थक गये हैं जंग खाये तीर-
अब टूटी कमानों पर चढ़े
प्रश्न है, थामे पताका कौन?
पहले कौन रथ आगे बढ़े?
जीततीं भूखे सवालों से समर में
तृप्त सेनाएँ जवाबों की
फिर हमें पहुँचा गयी जलते वनों तक
वंचना हँसते गुलाबों की
~किशन सरोज
#kavigram #hindipoetry #kishansaroj
अब टूटी कमानों पर चढ़े
प्रश्न है, थामे पताका कौन?
पहले कौन रथ आगे बढ़े?
जीततीं भूखे सवालों से समर में
तृप्त सेनाएँ जवाबों की
फिर हमें पहुँचा गयी जलते वनों तक
वंचना हँसते गुलाबों की
~किशन सरोज
#kavigram #hindipoetry #kishansaroj
कीचड़ उसके पास था, मेरे पास गुलाल।
जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल।।
~माणिक वर्मा
#kavigram #hindipoetry
जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल।।
~माणिक वर्मा
#kavigram #hindipoetry
अब तो नाम ग़रीबी का भी लेने में डर लगता है
सरकारी दस्तावेज़ों में खुशहाली है बाबूजी
मिट्टी बेच रहा हूँ जिसमें कोई जाल फरेब नहीं
सोना चांदी दूध मिठाई सब जाली है बाबूजी
~ज्ञानप्रकाश आकुल
#Kavigram #hindipoetry #GyanPrakashAakul
सरकारी दस्तावेज़ों में खुशहाली है बाबूजी
मिट्टी बेच रहा हूँ जिसमें कोई जाल फरेब नहीं
सोना चांदी दूध मिठाई सब जाली है बाबूजी
~ज्ञानप्रकाश आकुल
#Kavigram #hindipoetry #GyanPrakashAakul
यह मरघट का सन्नाटा तो रह-रहकर काटे जाता है
दुःख दर्द तबाही से दबकर मुफ़लिस का दिल चिल्लाता है
यह झूठा सन्नाटा टूटे
पापों का भरा घड़ा फूटे
तुम ज़ंजीरों की झनझन में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी!
जो जीने का आनंद मिले
जो मरने का आनंद मिले
© गोपाल सिंह नेपाली
#HindiPoetry #Kavigram
दुःख दर्द तबाही से दबकर मुफ़लिस का दिल चिल्लाता है
यह झूठा सन्नाटा टूटे
पापों का भरा घड़ा फूटे
तुम ज़ंजीरों की झनझन में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी!
जो जीने का आनंद मिले
जो मरने का आनंद मिले
© गोपाल सिंह नेपाली
#HindiPoetry #Kavigram
एक दल बोलता है हमको थमा दो देश
हम लोकतंत्र की ज़मीन बेच देते हैं
एक दल बोलता है हमको थमा दो देश
जनता का धर्म और दीन बेच देते हैं
एक नेता बोला हम बन के मुंगेरी लाल
जनता को सपने हसीन बेच देते हैं
जनता ने कहा हम वायदों की बीन पर
काले कोबरा को आस्तीन बेच देते हैं
© चिराग़ जैन
#ChiragJain #kavigram #hindipoetry
हम लोकतंत्र की ज़मीन बेच देते हैं
एक दल बोलता है हमको थमा दो देश
जनता का धर्म और दीन बेच देते हैं
एक नेता बोला हम बन के मुंगेरी लाल
जनता को सपने हसीन बेच देते हैं
जनता ने कहा हम वायदों की बीन पर
काले कोबरा को आस्तीन बेच देते हैं
© चिराग़ जैन
#ChiragJain #kavigram #hindipoetry
सत्ता चाहे जिसकी भी हो अहम् नहीं स्वीकार प्रजा को
कर्मकाण्ड से कर्मयोग ने पल में लिया उबार प्रजा को
गोकुलवालो! छोड़ो छलिया इंद्रदेव का पूजन करना
पर्वत ढोकर ही मिलता है जीने का अधिकार प्रजा को
© चिराग़ जैन
गौवर्द्धन पर्व की शुभेषणा!
#Govardhan
#HindiPoetry
#kavigram
#ChiragJain
कर्मकाण्ड से कर्मयोग ने पल में लिया उबार प्रजा को
गोकुलवालो! छोड़ो छलिया इंद्रदेव का पूजन करना
पर्वत ढोकर ही मिलता है जीने का अधिकार प्रजा को
© चिराग़ जैन
गौवर्द्धन पर्व की शुभेषणा!
#Govardhan
#HindiPoetry
#kavigram
#ChiragJain
ये भी मुमकिन है ये बौनों का शहर हो; इसलिए
छोटे दरवाज़ों की ख़ातिर अपना क़द छोटा न कर
~ राजगोपाल सिंह
#kavigram #hindipoetry
छोटे दरवाज़ों की ख़ातिर अपना क़द छोटा न कर
~ राजगोपाल सिंह
#kavigram #hindipoetry
हर दिशा में विष घुला है
मृत्यु का फाटक खुला है
इक धुँआ-सा हर किसी के
प्राण लेने पर तुला है
साँस ले पाना कठिन है, घुट रहा है दम
नीलकंठी हो गए हैं हम
हम ज़हर के घूँट को ही श्वास कहने पर विवश हैं
ज़िन्दगी पर हो रहे आघात सहने पर विवश हैं
श्वास भी छलने लगी है
पुतलियाँ जलने लगी हैं
इस हलाहल से रुधिर की
वीथियाँ गलने लगी हैं
उम्र आदम जातियों की हो रही है कम
नीलकंठी हो गए हैं हम
पेड़-पौधों के नयन का स्वप्न तोड़ा है शहर ने
हर सरोवर, हर नदी का मन निचोड़ा है शहर ने
अब हवा तक बेच खाई
भेंट ईश्वर की लुटाई
श्वास की बाज़ी लगाकर
कौन-सी सुविधा जुटाई
जो सहायक थे, उन्हीं से हो गए निर्मम
नीलकंठी हो गए हैं हम
लोभ की मथनी चलाई, नाम मंथन का लिया है
सत्य है हमने समूची सृष्टि का दोहन किया है
देवता नाराज़ हैं सब
यंत्र धोखेबाज़ हैं सब
छिन चुके वरदान सारे
किस क़दर मोहताज हैं सब
हद हुई है पार, बाग़ी हो गया मौसम
नीलकंठी हो गए हैं हम
अब प्रकृति के देवता को पूज लेंगे तो बचेंगे
जो मिटाया है उसे फिर से रचेंगे तो बचेंगे
साज हैं पर स्वर नहीं हैं
राह है रहबर नहीं हैं
विष पचाकर जी सकेंगे
हम कोई शंकर नहीं हैं
मृत्यु ताण्डव कर रही है, द्वार पर है यम
नीलकंठी हो गए हैं हम
© चिराग़ जैन
#ChiragJain #pollution #hindipoetry
मृत्यु का फाटक खुला है
इक धुँआ-सा हर किसी के
प्राण लेने पर तुला है
साँस ले पाना कठिन है, घुट रहा है दम
नीलकंठी हो गए हैं हम
हम ज़हर के घूँट को ही श्वास कहने पर विवश हैं
ज़िन्दगी पर हो रहे आघात सहने पर विवश हैं
श्वास भी छलने लगी है
पुतलियाँ जलने लगी हैं
इस हलाहल से रुधिर की
वीथियाँ गलने लगी हैं
उम्र आदम जातियों की हो रही है कम
नीलकंठी हो गए हैं हम
पेड़-पौधों के नयन का स्वप्न तोड़ा है शहर ने
हर सरोवर, हर नदी का मन निचोड़ा है शहर ने
अब हवा तक बेच खाई
भेंट ईश्वर की लुटाई
श्वास की बाज़ी लगाकर
कौन-सी सुविधा जुटाई
जो सहायक थे, उन्हीं से हो गए निर्मम
नीलकंठी हो गए हैं हम
लोभ की मथनी चलाई, नाम मंथन का लिया है
सत्य है हमने समूची सृष्टि का दोहन किया है
देवता नाराज़ हैं सब
यंत्र धोखेबाज़ हैं सब
छिन चुके वरदान सारे
किस क़दर मोहताज हैं सब
हद हुई है पार, बाग़ी हो गया मौसम
नीलकंठी हो गए हैं हम
अब प्रकृति के देवता को पूज लेंगे तो बचेंगे
जो मिटाया है उसे फिर से रचेंगे तो बचेंगे
साज हैं पर स्वर नहीं हैं
राह है रहबर नहीं हैं
विष पचाकर जी सकेंगे
हम कोई शंकर नहीं हैं
मृत्यु ताण्डव कर रही है, द्वार पर है यम
नीलकंठी हो गए हैं हम
© चिराग़ जैन
#ChiragJain #pollution #hindipoetry