धों की उपेक्षा की ओर भी ध्यान दिलाता है। हर पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी का मजाक ही उड़ाती है। एक विचारक ने सही कहा है कि - वृक्ष की शाखाएं , पत्ते और फूल यह भूल जाते हैं कि उन्हें जीवन उन जड़ों से मिल रहा है जो कुरूप, परोक्ष और निष्क्रिय हैं।।१८।।


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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १९

व्यालाश्रयाऽपि विफलापि सकण्टकापि।
वक्राऽपि पंकिल - भवाऽपि दुरासदाऽपि।
गन्धेन बंधुरसि केतकि सर्वजन्तोर्
एको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्।।

भावार्थ : हे केतकी ! तुझसे साँप लिपटे रहते हैं, फल भी नहीं लगते, काँटे भी हैं और वक्रता भी है। इसके अतिरिक्त तेरा जन्म कीचड़ में होता है और तू सरलता से प्राप्त भी नहीं होती। इतना सब कुछ होने पर भी तेरे में जो गंध है, वह सब प्राणियों को मोह लेती है।।१९।।

आचार्य चाणक्य के अनुसार व्यक्ति में यदि एक भी श्रेष्ठ गुण हो तो उसमें सारे दोष सहज ही छुप जाते हैं।

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चाणक्य नीति समाप्तः जातः
चाणक्य नीति समाप्त हुआ।
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