अप्रैल 27, 2025 ईस्वी आज का दिन आप, आपके परिवार, आपके कुटुम्ब तथा आपके इष्ट मित्रों के लिए शुभ,सफल और मंगलमय हो।
।। ॐ सुभाषित ॐ ।।
कोऽन्धो योऽकार्यरतः को बधिरो यो हितानि न श्रुणोति।
को मूको यः काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति॥
अन्धा कौन है? जो बुरे कार्यों में संलग्न रहता है।
बहरा कौन है? जो हितकारी बातों को नहीं सुनता।
गूँगा कौन है? जो उचित समय पर प्रिय वाक्य बोलना नहीं जानता।
जय श्री सूर्यदेव
जय श्री राम
।। ॐ सुभाषित ॐ ।।
कोऽन्धो योऽकार्यरतः को बधिरो यो हितानि न श्रुणोति।
को मूको यः काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति॥
अन्धा कौन है? जो बुरे कार्यों में संलग्न रहता है।
बहरा कौन है? जो हितकारी बातों को नहीं सुनता।
गूँगा कौन है? जो उचित समय पर प्रिय वाक्य बोलना नहीं जानता।
जय श्री सूर्यदेव
जय श्री राम
अप्रैल 27, 2025 ईस्वी आज का दिन आप, आपके परिवार, आपके कुटुम्ब तथा आपके इष्ट मित्रों के लिए शुभ,सफल और मंगलमय हो।
।। ॐ सुभाषित ॐ ।।
महाजनस्य संपर्क: कस्य न उन्नतिकारक:।
मद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम्।।
महाजनों और गुरुओं के संपर्क से कौन उन्नति नहीं करता ? कमल के पत्ते पर पड़ी पानी की एक बूंद मोती की तरह चमकती है।
जय श्री सूर्य देव
जय श्री राम
।। ॐ सुभाषित ॐ ।।
महाजनस्य संपर्क: कस्य न उन्नतिकारक:।
मद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम्।।
महाजनों और गुरुओं के संपर्क से कौन उन्नति नहीं करता ? कमल के पत्ते पर पड़ी पानी की एक बूंद मोती की तरह चमकती है।
जय श्री सूर्य देव
जय श्री राम
अयोध्या पञ्चाङ्ग
दिन : सोमवार
दिनांक: 28 अप्रैल 2025
सूर्योदय : 5:44 प्रात:
सूर्यास्त : 6:54 सांय
विक्रम संवत : 2082
मास : वैशाख
पक्ष : शुक्ल
तिथि : प्रतिपदा 9:13 रात्रि तक फिर द्वितीया
नक्षत्र : भरणी 9: 38 रात्रि तक फिर कृत्तिका
योग : आयुष्मान 8:02 रात्रि तक फिर सौभाग्य
राहुकाल : 7:23 - 8:59 प्रातः तक
श्री अयोध्या नगरी
जय श्री राम
दिन : सोमवार
दिनांक: 28 अप्रैल 2025
सूर्योदय : 5:44 प्रात:
सूर्यास्त : 6:54 सांय
विक्रम संवत : 2082
मास : वैशाख
पक्ष : शुक्ल
तिथि : प्रतिपदा 9:13 रात्रि तक फिर द्वितीया
नक्षत्र : भरणी 9: 38 रात्रि तक फिर कृत्तिका
योग : आयुष्मान 8:02 रात्रि तक फिर सौभाग्य
राहुकाल : 7:23 - 8:59 प्रातः तक
श्री अयोध्या नगरी
जय श्री राम
अप्रैल 28, 2025 ईस्वी आज का दिन आप, आपके परिवार, आपके कुटुम्ब तथा आपके इष्ट मित्रों के लिए शुभ,सफल और मंगलमय हो।
।। ॐ सुभाषित ॐ ।।
सुखमापतितं सेव्यं दु:खमापतितं तथा ।
चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि च सुखानि
जीवन में आनेवाले सुख का आनंद लें, तथा दु:ख को भी स्वीकार करें ।
सुख और दु:ख तो एक के बाद एक चक्रवत आते रहते है ॥
जय श्री शिव शंकर
जय श्री राम
।। ॐ सुभाषित ॐ ।।
सुखमापतितं सेव्यं दु:खमापतितं तथा ।
चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि च सुखानि
जीवन में आनेवाले सुख का आनंद लें, तथा दु:ख को भी स्वीकार करें ।
सुख और दु:ख तो एक के बाद एक चक्रवत आते रहते है ॥
जय श्री शिव शंकर
जय श्री राम
भोलेनाथ
2 तरह से तांडव नृत्य करते हैं।
पहला जब वो गुस्सा होते हैं
तब बिना डमरू के तांडव नृत्य करते हैं।
दूसरे तांडव नृत्य करते समय
जब वह डमरू भी बजाते हैं
तो प्रकृति में आनंद की बारिश होती थी।
ऐसे समय में शिव
परम आनंद से पूर्ण रहते हैं।
लेकिन जब वो शांत समाधि में होते हैं
तो नाद करते हैं।
नाद और शिव का अटूट संबंध है।
नाद एक ऐसी ध्वनि है
जिसे "ऊँ" कहा जाता है।
"ऊं"से ही भगवान शिव का जन्म हुआ है।
संगीत के 7 स्वर तो आते-जाते रहते हैं लेकिन उनके केंद्रीय स्वर नाद में ही हैं।
नाद से ही ध्वनि
और ध्वनि से ही वाणी की उत्पत्ति हुई है।
शिव का डमरू "नाद-साधना" का प्रतीक माना गया है।
ॐ नमः शिवाय
हर हर शम्भु
2 तरह से तांडव नृत्य करते हैं।
पहला जब वो गुस्सा होते हैं
तब बिना डमरू के तांडव नृत्य करते हैं।
दूसरे तांडव नृत्य करते समय
जब वह डमरू भी बजाते हैं
तो प्रकृति में आनंद की बारिश होती थी।
ऐसे समय में शिव
परम आनंद से पूर्ण रहते हैं।
लेकिन जब वो शांत समाधि में होते हैं
तो नाद करते हैं।
नाद और शिव का अटूट संबंध है।
नाद एक ऐसी ध्वनि है
जिसे "ऊँ" कहा जाता है।
"ऊं"से ही भगवान शिव का जन्म हुआ है।
संगीत के 7 स्वर तो आते-जाते रहते हैं लेकिन उनके केंद्रीय स्वर नाद में ही हैं।
नाद से ही ध्वनि
और ध्वनि से ही वाणी की उत्पत्ति हुई है।
शिव का डमरू "नाद-साधना" का प्रतीक माना गया है।
ॐ नमः शिवाय
हर हर शम्भु
"शिव"
"कल्याणकारी"
"शुभकारी"।
भगवान शिव के साधक को
मृत्यु रोग और शोक का भय नहीं होता।
यजुर्वेद
शिवजी को शांति दाता कहते हैं।
"शिव"
सृष्टि की स्थापना पालन और विनाश के आधार है। इसी कारण भगवान शिव को महादेव कहा जाता है।
प्रणव के दो भेद
"स्थूल" और "सूक्ष्म"
एक अक्षररूप जो "ओम्" है।
उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिये।
और "नमः शिवाय" इस पाँच अक्षरवाले मन्त्र को स्थूल प्रणव समझना चाहिये।
जिसमें पाँच अक्षर व्यक्त नहीं हैं।
वह सूक्ष्म है और जिसमें पाँचों अक्षर सुस्पष्टरूप से व्यक्त हैं
वह स्थूल है।
ऊँ नमः शिवाय
हर हर शम्भु
"कल्याणकारी"
"शुभकारी"।
भगवान शिव के साधक को
मृत्यु रोग और शोक का भय नहीं होता।
यजुर्वेद
शिवजी को शांति दाता कहते हैं।
"शिव"
सृष्टि की स्थापना पालन और विनाश के आधार है। इसी कारण भगवान शिव को महादेव कहा जाता है।
प्रणव के दो भेद
"स्थूल" और "सूक्ष्म"
एक अक्षररूप जो "ओम्" है।
उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिये।
और "नमः शिवाय" इस पाँच अक्षरवाले मन्त्र को स्थूल प्रणव समझना चाहिये।
जिसमें पाँच अक्षर व्यक्त नहीं हैं।
वह सूक्ष्म है और जिसमें पाँचों अक्षर सुस्पष्टरूप से व्यक्त हैं
वह स्थूल है।
ऊँ नमः शिवाय
हर हर शम्भु
महाकाल का
शक्तिशाली महामृत्युंजय मन्त्र
मंत्र विचार
इस मंत्र में आए
प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है।
क्योंकि शब्द ही मंत्र है।
और मंत्र ही शक्ति है।
इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।
शब्द बोधक
त्र: ध्रुव वसु "यम" अध्वर वसु
ब: सोम वसु "कम्" वरुण
य: वायु "ज" अग्नि
म: शक्ति "हे" प्रभास
सु: वीरभद्र "ग" शम्भु
न्धिम: गिरीश "पु" अजैक
ष्टि: अहिर्बुध्न्य "व" पिनाक
र्ध: भवानी पति "नम्" कापाली
उ: दिकपति "र्वा" स्थाणु
रु: भर्ग "क" धाता
मि: अर्यमा "व" मित्रादित्य
ब: वरुणादित्य "न्ध" अंशु
नात: भगादित्य "मृ" विवस्वान
त्यो: इंद्रादित्य "मु" पूषादिव्य
क्षी: पर्जन्यादिव्य "य" त्वष्टा
मा: विष्णुऽदिव्य "मृ" प्रजापति
तात: वषट
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं।
ये बोधक देवताओं के नाम हैं।
हर हर महादेव
शक्तिशाली महामृत्युंजय मन्त्र
मंत्र विचार
इस मंत्र में आए
प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है।
क्योंकि शब्द ही मंत्र है।
और मंत्र ही शक्ति है।
इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।
शब्द बोधक
त्र: ध्रुव वसु "यम" अध्वर वसु
ब: सोम वसु "कम्" वरुण
य: वायु "ज" अग्नि
म: शक्ति "हे" प्रभास
सु: वीरभद्र "ग" शम्भु
न्धिम: गिरीश "पु" अजैक
ष्टि: अहिर्बुध्न्य "व" पिनाक
र्ध: भवानी पति "नम्" कापाली
उ: दिकपति "र्वा" स्थाणु
रु: भर्ग "क" धाता
मि: अर्यमा "व" मित्रादित्य
ब: वरुणादित्य "न्ध" अंशु
नात: भगादित्य "मृ" विवस्वान
त्यो: इंद्रादित्य "मु" पूषादिव्य
क्षी: पर्जन्यादिव्य "य" त्वष्टा
मा: विष्णुऽदिव्य "मृ" प्रजापति
तात: वषट
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं।
ये बोधक देवताओं के नाम हैं।
हर हर महादेव
ये रोज़-रोज़ इसने बचाया उसने बचाया वाली न्यूज़ आ रही लेकिन बचाया किससे,ना आतंकियों से लड़े ना चोट खाई ना गोली खाई तो किससे बचाया,गोली चलने के बाद जो भाग रहे थे उनके साथ भागने को बचाना बोल रहे और ये मीडिया वाले ऐसे बता रहे जैसे बंदूक की नाल में हाथ डाल कर रोक दिया बचाने को।
राम राम रहेगी सभी को!
राम राम रहेगी सभी को!
#कश्मीरी या कहें #मुस्लिम_कश्मीरी आपको विश्वास दिला रहे हैं कि आप यहां घूमने आइये,वह आपका ध्यान रखेंगे... लेकिन वही कश्मीरी ३६ बरस पूर्व निकाले गए कश्मीरी पंडितों को आने का निमंत्रण नहीं दे रहे हैं वजह हम आप सभी जानते हैं पर कहता कोई नहीं क्योंकि सच स्वीकारना ही नहीं चाहता हमारा हिंदू_समाज और कथित #गंगा_जमुनी तहजीब नामक मूर्खता और #हिंदू_मुस्लिम भाई _भाई जहां हम भाई तो नहीं मात्र उनका #चारा बनकर रह गए हैं उसको ना समझता है ना ही कहता है स्वयं से भी...विचार करिएगा राम राम रहेगी सभी को!
अयोध्या पञ्चाङ्ग
दिन : मंगलवार
दिनांक: 28 अप्रैल 2025
सूर्योदय : 5:47 प्रात:
सूर्यास्त : 6:35 सांय
विक्रम संवत : 2082
मास : वैशाख
पक्ष : शुक्ल
तिथि : द्वितीया 5:35 रात्रि तक फिर तृतीया
नक्षत्र : कृत्तिका 6:49 रात्रि तक फिर रोहिणी
योग : सौभाग्य 3:55 अपराह्न तक फिर शोभन
राहुकाल : 3:23 - 4:59 सांय तक
अक्षय तृतीया
29 अप्रैल की शाम 5:32 से लग जाएगा
और 30 अप्रैल की दोपहर 2:11 बजे तक रहेगा।
श्री अयोध्या नगरी
जय श्री राम
दिन : मंगलवार
दिनांक: 28 अप्रैल 2025
सूर्योदय : 5:47 प्रात:
सूर्यास्त : 6:35 सांय
विक्रम संवत : 2082
मास : वैशाख
पक्ष : शुक्ल
तिथि : द्वितीया 5:35 रात्रि तक फिर तृतीया
नक्षत्र : कृत्तिका 6:49 रात्रि तक फिर रोहिणी
योग : सौभाग्य 3:55 अपराह्न तक फिर शोभन
राहुकाल : 3:23 - 4:59 सांय तक
अक्षय तृतीया
29 अप्रैल की शाम 5:32 से लग जाएगा
और 30 अप्रैल की दोपहर 2:11 बजे तक रहेगा।
श्री अयोध्या नगरी
जय श्री राम
अप्रैल 29, 2025 ईस्वी आज का दिन आप, आपके परिवार, आपके कुटुम्ब तथा आपके इष्ट मित्रों के लिए शुभ,सफल और मंगलमय हो।
।। ॐ सुभाषित ॐ ।।
कण्ठे मदः कोद्रवजः हृदि ताम्बूलजो मदः।
लक्ष्मी मदस्तु सर्वाङ्गे पुत्रदारा मुखेष्वपि॥
मदिरा (शराब्) पीने से उसका दुष्प्रभाव कण्ठ पर ( बोलने की क्षमता ) पर पडता है और तंबाकू (पान) खाने से उसका मन पर प्रभाव पड़ता है। परन्तु संपत्तिवान होने का मद (नशा या गर्व) व्यक्तियों न केवल उनके संपूर्ण शरीर पर वरन उनकी स्त्रियों और संतान के मुखों (चेहरों) पर भी देखा जा सकता है।
जय श्री हनुमान
जय श्री राम
।। ॐ सुभाषित ॐ ।।
कण्ठे मदः कोद्रवजः हृदि ताम्बूलजो मदः।
लक्ष्मी मदस्तु सर्वाङ्गे पुत्रदारा मुखेष्वपि॥
मदिरा (शराब्) पीने से उसका दुष्प्रभाव कण्ठ पर ( बोलने की क्षमता ) पर पडता है और तंबाकू (पान) खाने से उसका मन पर प्रभाव पड़ता है। परन्तु संपत्तिवान होने का मद (नशा या गर्व) व्यक्तियों न केवल उनके संपूर्ण शरीर पर वरन उनकी स्त्रियों और संतान के मुखों (चेहरों) पर भी देखा जा सकता है।
जय श्री हनुमान
जय श्री राम
परशुराम जी भगवान #विष्णु के छठे अवतार माने जाते हैं। अक्षयतृतीया के दिन #परशुरामजयंती भी मनाई जाती है। परशुराम जयंती पर पढ़ें परशुराम और कर्ण का एक प्रेरक प्रसंग
महाभारत की कहानियां हमें जीवन में प्रेरणा देती है। महाभारत की एक प्रसिद्ध कथा है जब परशुराम जी ने कर्ण को असत्य बोलने के लिए श्राप दिया था।
कर्ण धनुर्विद्या प्राप्त करना चाहते थे। गुरु द्रोण ने उसे शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि वह केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा देते थे और कर्ण सूत पुत्र था।
कर्ण शिक्षा ग्रहण करने परशुराम जी के पास चले गए क्योंकि वह केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा देते थे। इसलिए कर्ण ब्राह्मण का रूप धारण कर परशुराम के पास थे और धनुर्विद्या प्राप्त करने लगे।
कर्ण ने निष्ठा से धनुर्विद्या परशुराम जी से सीखी और कुछ ही समय में इस विद्या में पारंगत हो गए। एक दिन परशुराम जी और कर्ण वन में धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। अभ्यास के दौरान जब परशुराम जी थक गए तो कर्ण की गोद में सिर रखकर सो गए।
तभी एक बिच्छू ने कर्ण को काटना शुरू कर दिया। गुरु की निद्रा में कोई विध्न ना हो इसलिए कर्ण उस दर्द को सहता रहा। अपने शरीर के किसी भी हिस्से को हिलाया नहीं।
उस समय के पश्चात जब महर्षि परशुराम की नींद खुली तो कर्ण के शरीर से खून की धारा बह रही थी। उन्होंने कर्ण से जब पूरा प्रसंग जाना और पूछा कि तुमने इस कीड़े को हटाया क्यों नहीं। कर्ण कहने लगा कि, मैं गुरु की सेवा में किसी तरह का व्यवधान नहीं डालना चाहता था।"
यह सुनते ही परशुराम जी क्रोधित गए और कहने लगे कि तुमने मुझसे बोलकर शस्त्र विद्या ली है क्योंकि इतनी सहनशक्ति किसी ब्राह्मण में नहीं अपितु क्षत्रिय में ही हो सकती।
उन्होंने कर्ण को अपनी असली पहचान बताने के लिए कहा। करण कहने लगे कि गुरुवर मैं क्षत्रिय नहीं अपितु सुत पुत्र हूं। परशुराम कहने लगे कि," तुमने झूठ बोलकर शिक्षा प्राप्त की है इसलिए मैं तुम को श्राप देता हूं कि इस जिस समय तुम्हें सबसे ज्यादा जरूरत हो तुम तुम मेरे द्वारा सिखाई की शिक्षा भूल जाओगे और वही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा।
कर्ण ने गुरु के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी और कहने लगे कि गुरुदेव मैं तो बस धनुर्विद्या सीखना चाहता था। आप केवल ब्राह्मणों को शिक्षा देते थे इसलिए मैंने आपसे झूठ बोला था।
परशुराम जी कहने लगे कि," मैं अपना शाप को वापस तो नहीं ले सकता लेकिन मेरा आशीर्वाद है कि जब भी महान योद्धाओं की बात की जाएगी तो तुम्हारा नाम जरूर आएगा।"
इसी शाप के परिणामस्व रूप जब महाभारत युद्ध के सत्तारवें दिन कर्ण का पहिया जमीन में धस गया था तभी अर्जुन ने दिव्यास्त्र से कर्ण को मार दिया। कर्ण उसका तोड़ तो जानता था लेकिन श्राप के कारण वह का अनुसंधान करना भूल गया। इस तरह कर्ण को अपने गुरु के साथ बोले गए झूठ का परिणाम भुगतना पड़ा।
महाभारत की कहानियां हमें जीवन में प्रेरणा देती है। महाभारत की एक प्रसिद्ध कथा है जब परशुराम जी ने कर्ण को असत्य बोलने के लिए श्राप दिया था।
कर्ण धनुर्विद्या प्राप्त करना चाहते थे। गुरु द्रोण ने उसे शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि वह केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा देते थे और कर्ण सूत पुत्र था।
कर्ण शिक्षा ग्रहण करने परशुराम जी के पास चले गए क्योंकि वह केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा देते थे। इसलिए कर्ण ब्राह्मण का रूप धारण कर परशुराम के पास थे और धनुर्विद्या प्राप्त करने लगे।
कर्ण ने निष्ठा से धनुर्विद्या परशुराम जी से सीखी और कुछ ही समय में इस विद्या में पारंगत हो गए। एक दिन परशुराम जी और कर्ण वन में धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। अभ्यास के दौरान जब परशुराम जी थक गए तो कर्ण की गोद में सिर रखकर सो गए।
तभी एक बिच्छू ने कर्ण को काटना शुरू कर दिया। गुरु की निद्रा में कोई विध्न ना हो इसलिए कर्ण उस दर्द को सहता रहा। अपने शरीर के किसी भी हिस्से को हिलाया नहीं।
उस समय के पश्चात जब महर्षि परशुराम की नींद खुली तो कर्ण के शरीर से खून की धारा बह रही थी। उन्होंने कर्ण से जब पूरा प्रसंग जाना और पूछा कि तुमने इस कीड़े को हटाया क्यों नहीं। कर्ण कहने लगा कि, मैं गुरु की सेवा में किसी तरह का व्यवधान नहीं डालना चाहता था।"
यह सुनते ही परशुराम जी क्रोधित गए और कहने लगे कि तुमने मुझसे बोलकर शस्त्र विद्या ली है क्योंकि इतनी सहनशक्ति किसी ब्राह्मण में नहीं अपितु क्षत्रिय में ही हो सकती।
उन्होंने कर्ण को अपनी असली पहचान बताने के लिए कहा। करण कहने लगे कि गुरुवर मैं क्षत्रिय नहीं अपितु सुत पुत्र हूं। परशुराम कहने लगे कि," तुमने झूठ बोलकर शिक्षा प्राप्त की है इसलिए मैं तुम को श्राप देता हूं कि इस जिस समय तुम्हें सबसे ज्यादा जरूरत हो तुम तुम मेरे द्वारा सिखाई की शिक्षा भूल जाओगे और वही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा।
कर्ण ने गुरु के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी और कहने लगे कि गुरुदेव मैं तो बस धनुर्विद्या सीखना चाहता था। आप केवल ब्राह्मणों को शिक्षा देते थे इसलिए मैंने आपसे झूठ बोला था।
परशुराम जी कहने लगे कि," मैं अपना शाप को वापस तो नहीं ले सकता लेकिन मेरा आशीर्वाद है कि जब भी महान योद्धाओं की बात की जाएगी तो तुम्हारा नाम जरूर आएगा।"
इसी शाप के परिणामस्व रूप जब महाभारत युद्ध के सत्तारवें दिन कर्ण का पहिया जमीन में धस गया था तभी अर्जुन ने दिव्यास्त्र से कर्ण को मार दिया। कर्ण उसका तोड़ तो जानता था लेकिन श्राप के कारण वह का अनुसंधान करना भूल गया। इस तरह कर्ण को अपने गुरु के साथ बोले गए झूठ का परिणाम भुगतना पड़ा।
भगवान परशुराम जन्मोत्सव विशेष....
महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिक का विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से हुआ था। विवाह के बाद सत्यवती ने अपने ससुर महर्षि भृगु से अपने व अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब महर्षि भृगु ने सत्यवती को दो फल दिए और कहा कि ऋतु स्नान के बाद तुम गूलर के वृक्ष का तथा तुम्हारी माता पीपल के वृक्ष का आलिंगन करने के बाद ये फल खा लेना। किंतु सत्यवती व उनकी मां ने भूलवश इस काम में गलती कर दी। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि तूने गलत वृक्ष का आलिंगन किया है। इसलिए तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा। तब सत्यवती ने महर्षि भृगु से प्रार्थना की कि मेरा पुत्र क्षत्रिय गुणों वाला न हो भले ही मेरा पौत्र (पुत्र का पुत्र) ऐसा हो। महर्षि भृगु ने कहा कि ऐसा ही होगा। कुछ समय बाद जमदग्रि मुनि ने सत्यवती के गर्भ से जन्म लिया। इनका आचरण ऋषियों के समान ही था। इनका विवाह रेणुका से हुआ। मुनि जमदग्रि के चार पुत्र हुए। उनमें से परशुराम चौथे थे। इस प्रकार एक भूल के कारण भगवान परशुराम का स्वभाव क्षत्रियों के समान था।
राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र विष्णु के अवतार परशुराम शिव के परम भक्त थे। इन्हें शिव से विशेष परशु (कुल्हाड़ी) प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था किन्तु शंकर द्वारा प्रदत अमोघ परशु को सदैव धारण किए रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में हैं गिने जाते हैं। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीय (वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीय तिथि) को हुआ था। अतः इस दिन व्रत करने व उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।
उनकी माता जल का कलश भरने के लिए नदी पर गई। वहां गंधर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। उसे देखने में रेणुका इतनी तन्मय हो गई कि जल लाने में विलंब हो गया तथा यज्ञ का समय व्यतीत हो गया। उसकी मानसिक स्थिति समझकर जमदग्नि ने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चारों बेटों को मां की हत्या करने का आदेश दिया। किन्तु परशुराम के अतिरिक्त कोई भी ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। पिता के कहने से परशुराम ने माता का शीश काट डाला। पिता के प्रसन्न होने पर उन्होने परशुराम को वर मांगने को कहा तो उन्होंने चार वरदान मांगे। 1. माता पुनर्जीवित हो जाएं, 2. उन्हें मरने की स्मृति न रहे, 3. भाई चेतना युक्त हो जाएं और 4. मां परमायु हो। जमदग्नि ने उन्हें चारों वरदान दे दिए।
दुर्वासा की भांति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात हैं । एक बार कार्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से परशुराम के पिता जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।
रामावतार में श्री रामचन्द्र द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर ये क्रुद्ध होकर आए थे। इन्हेांने परीक्षा के लिए उनका धनुष श्री रामचन्द्र जी को दिया था। जब श्री रामचन्द्र जी ने धनुष चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गए कि रामचन्द्र विष्णु के अवतार हैं। इसलिए उनकी वन्दना करके वे तपस्या करने चले गए। परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवाई थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र से पीछे हटकर गिरिश्रेष्ठ महेन्द्र पर निवास किया।
रामजी का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गए और राजा दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रिय संहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। रामजी ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किए। परशुराम एक वर्ष तक लज्ज्ति, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तद्न्तर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।
महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिक का विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से हुआ था। विवाह के बाद सत्यवती ने अपने ससुर महर्षि भृगु से अपने व अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब महर्षि भृगु ने सत्यवती को दो फल दिए और कहा कि ऋतु स्नान के बाद तुम गूलर के वृक्ष का तथा तुम्हारी माता पीपल के वृक्ष का आलिंगन करने के बाद ये फल खा लेना। किंतु सत्यवती व उनकी मां ने भूलवश इस काम में गलती कर दी। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि तूने गलत वृक्ष का आलिंगन किया है। इसलिए तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा। तब सत्यवती ने महर्षि भृगु से प्रार्थना की कि मेरा पुत्र क्षत्रिय गुणों वाला न हो भले ही मेरा पौत्र (पुत्र का पुत्र) ऐसा हो। महर्षि भृगु ने कहा कि ऐसा ही होगा। कुछ समय बाद जमदग्रि मुनि ने सत्यवती के गर्भ से जन्म लिया। इनका आचरण ऋषियों के समान ही था। इनका विवाह रेणुका से हुआ। मुनि जमदग्रि के चार पुत्र हुए। उनमें से परशुराम चौथे थे। इस प्रकार एक भूल के कारण भगवान परशुराम का स्वभाव क्षत्रियों के समान था।
राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र विष्णु के अवतार परशुराम शिव के परम भक्त थे। इन्हें शिव से विशेष परशु (कुल्हाड़ी) प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था किन्तु शंकर द्वारा प्रदत अमोघ परशु को सदैव धारण किए रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में हैं गिने जाते हैं। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीय (वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीय तिथि) को हुआ था। अतः इस दिन व्रत करने व उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।
उनकी माता जल का कलश भरने के लिए नदी पर गई। वहां गंधर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। उसे देखने में रेणुका इतनी तन्मय हो गई कि जल लाने में विलंब हो गया तथा यज्ञ का समय व्यतीत हो गया। उसकी मानसिक स्थिति समझकर जमदग्नि ने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चारों बेटों को मां की हत्या करने का आदेश दिया। किन्तु परशुराम के अतिरिक्त कोई भी ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। पिता के कहने से परशुराम ने माता का शीश काट डाला। पिता के प्रसन्न होने पर उन्होने परशुराम को वर मांगने को कहा तो उन्होंने चार वरदान मांगे। 1. माता पुनर्जीवित हो जाएं, 2. उन्हें मरने की स्मृति न रहे, 3. भाई चेतना युक्त हो जाएं और 4. मां परमायु हो। जमदग्नि ने उन्हें चारों वरदान दे दिए।
दुर्वासा की भांति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात हैं । एक बार कार्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से परशुराम के पिता जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।
रामावतार में श्री रामचन्द्र द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर ये क्रुद्ध होकर आए थे। इन्हेांने परीक्षा के लिए उनका धनुष श्री रामचन्द्र जी को दिया था। जब श्री रामचन्द्र जी ने धनुष चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गए कि रामचन्द्र विष्णु के अवतार हैं। इसलिए उनकी वन्दना करके वे तपस्या करने चले गए। परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवाई थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र से पीछे हटकर गिरिश्रेष्ठ महेन्द्र पर निवास किया।
रामजी का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गए और राजा दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रिय संहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। रामजी ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किए। परशुराम एक वर्ष तक लज्ज्ति, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तद्न्तर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।