Bastar Bhushan
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History, Tourism and Culture of Bastar..!
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श्न 19 बिना बेगार के किसने सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार करवाया
उतर- रूद्रदमन प्रथम
प्रश्न 20 किस राजवंशो की मुद्राओं में शिव को मानव रूप में दर्शाया गया है
उतर- कुषाण
बस्तर का डंडारी नृत्य......!बस्तर में आज बहुत से लोकनृत्य विलुप्त होने की कगार पर है। कुछ पर्व त्यौहारों के अवसर पर ऐसे विलुप्त होते नृत्य देखने को मिल जाते है। ऐसा ही एक नृत्य है जो बस्तर की धरती से आज लगभग विलूप्त होने की कगार पर है यह नृत्य है डंडारी नृत्य। दंतेवाड़ा के मारजूम चिकपाल के धुरवा जनजाति के ग्रामीणों ने आज भी इस डंडारी नृत्य को आने वाली पीढ़ी के लिये सहेज कर रखा है। यह नृत्य बहुत हद तक गुजरात के मशहूर डांडिया नृत्य से मेल खाता है। इस नृत्य में बांसूरी की धुन पर नर्तक बांस की खपचियों को टकराकर जो थिरकते है बस दर्शक मंत्रमुग्ध होकर नृत्य को एकटक देखते रह जाते हेै।
डांडिया नृत्य में जहां गोल गोल साबूत छोटी छोटी लकड़ियों से नृत्य किया जाता है। वहीं डंडारी नृत्य में बांस की खपचियों से एक दुसरे से टकराकर ढोलक एवं बांसूरी के साथ जुगलबंदी कर नृत्य किया जाता है। बांस की खपच्चियों को नर्तक स्थानीय धुरवा बोली में बासुरी को तिरली के नाम से जानते हैं। तिरली को साध पाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। यही वजह है कि दल में ढोल वादक कलाकारों की तादाद ज्यादा है जबकि इक्के.दुक्के ही तिरली की स्वर लहरियां सुना पाते हैं।कहीं कही बांस की खपचियों के जगह बारहसिंगा के सींगो का भी उपयोग किया जाता रहा है। नृत्य समूह में एक सीटी वादक रहता है सीटी की आवाज सुनते ही नृत्य करने के तरीको में बदलाव कर मस्ती के साथ नाचना प्रारंभ कर दिया जाता है। यह नृत्य आज लगभग विलूप्त सा हो गया है। दशहरे एवं दंतेवाड़ा के फागुन मेले एवं होली के अवसर पर डंडारी नृत्य करते हुये धुरवा आदिवासी दिखलाई पड़ते है।
दानशीलता के लिये प्रसिद्ध कांकेर की रानी बड़गहिन माँ (कलचुरि).....!

दक्षिण कोसल के कलचुरि डाहल या चेदि के कलचुरियो के वंशज है , जिनकी राजधानी जबलपुर के पास त्रिपुरी थी. इन कलचुरियो ने छत्तीसगढ़ के इतिहास मे एक नये काल की शुरुआत की है.कोकल्ल द्वितीय (900 से 1015 ई) के राज्यकाल मे उसके 18 पुत्रो मे से एक कलिंगराज ने 1000 इस्वी के लगभग दक्षिण कोसल पर आक्रमण यहाँ राज्य स्थापित किया और तुम्माण मे अपनी राजधानी स्थापित की. दक्षिण कोसल मे 1000 इस्वी से सन 1750 इस्वी तक कलचुरियो ने शासन किया.

कालांतर मे छत्तीसगढ़ मे कलचुरियो की दो शाखाओ ने अलग अलग क्षेत्र मे अपना राज स्थापित किया. कलचुरि शासको की एक शाखा ने रतनपुर तो दुसरी शाखा ने रायपुर से अपना शासन चलाया. रायपुर शाखा मे 1741 इस्वी मे अंतिम कलचुरि शासक अमर सिंह शासन कर रहे थे. इनके शासनकाल मे भोसला सेनापति भास्कर पन्त ने रतनपुर शाखा पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया , उसके बाद मराठो ने 1750 इस्वी रायपुर शाखा के कलचुरि शासक अमर सिंह की गद्दी छिन ली.

1753 इस्वी मे अमर सिंह की मृत्यु उपरान्त शिवराज सिंह को सत्ता से बेदखल कर मराठो ने महासमुन्द के पास " बड़गाँव" नामक माफ़ी गाँव देकर रायपुर जिले के प्रत्येक गाँवो से एक रुपया वसुली का अधिकार दिया.यह व्यवस्था 1822 इस्वी तक चली.शिवराज सिंह के पुत्र रघुनाथ सिंह को बड़गाँव के पास गोविन्दा , मुरहेना, नाँदगाँव तथा भलेसर नामक कर मुक्त ग्राम दिये गये, यह व्यवस्था ब्रिटिशकाल तक चलती रही.

रियासतकाल ने कलचुरि शासको के वंशजो के इस बड़गाँव जमीदारी की कन्या शिवनन्दिनी का विवाह कांकेर के राजा कोमलदेव के साथ हुआ जो कि बड़गहिन रानी के नाम से जानी गयी.

कांकेर के राजा कोमल देव (1904 ई - 1925 ई) की तीन रानियाँ थी. पहली रानी लांजीगढ की पदमालय देवी थी जिससे आठ सन्ताने हुई किंतु एक भी सन्तान जीवित नहीं बची तब राजा कोमलदेव ने बड़गाँव के कलचुरि जमींदार खेमसिंह की रुपवती कन्या शिवनन्दिनी से दुसरा विवाह किया.

दीवान दुर्गा प्रसाद ने शिवनन्दिनी को राजिम के मेले मे देखा था. तब बड़गाँव जमींदारी की आर्थिक स्थिति को देखते हुए कन्या पक्ष को सामने बुलाकर कोमलदेव ने शिवनन्दिनी से विवाह किया. बड़गाँव की होने के कारण शिवनन्दिनी देवी बड़गहिन रानी कहलायी.

कोमलदेव ने शिवनन्दिनी देवी के लिए कांकेर मे महल भी बनवाया था. राजा कोमलदेव 1925 मे स्वर्ग सिधार गये तब नि:सन्तान रानी शिवनन्दिनी ने 1982 मे अपने मृत्यु तक दान धर्म एवं धार्मिक कार्यो मे ही अपना जीवन व्यतीत किया.शिवनन्दिनी देवी बहुत धार्मिक एवं दानशील थी. उन्होने कांकेर के बालाजी मन्दिर को देवरी गाँव की जमीन दान मे दी तब यह गाँव बालाजी देवरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ.

उन्होने राधाकृष्ण मन्दिर को भी काफ़ी जमीन दान थी. उनके यहाँ से कोई भी याचक कभी खाली हाथ नहीं लौटता था. रानी अपनी दानशीलता के लिए पुरे छत्तीसगढ़ में प्रसिद्ध थी. निर्धन माता पिता की कन्याओ के विवाह का खर्च भी रानी बड़गहिन माँ ही उठाती थी. कांकेर मे नदी के किनारे किनारे तक सारंगपाल माटवाडा तक कई किलोमीटर लम्बा बाग भी लगवाया जिसे रानी बाग कहा जाता था.

दुध नदी मे जब भी बाढ आती थी तो राजमाता शिवनन्दिनी देवी प्रजा की फ़रियाद पर पैदल ही महल से आती और इस उफ़नती मे सोने की छोटी नाव अर्पित कर नदी का क्रोध शान्त कर देती थी, दस मिनट में नदी की बाढ़ उतरनी प्रारम्भ हो जाती थी. यह नजारा देखने वाले कई चश्मदीद गवाह जीवित है.

रानी ने अन्तिम बार 1976 इस्वी मे आयी बाढ़ के समय यह करिश्मा किया था. फ़रियादी की मदद करते हुए और दान धर्म जैसे पूण्य कर्म करते करते बड़गहिन रानी माँ 1982 मे परलोक सिधार गयी. आज भले ही रानी बड़गहिन हमारे बीच नहीं है किन्तु दीन दुखियो की मदद और उनके धार्मिक दान कार्य की चर्चा कर आज भी उन्हें याद किया जाता है.

आलेख... ओम प्रकाश सोनी

संदर्भ ग्रंथ :-
1. छत्तीसगढ़ दक्षिण कोसल के कलचुरि - डाँ ऋषिराज पाण्डेय
2.कांकेर का राजनीतिक एवं प्रशासनिक इतिहास शोध प्रबंध..दिनेश राठौर
3 रियासत कांकेर का इतिहास.. रामकुमार बेहार
4 बस्तर अरण्यक.. रामकुमार बेहार
5 कांकेर राज्यवंशावली
6 बस्तर एक अध्ययन.. रामकुमार बेहार
7 बस्तर इतिहास एवं संस्कृति.. लाला जगदलपुरी
वैशाली संग्रहालय में एक टॉयलेट पैन यानी शौचालय की सीट रखी हुई है जिसका काल पहली से दूसरी सदी का है.

कैसा है ये टॉयलेट पैन
टेराकोटा का ये टॉयलेट पैन तीन हिस्सों में बंटा/टूटा हुआ मिला है. इसका अधिकतम व्यास 88 सेंटीमीटर और मोटाई 7 सेंटीमीटर है. टॉयलेट पैन में दो छेद हैं.

इसमें से एक छेद यूरिन (व्यास 3 सेंटीमीटर) और दूसरा छेद मानव मल (व्यास 18 सेंटीमीटर) के लिए है.

पांव रखने की जगह या फ़ुटरेस्ट की लंबाई 24 सेंटीमीटर और चौड़ाई 13 सेंटीमीटर है. आज के इंडियन टॉयलेट पैन की तरह ही उसमें भी बैठकर शौच करने की व्यवस्था थी.

अनुमान है कि इस टॉयलेट पैन के नीचे रिंग वेल होगा और उसी के ज़रिए पानी, मल आदि की निकासी होती होगी.

पैन को डिज़ाइन भी इस तरह से किया गया है कि उसमें से पानी बाहर ना निकले और निर्धारित स्थान पर ही उसकी निकासी हो.

रिंग वेल एक तरह का कुआं होता है जिसमें आप एक ही आकार के सांचे को एक के ऊपर एक रखते जाते हैं.

भिक्षुणियों की मोनेस्ट्री का है टॉयलेट पैन

टॉयलेट पैन के नीचे लिखी जानकारी के मुताबिक ये टॉयलेट पैन कोल्हुआ (वैशाली) में उत्खनन के दौरान एक स्वास्तिक आकार की मोनैस्ट्री से मिला है.

इस टॉयलेट पैन के आकार के आधार पर ये अनुमान लगाया जाता है कि मोनैस्ट्री (संघाराम) भिक्षुणियों के लिए होगी.

बौद्ध साहित्य के मुताबिक़, बुद्ध ने अपनी मौसी महाप्रजापति गौतमी को उनके 500 सहयोगियों के साथ पहली बार बौद्ध संघ में वैशाली में प्रवेश दिया था.

बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद से काफ़ी वाद-विवाद किया और फिर अपनी इच्छा के विरुद्ध प्रवेश दिया. बाद में राजनर्तकी आम्रपाली को भी संघ में प्रवेश दिया गया.

'ए रेयर टैराकोटा टॉयलेट पैन फ्रॉम वैशाली' विषय पर रिसर्च पेपर लिखने वाले और वैशाली संग्रहालय के सहायक अधीक्षण पुरातत्वविद जे.के. तिवारी बताते हैं, "अगर आप भिक्षुणियों की मोनैस्ट्री देखें तो उसमें बारह कमरे हैं. इनसे जुड़ा हुआ बरामदा है और दक्षिणी हिस्से में शौचालय है."

"इसी तरह भिक्षु और भिक्षुणियों की मोनैस्ट्री के पास नहाने का जो टैक है उसमें घाट इस तरह से बनाए गए हैं ताकि स्त्री और पुरुष दोनों ही एक-दूसरे के आमने-सामने ना पड़ें. यानी ऐतिहासिक काल में शौचालयों का प्राचीनतम साक्ष्य वैशाली में है और अगर हम अर्बनाइज़ेशन ऑफ बिहार देखें तो इसमें ये कुछ महत्वपूर्ण अध्ययन और चरण है."

विनयपिटक में पेशाबखाना, पाखाना का जिक्र
बौद्ध धर्म का ग्रंथ है त्रिपिटक जो पाली भाषा में लिखा है. इसमें बुद्ध के उपदेश लिखे हैं जो तीन पिटकों में बंटे हुए हैं - विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक.

विनय पिटक में भिक्षु-भिक्षुणियों के आचार विचार संबंधी विषयों का उल्लेख है यानी जीवन जीने के नियम या अनुशासन.

प्रसिद्ध साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन ने विनय पिटक का अनुवाद हिन्दी में किया है.

महाबोधि सभा सारनाथ (बनारस) द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या 447 और 448 में 'पेशाबखाना, पाखाना, वृक्षारोपण, बर्तन, चारपाई आदि सामान' नाम से एक चैप्टर है. दो लोगों के बीच संवाद की भाषा में लिखे गए इस चैप्टर में पेशाब और पाखाना में भिक्षुओं की मुश्किलों का ज़िक्र किया गया है.

ये टॉयलेट पैन कोल्हुआ (वैशाली) में उत्खनन के दौरान एक स्वास्तिक आकार की मोनैस्ट्री से मिला है.
भिक्षुओं को पहले एक जगह पेशाब करने, फिर पेशाबदान में पेशाब करने और उसके बाद पेशाबदान को ईंट, पत्थर या लकड़ी की चहारदीवारी से घेरने की अनुमति दी गई है.
इसी तरह पाखाना के लिए ईंट, पत्थर या लकड़ी से घेरकर पाखाना घर बनाने की अनुमति मिली है. इसके अलावा पाखाना में बांही (यानी सपोर्ट के लिए रेलिंग लगाने की), फ़र्श बनाकर बीच में छेद रख पाखाना होने की, पखाने के पायदान की, साथ में पेशाब की नाली बनाने की अनुमति मिली है.

जेके तिवारी बताते हैं, "शौचालयों को विनय पिटक में 'वच्चकुटी' कहा गया है. 'वच्च' पाली शब्द है जिसका मतलब संडास समझा जा सकता है. इसमें भिक्षु और भिक्षुणियों के लिए अलग शौचालयों के प्रावधान और एक-दूसरे के शौचालयों में जाने के निषेध का ज़िक्र है. इसके अलावा शौचालय जाने से पहले खांसने की आवाज़ करने ताकि अगर कोई शौचालय के अंदर है तो उसका पता लग सके, चीवर (बौद्ध भिक्षुओं का वस्त्र) को शौचालय के बाहर लगे हैंगर में टांगने का ज़िक्र है."

भारत में शौचालय का इतिहास
भारत में शौचालय का इतिहास 3000 साल पुराना है. सिन्धु घाटी सभ्यता में इसके साक्ष्य लोथल में मिलते है. लेकिन इसके बाद चार्कोलिथिक काल मे शौचालय होने के कोई साक्ष्य नहीं मिलते हैं. इसके बाद आरंभिक ऐतिहासिक काल में शौचालयों के साक्ष्य फिर से मिलते हैं.

ऐतिहासिक काल को तीन कालों में बांटा गया है - नार्दन ब्लैक पॉलिश्ड (एनबीपी), शुंग और कुषाण काल.

एनबीपी पीरियड (800 से 200 बीसी) में रिंग वेल के साक्ष्य राजघाट उत्खनन में मिलते हैं. अनुमान है कि इन रिं
ग वेल्स पर शौचालय बने होंगे. इसी पीरियड में शहर और 'महाजनपद' जैसी राजनीतिक इकाई अस्तित्व में आ रही थी.

लेकिन शौचालय कैसे रहे होंगे उसका भौतिक सुबूत हमें कुषाण काल (पहली से दूसरी शती ईस्वी) में मिलता है. वैशाली संग्रहालय में रखा टॉयलेट पैन कुषाण काल का है. बाद में शौचालयों की परंपरा ख़त्म होती गई और आधुनिक भारत में एक ऐसा भी वक़्त आया जब घर में शौचालय समृद्धि या वैभव की पहचान बन गई.
बस्तर मे माप का पैमाना - पायली....!

जैसे भार ग्राम में,तरल पदार्थ लीटर और लंबाई मी. में मापी जाती है.बस्तर में अनाज आदि मापने में आज भी प्राय:सोली-पैली का उपयोग किया जाता.कई लोग इसके लिए "पयली" या 'पायली'' भी उच्चारित करते हैं.
बस्तरिया हाट-बाजारों में महुआ,चावल,दाल,उड़द,
कुलथी,चना,चिवड़ाआदि प्रति पैली/सोली की दर से विक्रय किया जाता है..!

सोली छोटा पैमाना है जो लगभग 8 से.मी. व्यास व 11से.मी. गहरा पात्र है जिसमें लगभग 500 ग्राम अनाज समाता है...!

वहीं पैली लगभग 14 सेमी व्यास व 15 से.मी. गहरा होता है.तथा इसमें 4 सोली अनाज बड़े आराम से आ जाता है...!

अनाज आदि उपज को भी बस्तरवासी प्राय: पैली से मापते हैं.20 पैली का माप यहाँ 1खण्डी कहा जाता है.किसी ने कहा कि मेरे घर 5 खण्डी उड़द हुआ यानी कि मतलब हुआ कि उसके यहाँ 5×20=100 पैली उत्पादन हुआ...!

बस्तर में अन्न आदि के विनिमय के लिए प्राय: यही मापन यंत्र प्रयुक्त होते हैं....!

हल्बी में एक मुहावरा भी है-आपलोय पैली के भरतो यानी दूसरों की न सुनकर,केवल अपनी हाँकना...!

अशोक कुमार नेताम
कांगेर घाटी नेशनल पार्क बस्तर...! कांगेर घाटी नेशनल पार्क छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले मे सुकमा जाने वाले मार्ग मे स्थित घाटी की 34 किलोमीटर लंबी तराई में स्थित है। यह एशिया का प्रथम ‘बायोस्‍फीयर रिजर्व’ है।कांगेर घाटी नेशनल पार्क भारत के सर्वाधिक सुंदर और मनोहारी नेशनल पार्कों में से एक है। यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता और अनोखी समृद्ध जैव विविधता के कारण प्रसिद्ध है। .
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कांगेर घाटी को 1982 में ‘नेशनल पार्क’ का दर्जा दिया गया। यह छत्तीसगढ़ का सबसे छोटा राष्ट्रीय उद्यान है. इसका क्षेत्रफ़ल 200 वर्ग किलोमीटर है.वन्‍य जीवन और पेड़ पौधों के अलावा पार्क के अंदर पर्यटकों के लिए अनेक आकर्षण हैं जैसे -कुटुमसर , कैलाश, हरिगुफ़ा, करपन, दण्डक की गुफाएं, तीरथगढ़, कांगेर, शिव गंगा जलप्रपात, भैसादरहा झील, आदि. .
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कांगेर घाटी नेशनल पार्क मे छत्तीसगढ़ की राजकीय पक्षी पहाड़ी मैना भी पायी जाती है. इसके अलावा बस्तर की विशिष्ट जनजाति धुरवा भी यही निवास करती है. हर साल हजारो सैलानी कांगेर घाटी नेशनल पार्क मे यहां के झरनो और गुफ़ाओ को देखने आते है. छायाचित्र सौजन्य @munna_baghel_clicks .
"जाता" - तक्षशिला से बस्तर तक ......!

बस्तरवासियों की विशेषता है कि ये अपने उपयोगी वस्तुओं से बड़ा लगाव रखते हैं.उन्हें बड़े जतन से संभालकर रखते हैं.इस पाषाण यंत्र को हम जत्ता या जाता कहते हैं.मशीन युग आ गया.धान कुटाई-अनाज पिसाई के यंत्र आ गए.पर हम आज भी अपनी पुरातन परम्पराओं पर कायम हैं....!

आज भी अन्न पीसने और दलहन रूचने(दलने) के लिए जाता का प्रयोग होता है.जाता में लगभग 30 से.मी. के पत्थर के को दो गोल पाट होते हैं.जिन्हें परस्पर अलग किया जा सकता है....!

नीचे वाले पाट के केंद्र में एक मोटा काल लगा होता है.
ऊपर वाले पाट के मध्य में एक छिद्र होता है.इस छिद्र पर नीचे वाले पाट की कील फँसती है....!

ऊपकी पाट के एक हिस्से पर लकड़ी का लगभग 4-5 अंगुल हत्था लगा होता है.जिसकी सहायता से इसे घुमाया जाता है.ऊपरी पाट के मध्य वाले छिद्र में दलहन या आनाज डाला जाता है.....!

और हत्थे से जाता के ऊपरे पाट को घुमाया जाता है.इस प्रकार दाल या आटा मिल जाता है.वैसे दाल बनाने ने पहले उसे "भाँज"(यानी कि कड़ाही आदि में भून) लिया जाता है.बस्तर में प्राय: चावल,मंडिया(मंडिया) पीसने व हिरवाँ(कुलथी),उड़द,मूंग आदि दलने में जाता का प्रयोग किया जाता है.चक्की चलते देखना भी बड़ा आनंददायक होता है....!

जाता के विषय में कबीर साहेब कहते हैं-

चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय.
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय.

वहीं खड़ी बोली के पहले अमीर खुसरों पहेली के माध्यम से पूछते हैं कि-

एक नार के हैं दो बालक, दोनों एकहि रंग।
एक फिरे एक ठाढ़ा रहे, फिर भी दोनों संग।

फिलहाल तो लाक डाउन के चलते हमारे घर में बेचारे #जाता की व्यस्तता बहुत ज्यादा बढ़ गई है....😊😊😊

साभार अशोक कुमार नेताम

चक्‍की - तक्‍खिला या तक्षशिला से?#Chakki जांता ...!

*श्रीकृष्ण "जुगनू"

अक्‍सर यह गलती हो जाती है- 'आटा पिसवाने जा रहा हूं।' कहना चाहिए था- 'गेहूं पिसवाने जा रहा हूं।' बात की चक्‍की की है। उसमें भी हाथ चक्‍की की जिस पर अनाज पीसना बड़ा कठिन था मगर जब चक्‍की नहीं थी तब? तब अनाज को कूटा जाता, भिगाेया जाता और गूंथकर देर तक रख दिया जाता। चक्‍की ने राह आसान की, मगर चक्‍की आई कब ?

जरूर यह कबीर से पुरानी है जो अपने घर में इसे चलती देखकर कह उठे-
चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।
या फिर -
पाहन पूजत हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाये संसार ।।

यह शायद पहले यंत्र समझा गया। जन्‍त इसी का नाम है। इस पर बैठकर गाये जाने वाले लोकगीतों को जंतसार के गीत कहा गया है। हमारे यहां इसको घट्टी कहा जाता है, यह नाम इसकी 'गर्ड-गर्ड' जैसी आवाज की बदौलत हुआ होगा। इसके भी कई रूप है दाल दलने वाली रामुड़ी और अनाज पीसने वाली श्‍यामुड़ी।

यह चक्‍की इतनी लोकप्रिय रही कि इसके निर्माण की विधि लिखने की जरूरत ही न पड़ी क्‍योंकि कहावत रही' 'घर घट्टी घर ओंखली, परघर पीसण जाए।' इसको हमारे घर तक पहुंचाने का श्रेय उन यायावरों को है जिनको कारवेलिया के नाम से जाना गया और जिनका संबंध पश्चिमी भारत से अधिक रहा है। वे ही इसको बनाने, टांकने-टांचने, सुधारने का भी काम करते रहे थे।

मुगलकाल में गांवों में बड़ी बड़ी चक्कियां गाड़ी में लेकर लोग अनाज पीसने का कार्य करते थे, ऐसा साक्ष्‍य मिलता है।विश्‍वास किया जाता है कि यह करीब 2000 साल पुरानी है। भारत में हाथ से घुमाकर चलाई जाने वाली चक्‍की के प्रमाण पहली सदी के आसपास के 'तक्षशिला' या 'तक्खिला' से मिले हैं।

यह मत सबसे पहले जाॅन मार्शल ने तक्षशिला पर अपनी किताब में दिया। यही नहीं, वहां से पत्‍थर का चूर्ण करने वाली चक्‍की के प्रमाण भी मिले हैं। तो, क्‍या यह मान लिया जाए कि चक्‍की तक्षशिला से चली, मगर उसमें तक्षशिला जैसा है क्‍या ?

इसमें हत्‍था सबसे रोचक चीज है जिसके साथ पूरा घूर्णन नियम जुड़ा है। रचनात्‍मक रूप में यह थाला अथवा आलवाल पर 'नार पाट' लिए होती है जिसकी नाभि के आरपार 'खीला' या कील होती है।

नार पाट पर रखा जाने वाला 'नर पाट' होता। उसके बीचो बीच तीन या चार अंगुल का आरपार छेद जिसे 'गला' कहा जाता है, इसमें डाले गए अनाज के दाने गाला कहलाते हैं।

इस गले के बीच में लगती है चाखड़ी। इसके अधोभाग में एकांगुल के बराबर छेद होता। इसी में खीले का मुंड भाग आ जाता। यह ऊपरी पाट को संतुलित करता। पूरे वजन को नार पाट पर रखना है या कुछ ऊपर। महीन या मोटा आटा इसी विधि से पीसा जाता।

इसको ऊपर-नीचे के करने के लिए थाले के नीचे 'तक्‍ख' या तोका होता। यह एक पटरी होती जो एक छोर से दूसरे छोर तक मोटी होती जाती। आगे सिरकाने पर खीला ऊपर उठता तो पाट को ऊंचा कर देता...।

संतुलन और हत्‍थे के साथ गति का यही सिद्धांत इस चक्‍की यंत्र के निर्माण की प्रेरणा रहा है। मगर ये क्‍या कम अचरज है कि इसमें तक्‍ख और खीला खास अंग है और दोनों को मिलाकर ही चक्‍की पूरी
होती है और दोनों शब्‍दों को मिलाएं तो 'तक्‍खीला' और संस्‍कृत में 'तक्षशिला' हो जाता है। ताज्‍जुब हुआ न।

मगर हां, आप यह जरूर बताएं कि आपके पास इस यंत्र की क्‍या विशेष जानकारी है, यदि आप भी मेरी तरह चक्‍की चलाती मां की गोद में सोये होंगे तो जरूर याद आएगा यह यंत्र... ।
जय-जय।
आलेख साभार - श्रीकृष्ण जुगनू सर..!