संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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काकस्य देहो यदि काञ्चनस्य
माणिक्यरत्नं यदि चञ्चुदेशे।
एकैकपक्षे ग्रथितं मणीनां
तथाऽपि काको न तु राजहंसः।।

कौए का शरीर सोने का हो जाए और उस की चोंच में माणिक्य और रत्न लगा दिये जाएँ, प्रत्येक पंख में मणियां गुंथ दी जायें, फिर भी वह कौआ, कौआ ही रहेगा, राजहंस नहीं हो सकता।

संस्कृतार्थः - काकस्य शरीरं स्वर्णस्य भवतु चञ्चुमध्ये रत्नानि भवन्तु प्रत्येकं पक्षे मणयः ग्रथिताः भवन्तु एतत् सर्वमपि यदि भवति तथापि काकः तु काकः एव तिष्ठति न कदापि राजहंसः भवति।
(श्रेष्ठता केवलेन बाह्याडम्बरेण न भवति।)

#subhaShitam
संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया। सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया।। = स्त्री को सदा प्रसन्न रहना चाहिए, गृहकार्यों में वह कुशल हो, घर के बर्तन आदि को स्वच्छ तथा घर को सफाई, लेपन आदि द्वारा शुद्ध रखनेवाली हो, खर्च करने में खुले हाथवाली न हो…
धर्मे तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहता।
मित्रेऽवञ्चकता गुरौ विनयता चित्तेऽति गम्भीरता।
आचारे शुचिता गुणे रसिकता शास्त्रेषु विज्ञानता।
रूपे सुन्दरता शिवे भजनता सत्स्वेव संदृष्यते।।
= धर्म में तत्परता, मुख में मधुरता, दान देने में अत्यन्त उत्साह का होना, मित्रों के प्रति निष्कपटता, गुरुओं के प्रति नम्रता, अन्तःकरण में समुद्र के समान गम्भीरता, आचार में पवित्रता, गुणों में रसिकता, शास्त्रों में विज्ञता, रूप में सुन्दरता और परमेश्वर की भक्ति ये सब बातें सज्जनों में ही दिखायी देती हैं।

दाने तपसि शौर्ये वा विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कर्त्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा।।
= दानशीलता, तपस्या, शूरवीरता, विज्ञान, विनम्रता और नीतिमत्ता में सबसे बड़ा होने का अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि पृथ्वी रत्नगर्भा है अर्थात् उपरोक्त गुणोंवाले इस धरा पर एक से बढ़कर एक मिल जाएंगे।

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।
= जिसका मन दुःखों में उद्विग्न याने बेचैन नहीं होता, सुखों के प्रति लालसारहित जो है, जो राग-भय-क्रोध से मुक्त है, ऐसा स्थिर-बुद्धिवाला व्यक्ति मुनि कहाता है।

यः सर्वत्राऽनभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाऽशुभम्।
नाऽभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
= जो सब वस्तुओं के प्रति रागरहित है, शुभ को प्राप्त होके प्रसन्न तथा अशुभ को प्राप्त होके अप्रसन्न नहीं होता उसकी बुद्धि स्थिर स्थिर हो गई है (ऐसा मानना चाहिए)।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।
= कर्म करने में तेरा अधिकार है (अर्थात् कैसे कर्म करना ये तेरे हाथ में है)। कर्मों के फल पर तेरा अधिकार नहीं है (अर्थात् फलों का कब मिलना, कितना मिलना, कैसा मिलना इसका निर्णय तेरे हाथ में नहीं है)। इसलिए अमुक कर्म का अमुक फल मिले ऐसी कामना रखकर कर्म मत कर (अर्थात् निष्कामभाव से कर्म कर)। कर्म के त्याग के प्रति तेरी प्राीति न होवे (अर्थात् कर्म का त्याग नहीं करना है, अपितु फलाशा त्यागनी है)।

योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
= हे अर्जुन ! (फल के प्रति) आसक्ति छोड़कर योग में स्थित होकर कर्मों को कर। सफलता-असफलता दोनों ही अवस्थाओं में समता बनाए रख। मन की सम अवस्था को ही योग कहते हैं।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।
= सुनी हुई बातों के कारण चलायमान तेरी बुद्धि जब निश्चल हो जाएगी, तथा समाधि में टिक जाएगी तब तुझे योग (कर्मकौशल/समत्व) की प्राप्ति होगी।

#vakyabhyas
।।श्रीः।।
।।आत्मबोधः।।

Atmabodha, meaning Self-knowledge or Self-awareness, is an exceptionally lucid and readable work of Shankaracharya. Consisting of sixty-eight verses or shlokas, it is in a sense a simple summary of his entire Vedantic structure of thought, intended, it would seem, as a basic primer for his students and followers. The text follows a clearly elaborated doctrine, starting with knowledge as a key to liberation, the nautre of the Atman within us, the assertion of the pervasive and attribute-less nature of Brahman, and the path towards the realisation of the complete identity between the Atman and Brahman.

दृश्यते श्रूयते यद्यद्ब्रह्मणोऽन्यन्न तद्भवेत्।
तत्त्वज्ञानाच्च तद्ब्रह्म सच्चिदानन्दमद्वयम्।।64।।

64. All that is perceived, or heard, is Brahman and nothing else. Attaining the knowledge of the Reality, one sees the Universe as the non-dual Brahman, Existence-Knowledge-Bliss-Absolute.

आत्म-बोध ऑनलाइन क्लास - 64:

आत्म-बोध के 64th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में सतत रमने के लिए ज्ञान और प्रेरणा दे रहे हैं। अगर हमारा ज्ञान सदैव एकांत में बैठ के ही संभव होता है तो समझ लीजिये की अभी जगत के मिथ्यात्व की सिद्धि नहीं हुई है। एक बार ज्ञान की स्पष्टता हो जाये उसके बाद एकांत से निकल कर विविधता पूर्ण दुनिया के मध्य में, व्यवहार में अवश्य जाना चाहिए। अज्ञान काल में हम जो कुछ भी देखते और सुनते थे उन सब के बारे में धरना यह थी की ये सब हमसे अलग स्वतंत्र वस्तुएं हैं, लेकिन अब इस नयी दृष्टी के हिसाब से जीना है। अब यह स्पष्टता से देखना है की जो कुछ भी हम इन्द्रियों से ग्रहण कर रहे हैं वो सब माया के छोले में साक्षात् सात-चित-आनंद स्वरुप ब्रह्म ही विराजमान है। जब चलते-फिरते हर जगह ब्रह्म की बुद्धि बनी रहती है तब ही ब्रह्म ज्ञान में निष्ठा हो जाती है।

#Atmabodha
🍃तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।।11.13।।

♦️tatraikasthaM jagatkRRitsnaM pravibhaktamanekadhaa|
apashyaddevadevasya shariire paaNDavastadaa ।।11.13।।

Arjuna saw the entire universe, divided in many ways, but standing
as (all in) One (and One in all) in the body of Krishna, the God of
Gods. (11.13)

पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त हुए सम्पूर्ण जगत् को देवों के देव श्रीकृष्ण के शरीर में एक स्थान पर स्थित देखा।।11.13।।

#geeta
Audio
श्रीमद्भगवद्गीता [11.13]
🍃ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत
।।11.14।।

♦️tataH sa vismayaaviShTo hRRiShTaromaa dhana~njayaH|
praNamya shirasaa devaM kRRitaa~njalirabhaaShata।।11.14।।

Then Arjuna, filled with wonder and his hairs standing on end,
bowed his head to the Lord and prayed with folded hands (11.14)

उसके उपरान्त वह आश्चर्यचकित हुआ हर्षित रोमों वाला (जिसे रोमांच का अनुभव हो रहा हो) धनंजय अर्जुन विश्वरूप देव को (श्रद्धा भक्ति सहित) शिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोला ।।11.14।।

#geeta
Audio
श्रीमद्भगवद्गीता [11.14]
🚩जय सत्य सनातन🚩
🚩आज की हिंदी तिथि

🌥 🚩यगाब्द-५१२४
🌥 🚩विक्रम संवत-२०७९
⛅️ 🚩तिथि - पंचमी शाम 06:01 तक तत्पश्चात षष्टी

⛅️ दिनांक 06 अप्रैल 2022
⛅️ दिन -बुधवार
⛅️ शक संवत - 1944
⛅️ अयन - उत्तरायण
⛅️ ऋतु - वसंत
⛅️ मास - चैत्र
⛅️ पक्ष - शुक्ल
⛅️ नक्षत्र - रोहिणी शाम 07:40 तक तत्पश्चात मृगशिरा
⛅️योग -आयुष्मान सुबह 08:38 तक तत्पश्चात सौभाग्य
⛅️ राहुकाल - दोपहर 12:42 से 02:16 तक
⛅️सर्योदय - 06:28
⛅️ सर्यास्त - 06:56
⛅️ दिशाशूल - उत्तर दिशा में
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अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।


अन्वय - अभिवादनशीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविनः, तस्य, चत्वारि आयुः, विद्या, यशः, बलम् वर्धन्ते।

#Subhashitam
संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
धर्मे तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहता। मित्रेऽवञ्चकता गुरौ विनयता चित्तेऽति गम्भीरता। आचारे शुचिता गुणे रसिकता शास्त्रेषु विज्ञानता। रूपे सुन्दरता शिवे भजनता सत्स्वेव संदृष्यते।। = धर्म में तत्परता, मुख में मधुरता, दान देने में अत्यन्त उत्साह का होना…
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।
= विद्या तथा विनय से युक्त ब्राह्मण में, गाय में, हाथी, कुत्ते, चाण्डाल में पण्डितों की भेदबुद्धि नहीं होती अर्थात् वे सबको समान देखते हैं।

समः रात्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। शीतोष्ण सुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः।।
= जो शत्रु और मित्र में सम दृष्टि रखता है, मानापमान, शीतोष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में समता बनाए रखता है, जो निरासक्त (आसक्तिरहित) है (ऐसा भक्त मुझे प्रिय है)।

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।
= यदि तू (अर्जुन) योगाभ्यास करने में असमर्थ है, तो सब कर्म मुझे (ईश्वर) को लक्ष्य बनाकर कर। मेरे लिए (परमात्मा के लिए) कर्म करता हुआ भी तू सिद्धि को प्राप्त कर लेगा।

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।
= इन्द्रिय के विषयों में वैराग्य का होना, अहंकार-शून्यता, संसार में जन्म-मृत्यु, बुढापा, बीमारी और दुःखों को देखना (यही ज्ञान कहाता है)।

आसक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।
= अनासक्ति, पुत्र-पत्नी-गृह आदि में मोह का न होना, इष्ट-अनिष्ट अर्थात् प्रियाप्रिय में चित्त की समता बनाए रखना (यही ज्ञान है)।

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।
= अनन्य भाव से मुझ में एकनिष्ठ भक्ति का होना, एकान्त स्थान का सेवन करना, जन-समुदाय में अरुचि अर्थात् किसी व्यक्तिविशेष के प्रति लगाव का न होना (यही ज्ञान कहाता है)।

पतिव्रता पतिप्राणा पत्युःप्रियहिते रताः।
यस्य स्यादृशी भार्या धन्य स पुरुषो भुवि।।
= जिसे पतिव्रता याने पति को प्राणवत् चाहनेवाली, पति के हित में सदा तत्पर रहनेवाली पत्नी प्राप्त हो, वह पुरुष पृथ्वी पर धन्य है।

लौकिके कर्मणि रतः पशुनां परिपालकः।
वाणिज्यकृषिकर्ता यः स विप्रो वैश्य उच्यते।।
= जो द्विज लौकिक कर्मों में संलग्न हो, पशु पालता हो, व्यापार और खेती करता हो वह वैश्य कहाता है।

वापी-कूप-तडागानामाराम-सुर-वेश्मनाम्।
उच्छेदने निराऽऽशङ्कः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।
= जो द्विज बावड़ी, कुंआ, तालाब, वाटिका, देवालयों के तोड़ने-फोड़ने में नीडर हो, वह म्लेच्छ कहाता है।

वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता, विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद् भयम्।
भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले, एते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः।।
= सज्जनों के संग की इच्छा, दूसरों के गुणों में अनुराग, गुरुजनों के प्रति विनम्रता, विद्या का व्यसन, अपनी ही स्त्री से रतिक्रीडा, लोक में बदनामी से भय, परमात्मा की भक्ति, मन और इन्द्रियों को वश में रखने की शक्ति और दुष्टों के संसर्ग (संगति) का त्याग ये निर्मल गुण जिन मनुष्यों में रहते हैं ऐसे महापुरुष को हमारा प्रणाम है।

#vakyabhyas