संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ षोडशः अध्याय

♦️श्लोक :- १४

क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञहोमबलिक्रियाः।
न क्षीयते पात्रदानमभयं सर्वदेहिनाम्।।14।।

♦️भावार्थ - योग्य तथा जरूरतमंद (सुपात्र) को ही दान देना चाहिए। अन्य दान, यज्ञ आदि नष्ट हो जाते हैं। किन्तु योग्य जरूरतमंद को दिया गया दान तथा किसी के जीवन की रक्षा के लिए दिये गये अभयदान का फल कभी नष्ट नहीं होता।


♦️श्लोक :- १५

तृणं लघु तृणात्तूलं तूलादपि च याचकः।
वायुना किं न नीतोऽसौ मामयं याचयिष्यति।।15।।

♦️भावार्थ - आचार्य चाणक्य मांगने को मरने के समान मानते हुए कहते हैं कि तिनका हलका होता है, तिनके से हलकी रूई होती है और याचक रूई से भी हलका होता है। तब इसे वायु उड़ाकर क्यों नहीं ले जाती? इसलिए कि वायु सोचती है कि कहीं यह मुझसे भी कुछ मांग न बैठे। भीख मांगना सबसे घटिया काम है। भिखारी की कोई इज्जत नहीं होती।


♦️श्लोक :- १६

वरं  प्राणपरित्यागो   मानभङ्गेन   जीवनात्   |
प्राणत्यागे  क्षणं दुःखं   मानभङ्गे  दिने  दिने  ।।16।।

♦️भावार्थ - मानभङ्ग्  (अपमानित ) होने पर भी जीवित रहने  से तो
प्राण त्याग देना ही श्रेयस्कर है,  क्यों कि प्राण त्यागने में तो क्षण भर 
के लिये दुःख  होता  है परन्तु अपमानित होने पर दिन प्रति दिन दुःख 
भोगना  पडता है |

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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ षोडशः अध्याय

♦️श्लोक :- १७

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।१७।।

♦️भावार्थ - मधुर वचन बोलने से सब जन्तु प्रसन्न और सन्तुष्ट होते हैं। अतः मधुर वचन ही बोलना चाहिए, क्यों कि वचनों में क्या दरिद्रता?


♦️श्लोक :- १८

संसारविषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे ।
सुभाषितं च सुस्वादु सङ्गतिः सज्जने जने।।18।।

♦️भावार्थ - संसार एक कड़वा वृक्ष है, इसके दो फल ही अमृत जैसे मीठे होते हैं, एक मधुर वाणी और दूसरी सज्जनों की संगति।

जो व्यक्ति मधुर वाणी का प्रयोग करता है वह शत्रुओं को भी जीत लेता है और दूसरी है मधुर संगति, सज्जनों की संगति अर्थात् मनुष्यों को मधुर प्रिय वचन बोलने और सज्जनों की संगति करने में कभी हिचकिचाना नहीं चाहिए। संसार में शेष सब तो कड़वा ही है।


♦️श्लोक :- १९

जन्म जन्म यदभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः ।
तेनैवाभ्यासयोगेन देही चाभ्यस्यते पुनः ।।19।।

♦️भावार्थ - अनेक जन्मों में मनुष्य ने दान, अध्ययन और तप आदि जिन बातों का अभ्यास किया, उसी अभ्यास के कारण वह उन्हें बार बार दोहराता है।

इस श्लोक का भाव यह है कि मनुष्य को अपना भावी जीवन सुधारने के लिए इस जन्म में अच्छे कार्य करने का अभ्यास करना चाहिए। पहले के अभ्यास का ही परिणाम है हमारा आज और भविष्य में जो हम होंगे वह होगा आज के अभ्यास का प्रतिफल।


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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ षोडशः अध्याय

♦️श्लोक :- २०

पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम् ।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम् २०

षोडश अध्यायः समाप्तः

भावार्थ - जो विद्या पुस्तकों तक ही सीमित है और जो धन दूसरों के पास पड़ा है, आवश्यकता पड़ने पर न तो वह विद्या काम आती है और न ही वह धन उपयोगी हो पाता है।

आचार्य कहना चाहते हैं कि विद्या कण्ठाग्र होनी चाहिए तथा धन सदैव अपने हाथ में होना चाहिए, तभी इनकी सार्थकता है।

सोलहवां अध्याय‌ समाप्त हुआ।

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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०१

पुस्तकं प्रत्याधीतं नाधीतं गुरुसन्निधौ ।
सभामध्ये न शोभन्ते जारगर्भा इव स्त्रियः ॥ १ ॥

♦️भावार्थ - जिन व्यक्तियों ने गुरु के पास बैठकर विद्या का अध्ययन नहीं किया वरन् पुस्तकों से ही ज्ञान प्राप्त किया है, वह विद्वान लोगों की सभा में उसी तरह सम्मान प्राप्त नहीं करते, जिस प्रकार दुष्कर्म से गर्भ धारण करने वाली स्त्री का समाज में सम्मान नहीं होता।

इस श्लोक का भाव यह है कि गुरु के पास बैठकर ही सही अर्थों में विद्या का अध्ययन किया जा सकता है। गुरु से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। मनुष्य अपने प्रयत्न से जो ज्ञान प्राप्त करता है, वह कई प्रकार से अधूरा रहता है, इसलिए ऐसा व्यक्ति विद्वानों की सभा में उपहास का पात्र होता है जिसने गुरुमुख से विद्या प्राप्त नहीं की है।

गुरु से विद्या प्राप्त करने का महत्त्व इसलिए है कि गुरु ग्रहण करने योग्य सब बातें शिष्य पर प्रकट कर देता है। ज्ञान के सब रहस्य उसके समक्ष खुल जाते हैं। अपने प्रयत्न से विद्या प्राप्त करने पर कुछ न कुछ अनजाना रह ही जाता है। ऐसी स्थिति में क्या करना चहिए , इसकी जानकारी भी गुरुमुख से ही प्राप्त होती है। तभी तो व्यक्ति प्रत्येक स्थिति का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार कर पाता है।

इस श्लोक से चाणक्य का भाव गुरु के महत्व को प्रकट करना है।

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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०२

कृते प्रतिकृतिं कुर्यात् हिंसेन प्रतिहिंसनम् ।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दौष्ट्यं समाचरेत् || २ ||

♦️भावार्थ - जो जैसा करे, उससे वैसा बरतें। कृतज्ञ के प्रति कृतज्ञता भरा, हिंसक (दुष्ट) के साथ हिंसायुक्त और दुष्ट से दुष्टताभरा व्यवहार करने में किसी प्रकार का पाप (पातक) नहीं है || २ ||


♦️श्लोक :- ०३

यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् ।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ||

♦️भावार्थ - जो वस्तु अत्यंत दूर है, जिसकी आराधना करना अत्यंत कठिन है और जो अत्यंत ऊँचे स्थान पर स्थित है, ऐसी चींजों को तपद्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। सिद्धि का प्रयोग यह प्राप्त करना भी है || 3 ||

जो चीज जितनी दूर दिखाई देती है, ऐसा प्रतीत होता है कि उसको पाना भी असंभव है, उसे भी प्रयत्नरूपी तपस्या द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। तप अथवा परिश्रम द्वारा असंभव कार्यों को भी सम्भव बनाया जा सकता है। तप से ही मनुष्यों को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती है।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०५

पिता रत्नाकरो यस्य लक्ष्मीर्यस्य सहोदरी ।
शंखो भिक्षाटनं कुर्यान्नऽदत्तमुपतिष्ठति ॥


♦️भावार्थ - समुद्र शंख का पिता है। लक्ष्मी का जन्म भी समुद्र में हुआ है अर्थात् वह शंख की बहन है। शंख चन्द्रमा के समान चमकता है, इतने पर भी यदि कोई शंख बजाकर भीख माँगता है तो यही समझना चाहिए कि दान दिए बिना मान सम्मान नहीं होता || ५ ||

बहुत से साधु लोग शंख बजाते हुए भिक्षा माँगते फिरते हैं, इससे यही प्रतीत होता है कि शंख ने दान देने जैसा सत्कर्म नहीं किया अर्थात् व्यक्ति अच्छे कुल में उत्पन्न होने और अनेक गुणों से सम्पन्न होने पर भी दान आदि अच्छे कर्म यदि नहीं करता, तो उसे भी यश और सुख की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अच्छे कुल में उत्पन्न होने पर भी दान आदि शुभकर्म करता रहे।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०६

अशक्तस्तु भवेत्साधुर्ब्रह्मचारी च निर्धनः।
व्याधिष्ठो देवभक्तश्च वृद्धा नारी पतिव्रता।।

♦️भावार्थ - शक्तिहीन व्यक्ति सज्जन, निर्धन ब्रह्मचारी रोगी देवार्चन करने वाला और बूढ़ी स्त्री पतिव्रता बन जाती है।।६।।

आचार्य चाणक्य का भाव यह है कि व्यक्ति विवशता के कारण भी अपना स्वरुप बदल लेता है, वस्तुतः वह वैसा होता नहीं है। बलवान व्यक्ति को सज्जनता का व्यवहार करना चाहिए। प्रभु की भक्ति तो मनुष्य का स्वाभाविक कर्तव्य है परन्तु जब कोई रोगी होने पर भी प्रभु का नाम लेता है तो यह उसकी विवशता है। इसी प्रकार यदि सुन्दर रुपवती यौवन से भरपूर स्त्री पतिव्रता धर्म का पालन करती है तो यह उसकी विशेषता मानी जाएगी। वृद्धा स्त्री पतिव्रता होने के अलावा कर भी क्या सकती है? यह उसकी विवशता होती है, विशेषता नहीं।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०७

नान्नोदकसमं दानं न तिथिर्द्वादशी समा ।
न गायत्र्याः परो मन्त्रो न मातुपरं दैवतम् ।।

♦️भावार्थ - अन्न और जल के समान कोई श्रेष्ठ दान नहीं, द्वादशी के समान कोई श्रेष्ठ तिथि नहीं, गायत्री से बढ़कर कोई मंत्र नहीं और माता से बढ़कर कोई देवता नहीं।

👉 आचार्य चाणक्य का कहना है कि भूखे व्यक्ति को भोजन और प्यासे को जल पिलाने के समान श्रेष्ठ दान कोई नहीं। उनका विचार है कि द्वादशी को किया हुआ पुण्य कर्म अधिक फल देने वाला होता है। गायत्री को सर्वश्रेष्ठ मंत्र माना गया है। गायत्री को सिद्ध कर लेने पर व्यक्ति के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। इसी प्रकार सबसे बढ़कर माता सम्मान की पात्र हैं, उसका स्थान देवताओं से भी ऊँचा है, क्यों कि वह मनुष्य को जन्म देने वाली है। माता ही संतान को प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से संस्कारित करती है। संस्कार ही मनुष्य के जीवन का आधार है।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०८

तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायास्तु मस्तके।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वांगे दुर्जने विषम् ।।

♦️भावार्थ - साँप का विष उसके दाँत में होता है, मक्खी का विष उसके सिर में रहता है, बिच्छू का विष उसके पूँछ में होता है अर्थात् इन सभी विषैले प्राणियों के एक एक अंग में ही विष होता है, लेकिन दुर्जन मनुष्य के सभी अंग विष से भरे हुए होते हैं।

आचार्य चाणक्य का कथन है कि विषैले प्राणियों का विष प्रयोग करने के लिए समय चाहिए। वे विशेष परिस्थितियों में ही, जैसे कि शिकार करने या अपने बचाव के लिए ही अपने विष का प्रयोग करते हैं। जब कि दुष्ट तो सदैव विषदंश करता रहता है।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०९

पत्युराज्ञां विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी।
आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत्।

♦️भावार्थ : पति की आज्ञा के बिना जो स्त्री उपवास रुपी व्रत करती है, वह अपने पति की आयु को कम करने वाली होती है। वह स्त्री नरक में जाती है, उसे महान कष्ट भोगने पड़ते हैं।



♦️श्लोक :- १०

न दानैः शुध्यते नारी नोपवासशतैरपि।
न तीर्थसेवया तद्वद् भर्तुः पादोदकैर्यथा।।

♦️भावार्थ - स्त्री अनेक प्रकार के दान करने से शुद्ध नहीं होती अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती, सैकड़ों उपवास करने से भी वह शुद्ध नहीं होती, अनेक तीर्थों की यात्रा करने के बाद भी वह शुद्ध नहीं होती, वह तो केवल पति चरणों की सेवा से ही शुद्ध हो सकती है अर्थात मोक्ष प्राप्त कर सकती है।

आचार्य चाणक्य के अनुसार स्त्री का सबसे प्रथम कर्तव्य अपने पति की सेवा है। जो स्त्री अपने पति की सेवा न करती हो तथा अन्य धार्मिक कार्यों में अपना समय व्यतीत करने का प्रयत्न करती है, उसे कोई विशेष लाभ नहीं होता। उसका सर्वप्रथम कर्तव्य पति की सेवा करना है, उसी से उसे मोक्ष मिलता है। परोक्ष रूप से संदेश यह है कि स्त्री पहले अपने पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वाह करे। सेवा ही उसकी मुक्ति का साधन है।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ११

दानेन पाणिर्न तु कंकणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन।।

♦️भावार्थ - हाथ की शोभा कंगन पहनने से नहीं वरन् दान आदि देने से होती है। शरीर की शुद्धि स्नान करने से होती है, चन्दन लगाने से नहीं। मनुष्य की तृप्ति आदर-सम्मान से होती है, भोजन से नहीं और मनुष्य को मोक्ष ज्ञान से होता है, चन्दन आदि के तिलक लगाने से नहीं।। ११ ।।

आचार्य चाणक्य ने यहाँ पर बाहरी साधनों की निरर्थकता बतलाते हुए आंतरिक श्रेष्ठता और संतुष्टि पर जोर दिया है। बाह्य साधनों को ही असल मान लेना मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है। यह भूल अक्सर लोग करते ही रहते हैं।


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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १३

सद्यः प्रज्ञाहरा तुण्डी सद्यः प्रज्ञाकरी वचा ।
सद्यः शक्तिहरा नारी सद्यः शक्तिकरं पयः ।।

♦️भावार्थ - कुंदरु खाने से तत्काल मनुष्य की बुद्धि नष्ट होती है, वच खाने से तत्काल बुद्धि बढ़ती है, नारी शीघ्र ही शक्ति का हरण करती है और दूध पीने से उसी क्षण बल प्राप्त होता है।।१३।।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १५

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।

♦️भावार्थ : भोजन करना, नींद लेना, भयभीत होना और मैथुन अर्थात सन्तान की उत्पत्ति करना, ये सब बातें मनुष्य और पशु में एक जैसी होती हैं। मनुष्य में पशुओं की अपेक्षा धर्म ही ऐसी विशेष वस्तु है जो उनसे अधिक होती है। यदि मनुष्य में धर्म न हो तो वह पशु के समान है।।१५।।


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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १६

दानार्थिनो मधुकरा यदि कर्णतालैर् दूरीकृताः करिवरेण मदान्धबुद्ध्या।

तस्यैव गण्डयुगमण्डनहानिरेषा भृंगाः पुनर्विकचपद्मवने वसन्ति।।१६।।

♦️भावार्थ : यदि मद में अंधा हाथी अपनी मंदबुद्धि के कारण अपने मस्तक पर बैठे हुए मद पीने के इच्छुक भौरों को अपने कान फड़फड़ाकर दूर भगा देता है तो इसमें भौरों की कोई हानि नहीं होती। वे जाकर खिले हुए कमलों पर जा बैठते हैं, उन्हें वहाँ से रस मिल जाता है परन्तु ऐसा करने से हाथी के गण्डस्थल की ही शोभा नष्ट होती है।

आचार्य चाणक्य का अभिप्राय है कि कुछ माँगने आये हुए याचक को लौटाने से याचक की हानि नहीं होती अपितु दाता की हानि होती है। याचक को निराश नहीं लौटाना चाहिये, उसका सम्मान करके उसको दान दक्षिणा दें, जिससे वह लोगों के सामने दाता के गुणों का वर्णन करे।।१६।।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १७

राजा वेश्या यमो ह्यग्निस्तस्करो बालयाचकौ।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो ग्रामकण्टकः ।।

♦️भावार्थ : राजा, वेश्या, यमराज, अग्नि, चोर, बालक, याचक और ग्रामीणों को सताने वाले - ये आठों बड़े ही कठोर होते हैं। ये दूसरों के कष्टों को नहीं समझते। संकेत है कि इनसे बचकर रहें।।१७।।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १७

राजा वेश्या यमो ह्यग्निस्तस्करो बालयाचकौ।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो ग्रामकण्टकः ।।

♦️भावार्थ : राजा, वेश्या, यमराज, अग्नि, चोर, बालक, याचक और ग्रामीणों को सताने वाले - ये आठों बड़े ही कठोर होते हैं। ये दूसरों के कष्टों को नहीं समझते। संकेत है कि इनसे बचकर रहें।।१७।।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १८

अधः पश्यसि किं वृद्धे पतितं तव किं भुवि।
रे रे मुर्ख न जानासि गतं तारुण्यमौक्तिकम्।

♦️भावार्थ - किसी अत्यंय बूढ़ी स्त्री को, जिसकी कमर बुढ़ापे के कारण झुक गयी थी, देखकर कोई युवक व्यंग्य करते हुए पूछने लगा - हे वृद्धे नीचे क्या ढूँढ़ रही हो? क्या पृथ्वी पर तुम्हारी कोई चीज गिरी पड़ी है? तुम्हारा कुछ खो तो नहीं गया? उस व्यंग्य को सुनकर बूढ़ी औरत ने कहा कि अरे मूर्ख ! तू नहीं जानता कि मेरा यौवनरुपी मोती खो गया है। मैं उसी को ढूँढ़ रही हूँ।

वृद्धा का संकेत है कि इस संसार में जिसने जन्म लिया है, वह बचपन, किशोर और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था को प्राप्त होता है, इससे कोई भी नहीं बच सकता। तू भी यहाँ पहुंचेगा। इसलिये मुझ पर न हंस! जिसका सामना करना हो, उस पर क्यों हँसना?

यह श्लोक वृद्धों की उपेक्षा की ओर भी ध्यान दिलाता है। हर पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी का मजाक ही उड़ाती है। एक विचारक ने सही कहा है कि - वृक्ष की शाखाएं , पत्ते और फूल यह भूल जाते हैं कि उन्हें जीवन उन जड़ों से मिल रहा है जो कुरूप, परोक्ष और निष्क्रिय हैं।।१८।।


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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- १९

व्यालाश्रयाऽपि विफलापि सकण्टकापि।
वक्राऽपि पंकिल - भवाऽपि दुरासदाऽपि।
गन्धेन बंधुरसि केतकि सर्वजन्तोर्
एको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्।।

भावार्थ : हे केतकी ! तुझसे साँप लिपटे रहते हैं, फल भी नहीं लगते, काँटे भी हैं और वक्रता भी है। इसके अतिरिक्त तेरा जन्म कीचड़ में होता है और तू सरलता से प्राप्त भी नहीं होती। इतना सब कुछ होने पर भी तेरे में जो गंध है, वह सब प्राणियों को मोह लेती है।।१९।।

आचार्य चाणक्य के अनुसार व्यक्ति में यदि एक भी श्रेष्ठ गुण हो तो उसमें सारे दोष सहज ही छुप जाते हैं।

#chanakya


चाणक्य नीति समाप्तः जातः
चाणक्य नीति समाप्त हुआ।
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