संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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।।श्रीः।।
।।आत्मबोधः।।

Atmabodha, meaning Self-knowledge or Self-awareness, is an exceptionally lucid and readable work of Shankaracharya. Consisting of sixty-eight verses or shlokas, it is in a sense a simple summary of his entire Vedantic structure of thought, intended, it would seem, as a basic primer for his students and followers. The text follows a clearly elaborated doctrine, starting with knowledge as a key to liberation, the nautre of the Atman within us, the assertion of the pervasive and attribute-less nature of Brahman, and the path towards the realisation of the complete identity between the Atman and Brahman.

अवच्छिन्न इवाज्ञानात्तन्नाशे सति केवलः।
स्वयं प्रकाशते ह्यात्मा मेघापायेंऽशुमानिव।।4।।

4. The Soul appears to be finite because of ignorance. When ignorance is destroyed the Self which does not admit of any multiplicity truly reveals itself by itself: like the Sun when the clouds pass away.

आत्म-बोध ऑनलाइन क्लास - 4 :

आत्म-बोध के चौथे श्लोक में पू गुरूजी श्री स्वामी आत्मानन्द सरस्वतीजी ने बताया की इस श्लोक की संगती यह है की हम सबके अंदर मात्र अज्ञान नहीं है बल्कि कुछ उल्टा विपरीत ज्ञान भी है। यह उल्टा ज्ञान प्रॉब्लम को कॉम्प्लिकेट कर देता है। जिसके अंदर केवल अज्ञान होता है वो व्यक्ति विनम्र होता है और ठीक ज्ञान की पूरी कोशिश करता है लेकिन जब विपरीत ज्ञान आ जाता है तब प्रामाणिक ज्ञान के लिए जिज्ञासा के बजे अपने काल्पनिक अल्पता की निवृत्ति के लिए चेष्टा होने लगती हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को छोटा देखता है और उसकी दलील यह है की हमें छोटापन दिखाई पड़ता है - अनुभव होता है। इसके उत्तर में यह श्लोक दिया गया है। यहाँ इस श्लोक में बताते हैं की किसी भी अनुभव को हमें सच नहीं मान लेना चाहिए। ध्यान पूर्वक व्याख्या सुने।

#Ātmabōdha
https://youtu.be/3wnHcKX-cfI
#SanskritCarnaticMusic
श्री भीष्म उवाच -

इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वत पुङ्गवे विभूम्नि । स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः ॥ ३२॥

त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने । वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥ ३३॥

युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्कचलुलितश्रमवार्यलंकृतास्ये । मम निशितशरैर्विभिद्यमानत्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥ ३४॥

सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य । स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवति पार्थ सखे रतिर्ममास्तु ॥ ३५॥

व्यवहित पृथनामुखं निरीक्ष्य स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या। कुमतिमहरदात्मविद्यया यश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु ॥ ३६॥

स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः । धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलत्गुः हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ॥ ३७॥

शितविशिखहतोविशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे । प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥ ३८॥

विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये। भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोः यमिह निरीक्ष्य हताः गताः सरूपम् ॥ ३९॥

ललित गति विलास वल्गुहास प्रणय निरीक्षण कल्पितोरुमानाः । कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः ॥ ४०॥

मुनिगणनृपवर्यसंकुलेऽन्तः सदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम् । अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो मम दृशि गोचर एष आविरात्मा ॥ ४१॥

तमिममहमजं शरीरभाजां हृदिहृदि धिष्टितमात्मकल्पितानाम् । प्रतिदृशमिव नैकधाऽर्कमेकं समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः ॥ ४२॥

श्री सूत उवाच - कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टिवृत्तिभिः । आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तः श्वासमुपारमत् ॥ ४३॥ ॥ इति॥
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कालावधिः : 30 minutes only
समयः : IST 11:00 AM 🕚
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जल्पनम्
दिनाङ्कः : 05th February 2022,
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श्रीमद्भगवद्गीता [07.28]
🍃येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः
।।7.28।।

♦️yeShaaM tvantagataM paapaM janaanaaM puNyakarmaNaam|
te dvandvamohanirmuktaa bhajante maaM dRRiDhavrataaH7.28

Persons of virtuous (or unselfish) deeds, whose Karma has come to an end, become free from the delusion of dualities and worship Me with firm resolve. (7.28)

परन्तु जिन पुण्यकर्मी पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है वे द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त और दृढ़वती पुरुष मुझे भजते हैं।। 7.28 ।।

#geeta
CD Track
श्रीमद्भगवद्गीता [07.29]
🍃जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्
।।7.29।।

♦️jaraamaraNamokShaaya maamaashritya yatanti ye|
te brahma tadviduH kRRitsnamadhyaatmaM karma chaakhilam7.29

Those who strive for freedom from (the cycles of birth) old age and death by taking refuge in Me know Brahman, the individual self, and Karma in its entirety. (7.29)

जो मेरे शरणागत होकर जरा और मरण से मुक्ति पाने के लिए यत्न करते हैं वे पुरुष उस ब्रह्म को सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं।। 7.29 ।।

#geeta
पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती।
यज्ञं वष्टु धियावसुः॥

English translation:
Goddess Sarasvatī, who sanctifies, nourishes, intelligently bestows opulence, may make our
sacrifice successful with knowledge and action.

Hindi translation:
पवित्र बनाने वाली, पोषण देने वाली, बुद्धिमतापूर्वक ऐश्वर्य प्रदान करने वाली
देवी सरस्वती ज्ञान और कर्म से हमारे यज्ञ को सफल बनाए।
🚩जय सत्य सनातन🚩

🚩आज की हिंदी तिथि

🌥️ 🚩युगाब्द-५१२३
🌥️ 🚩विक्रम संवत-२०७८
🚩तिथि - पंचमी ०६ फरवरी प्रातः ०३:४६ तक तत्पश्चात षष्ठी

दिनांक - ०५ फरवरी २०२२
दिन - शनिवार
शक संवत -१९४३
अयन - उत्तरायण
ऋतु - शिशिर
मास - माघ
पक्ष - शुक्ल
नक्षत्र - उत्तर भाद्रपद शाम ०४:०९ तक तत्पश्चात रेवती
योग - सिद्ध शाम ०५:४२ तक तत्पश्चात साध्य
राहुकाल - सुबह १०:०४ से सुबह ११:२८ तक
सूर्योदय - ०७:१५
सूर्यास्त - १८:३०
दिशाशूल - पूर्व दिशा में
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Live stream scheduled for
संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
मृषा भोजयति कुपुत्रम् = कपूत को खिलाना व्यर्थ है। मृषा वदति वादी = वादी झूठ बोल रहा है। मुधा मा वद, पतिष्यति..! = झूठ मत बोल, पतन होगा..! ज्योक् जीव..! = दीर्घजीवी हो..! ज्योक् पश्येम सूर्यमुच्चरन्तम् = हम सदा देखें हृदय में विद्यमान (उपस्थित) प्रेरक को। मिथ्या…
संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।

पाठ : (१३) तृतीया विभक्ति (५)
(जिस अंग के विकार से शरीर को विकृत माना जाए, उस अंग में तृतीया विभक्ति होती है।)

नेत्रेण अन्धोऽपि पथि सम्यक् व्यवहरति = आंख से अन्धा होने के बावजूद भी रस्ते पर ठीक चलता है।
अन्धापेक्षया नेत्रेण काणोऽपि ज्यायान् = अन्धे की अपेक्षा आंख से काणा व्यक्ति अच्छा है।
हस्तेन लुञ्जोऽपि परिश्रमेण जीवति = एक हाथ से विकलांग होने पर भी महनत कर के जीता है।
कराभ्यां विकलोऽपि प्रसन्नवदनः तिष्ठति = दोनों हाथों से विकलांग होने पर भी प्रसन्नवदन रहता है।
पादेन खञ्जोऽपि भृशं धावति = पैर से लंगड़ा होते हुए भी खूब दोड़ता है।
यत्र प्रजा मुखेन मूका भवति, राजा कर्णेन बधिरो भवति, तत्र नूनं विनाशो भवति = जहां प्रजा गूंगी होती है और राजा बहरा होता है वहां निश्चय ही विनाश होता है।
शिरसा खल्वाटोऽयं केशविन्यासान् पश्यति = टकलु हेअरस्टाईल देख रहा है।
मन्थरा पृष्ठेन कुब्जा आसीत् = मन्थरा पीठ से कुबड़ी थी।
शरीरेण वामनोऽपि शिवराजः दीर्घकायान् शत्रून् अवपातयति स्म = शरीर से बौना होने पर भी शिवाजी महाकाय शत्रुओं को पछाड़ देता था।
दन्तैः रिक्तोऽपि गोलगप्पां वाञ्छति = मुख में दांत नहीं फिर भी गोलगप्पे खाना चाहता है।
अहो आश्चर्यम् अङ्गुलिभिः विकलोऽपि कुष्ठी वस्त्रं स्त्रं वयति = अहो आश्चर्य है, बिना ऊंगलियों के भी कोढ़ी कपड़ा बुन रहा है।
ग्रीवया वक्रोऽपि लक्ष्यं अमोघं विध्यति = टेढ़ी गर्दनवाला भी निशाना अचूक लगाता है।
अक्ष्णा केकरः न ज्ञायते कुत्र पश्यति = भेंगा (ेुनपदज) व्यक्ति कहां देखता है पता नहीं चलता।

(किम्, किं कार्यम्, कोऽर्थः, किं प्रयोजनम् इन शब्दों के साथ तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है।)
सन्दीप्ते भवने कूपखनेन किं, किं कार्यम्, किं प्रयोजनम् कोऽर्थः वा ? = घर जल जाने के बाद कुंआ खोदने से क्या लाभ ?
काले दत्तं वरं ह्यल्पम् अकाले बहुनाऽपि किम् ? = समय पर थोड़ा दिया जाना भी बहुत कहाता है जबकि समय निकल जाने पर बहुत सारा दिया जाना भी व्यर्थ है।
धर्महीनेन मनुष्येण कोऽर्थः = धर्मरहित व्यक्ति से क्या लाभ ?
लवणं विना स्वादु भोजनेन किं = नमक के बिना स्वादिष्ट भोजन कैसा ?
ज्ञानेन विना बलेन किं कार्यम् = ज्ञान के बिना बल किस काम का ?
दृष्टिं विना अक्ष्णा किं प्रयोजनम् = दृष्टि के बिना आंख से क्या लाभ ?
किं तेन जातेन येन वंशो न गच्छति समुन्नतिम् = उसके जन्म लेने से क्या लाभ जिसके कारण वंश उन्नत न हो ?
किं तेन पठनेन येन सदाचारो न शिक्षितः ? = उस पढ़ाई से क्या लाभ जो सदाचार नहीं सिखाता ?
किं तेन धनेन येन दानेन हस्तो न भूषितः ? = उस धन से क्या लाभ जिसने दान से हाथ की शोभा नहीं बढ़ाई ?
किं तेन बुधेन यो सत्यं न भाषते = वह कैसा विद्वान् है जो सत्य नहीं बोलता ?

#vakyabhyas