भक्ति रस [जंबू द्वीप (भारत 🇮🇳)](Dreamy Devotion)
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detox for SOUL, divine and eternal peace while being spiritual....the PETRICHOR of life.
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पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥11-43॥

आप समस्त चर-अचर के स्वामी और समस्त ब्रह्माण्डों के जनक हैं। आप परम पूजनीय आध्यात्मिक गुरु हैं। हे अतुल्य शक्ति के स्वामी! जब समस्त तीनों लोकों में आपके समतुल्य कोई नहीं है तब आप से बढ़कर कोई कैसे हो सकता है।

You are the Father of the entire universe, of all moving and non-moving beings. You are the most deserving of worship and the Supreme Spiritual Master. When there is none equal to You in all the three worlds, then who can possibly be greater than You, O Possessor of incomparable power?
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥11-44॥

इसलिए हे पूजनीय भगवान! मैं आपके समक्ष नतमस्तक होकर और साष्टांग प्रणाम करते हुए आपकी कृपा प्राप्त करने की याचना करता हूँ। जिस प्रकार पिता पुत्र के हठ को सहन करता है, मित्र इष्टता को और प्रियतम अपनी प्रेयसी के अपराध को क्षमा कर देता है उसी प्रकार से कृपा करके मुझे मेरे अपराधों के लिए क्षमा कर दो।

Therefore, O adorable Lord, bowing deeply and prostrating before You, I implore You for Your grace. As a father tolerates his son, a friend forgives his friend, and a lover pardons the beloved, please forgive me for my offences.
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देवरुपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥11-45॥

पहले कभी न देखे गए आपके विराट रूप का अवलोकन कर मैं अत्यधिक हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही साथ मेरा मन भय से कांप रहा है। इसलिए हे देवेश, हे जगन्नाथ! कृपया मुझ पर दया करें और मुझे पुनः अपना आनन्दमयी स्वरूप दिखाएँ।

Having seen Your universal form that I had never seen before, I feel great joy. And yet, my mind trembles with fear. Please have mercy on me and again show me Your pleasing form, O God of gods, O Abode of the universe.
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त-मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥11-46॥

हे सहस्र बाहु! यद्यपि आप समस्त सृष्टि में अभिव्यक्त हैं किन्तु मैं तुम्हारे मुकुटधारी चक्र और गदा उठाए हुए चतुर्भुज नारायण रूप के दर्शन करना चाहता हूँ।

O Thousand-armed One, though You are the embodiment of all creation, I wish to see You in Your four-armed form, carrying the mace and disc, and wearing the crown.
श्रीभगवानुवाच।
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥11-47॥

आनन्दमयी भगवान ने कहा-हे अर्जुन! तुम पर प्रसन्न होकर मैनें अपनी योगमाया शक्ति द्वारा तुम्हें अपना दीप्तिमान अनन्त और आदि विश्व रूप दिखाया। तुमसे पहले किसी ने मेरे इस विराट रूप को नहीं देखा।

The Lord said: Arjun, being pleased with you, by My Yogmaya power, I gave you a vision of My resplendent, unlimited, and primeval cosmic form. No one before you has ever seen it.
ने वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै-र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥11-48॥

हे कुरुश्रेष्ठ! न तो वेदों के अध्ययन से और न ही यज्ञ, कर्मकाण्डों, दान, पुण्य, यहाँ तक कि कठोर तप करने से भी किसी जीवित प्राणी ने मेरे विराटरूप को कभी देखा है जिसे तुम देख चुके हो।

Not by study of the Vedas, nor by the performance of sacrifice, rituals, or charity, nor even by practicing severe austerities, has any mortal ever seen what you have seen, O best of the Kuru warriors.
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥11-49॥

मेरे भयानक रूप को देखकर तुम न तो भयभीत हो और न ही मोहित हो। भयमुक्त और प्रसन्नचित्त होकर मेरे पुरुषोत्तम रूप को देखो।

Be neither afraid nor bewildered on seeing this terrible form of Mine. Be free from fear and with a cheerful heart, behold Me once again in My personal form.
सञ्जय उवाच।
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्तवा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥11-50॥

संजय ने कहाः ऐसा कहकर वासुदेव के करुणामय पुत्र ने पुनः अपना चतुर्भुज रूप प्रकट किया और फिर अपना दो भुजाओं वाला सुन्दर रूप प्रदर्शित कर भयभीत अर्जुन को सांत्वना दी।

Sanjay said: Having spoken thus, the compassionate son of Vasudev displayed His personal (four-armed) form again. Then, He further consoled the frightened Arjun by assuming His gentle (two-armed) form.
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अर्जुन उवाच।
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥11-51॥

अर्जुन ने कहा-हे जनार्दन! आपके दो भुजा वाले मनोहर मानव रूप को देखकर मुझ में आत्मसंयम लौट आया है और मेरा चित्त स्थिर होकर सामान्य अवस्था में आ गया है।

Arjun said: O Shree Krishna, seeing Your gentle human form (two-armed), I have regained my composure and my mind is restored to normal.
श्रीभगवानउवाच।
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाड्.क्षिणः ॥11-52॥
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥11-53॥

परम प्रभु ने कहा-मेरे जिस रूप का तुम अवलोकन कर रहे हो उसे देख पाना अति दुष्कर है। यहाँ तक कि स्वर्ग के देवताओं को भी इसका दर्शन करने की उत्कंठा होती है। मेरे इस रूप को न तो वेदों के अध्ययन, न ही तपस्या, दान और यज्ञों जैसे साधनों द्वारा देखा जा सकता है जैसाकि तुमने देखा है।

The Supreme Lord said: This form of Mine that you are seeing is exceedingly difficult to behold. Even the celestial gods are eager to see it. Neither by the study of the Vedas, nor by penance, charity, or fire sacrifices, can I be seen as you have seen Me.
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥11-54॥

हे अर्जुन! मैं जिस रूप में तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ उसे केवल अनन्य भक्ति से जाना जा सकता है। हे शत्रुहंता! इस प्रकार मेरी दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर ही कोई वास्तव में मुझमें एकीकृत हो सकता है|

O Arjun, by unalloyed devotion alone can I be known as I am, standing before you. Thereby, on receiving My divine vision, O scorcher of foes, one can enter into union with Me.
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥11-55॥

वे जो मेरे प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, जो मुझ पर ही भरोसा करते हैं, आसक्ति रहित रहते हैं और किसी भी प्राणी से द्वेष नहीं रखते। ऐसे भक्त निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करते हैं।

Those who perform all their duties for My sake, who depend upon Me and are devoted to Me, who are free from attachment, and are without malice toward all beings, such devotees certainly come to Me.
ऊँ जै यक्ष कुबेर हरे,
स्वामी जै यक्ष जै यक्ष कुबेर हरे ।
शरण पड़े भगतों के,
भण्डार कुबेर भरे ।
॥ ऊँ जै यक्ष कुबेर हरे...॥

शिव भक्तों में भक्त कुबेर बड़े,
स्वामी भक्त कुबेर बड़े ।
दैत्य दानव मानव से,
कई-कई युद्ध लड़े ॥
॥ ऊँ जै यक्ष कुबेर हरे...॥

स्वर्ण सिंहासन बैठे,
सिर पर छत्र फिरे,
स्वामी सिर पर छत्र फिरे ।
योगिनी मंगल गावैं,
सब जय जय कार करैं ॥
॥ ऊँ जै यक्ष कुबेर हरे...॥

गदा त्रिशूल हाथ में,
शस्त्र बहुत धरे,
स्वामी शस्त्र बहुत धरे ।
दुख भय संकट मोचन,
धनुष टंकार करें ॥
॥ ऊँ जै यक्ष कुबेर हरे...॥

भांति भांति के व्यंजन बहुत बने,
स्वामी व्यंजन बहुत बने ।
मोहन भोग लगावैं,
साथ में उड़द चने ॥
॥ ऊँ जै यक्ष कुबेर हरे...॥

बल बुद्धि विद्या दाता,
हम तेरी शरण पड़े,
स्वामी हम तेरी शरण पड़े ।
अपने भक्त जनों के,
सारे काम संवारे ॥
॥ ऊँ जै यक्ष कुबेर हरे...॥

मुकुट मणी की शोभा,
मोतियन हार गले,
स्वामी मोतियन हार गले ।
अगर कपूर की बाती,
घी की जोत जले ॥
॥ ऊँ जै यक्ष कुबेर हरे...॥

यक्ष कुबेर जी की आरती,
जो कोई नर गावे,
स्वामी जो कोई नर गावे ।
कहत प्रेमपाल स्वामी,
मनवांछित फल पावे ॥
॥ ऊँ जै यक्ष कुबेर हरे...॥
( रस शास्त्र )  -


महारस - रस शास्त्र  में महारस की संख्या आठ मानी गयी है | जोकि इस प्रकार है -


अभ्रक -      Mica
वैक्रान्त -     Tourmaline
माक्षिक -     Pyrite
विमल -       Iron Pyrite
शिलाजीत -  Black Bitumen
सस्यक  -     Copper Sulphate
चपल -         Bismuth
रसक -        Calamine or Zinc 

उपरस वर्ग  - उपरस की संख्या भी आठ मानी गयी है जोकि इस प्रकार है -

गन्धक -                   Sulphur
गैरिक -                   Ochre
कासीस -                 Green Vitriol 
फिटकरी ( कांक्षी ) - Potash Alum
हरताल -                 Orpiment
मन:शिला -              Realgar 
अंजन -                   Collyrium
कंकुष्ठ -                   Ruhbarb

💥 रस वर्ग - यह भी संख्या में आठ बताये गए है

कम्पिल्लक -             Kamila
गौरीपाषाण -             Arsenic 
नवसादर -                Ammonium Salt 
कपर्द ( कौड़ी ) -       Marine Shell
अग्निजार ( अम्बर ) -  Ambergris
गिरिसिंदूर -               Red Oxide of Mercury 
हिंगुल -                     Cinnabar
मृददारश्रृंग  -             Litharge 

💥धातु वर्ग - धातु की संख्या सात बताई गयी है

सुवर्ण -  Gold
रजत -   Silver
ताम्र -    Copper
लौह -    Iron
नाग -     Lead
वंग -      Tin
यशद -   Zinc

💥रत्न वर्ग - रत्न की संख्या नो बताई गयी है -

माणिक्य -           Ruby
मुक्ता ( मोती ) -  Pearl
प्रवाल ( मूंगा ) -  Coral
ताक्षर्य ( पन्ना ) -  Emerald
पुखराज -           Topaz
भिदुर ( हीरा ) -  Diamond
नीलम -             Sapphire
गोमेद -             Zircon
वैदूर्य -              Cat's eye
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A year 2024, grappling with quiet 🤐 battles fought within 🫨and  sometimes a struggle to simply  keep going. From Captivated 🫣 in the haze of sad, endless nights, moments where the weight of tears fell like relentless rain, 🌧️
I am here to remind you 🤗 that
As the calendar 🗓️ flips,  see glimpse of light peeking through the clouds ☁️, a whisper of better tomorrow, a heart ❣️ full of anticipation and the warmth of newfound happiness.  🤗

🤝Wish you a happy 😊 and prosperous 💖 2025
ॐ भुजंगेशाय विद्महे,सर्पराजाय धीमहि, तन्नो नाग: प्रचोदयात्।

नमोsस्तु सर्पेभ्यः ये के च पृथिवीमनु। ये अंतरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः॥


नाग देवता केवल पूजे नहीं जाते,
बल्कि हमें सिखाते हैं —
कि ज़हर को भी संयम से संभाला जाए।
शक्ति का प्रयोग सद्बुद्धि से हो — यही सच्ची पूजा है।

🙏 शुभ नाग पंचमी 🙏

Happy Naag Panchami
ॐ तत्सदिति श्रीमहाभारते शतसाहस्रयां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवदीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायं योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः।।

Thus ends Chapter Eleven entitled Viśvarūpa Darśana Yoga from the conversation between Śrī Kṛṣṇa and Arjuna in the Upaniṣad known as Śrīmad Bhagavad-gītā, the yoga-śāstra of divine knowledge, from the Bhīṣma-parva of Mahābhārata, the literature revealed by Vyāsa in one hundred thousand verses.
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्त तेषां के योगवित्तमाः ।।12 - १।।


अर्जुन बोले-जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्मको ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं - उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं ? ।। 12-१ ।।

Arjuna said : The devotees who, with their minds constantly fixed on You as shown above, adore You as possessed of form and attributes, and those who adore as the supreme Reality only the indestructible unmanifest Brahma (who is Truth, Knowledge and Bliss solidified)- of these two types of worshippers who are the best knowers of Yoga?
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ।। 12-२ ।।

श्रीभगवान् बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुण रूप
परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझ को योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं ।। 12-२ ।।

Sri Bhagavan said : I consider them to be the best Yogis, who endowed with supreme faith, and ever united through 'meditation with Me, worship Me with the mind centred on Me. ।। 12-२ ।।
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्त पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।12- ३ ।।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ।।12-४।।

परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं ।। ३-४ ।।

Those, however, who fully controlling all their senses and even-minded towards all, and devoted to the welfare ofallbeinys, constantly adore as their very self the unthinkable; omnipresent, indestructible indefinabie, eternal, immovable, unmanifest and changeless Brahma, they too come to Me.