Bastar Bhushan
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History, Tourism and Culture of Bastar..!
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महमूद गजनवी --भारत के विरूद्ध 17 लूट अभियान
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1.सीमान्त दुर्गों पर आक्रमण-1000ई --जयपाल
2.पंजाब पर आक्रमण 1001ई -पेशावर के निकट युद्ध -जयपाल
3.भेरा पर आक्रमण -1003 ई-
4.मुल्तान पर आक्रमण-1004-05ई करामाती फतेह दाउद
5.भटिण्डा पर आक्रमण-1005ई.शासक वाजीराय
6.मुल्तान के सेवकपाल/नौशाशाह के विरूद्ध आक्रमण 1008ई.
7. जयपाल के उत्तराधिकारी आनन्दपाल के विरुद्ध आक्रमण ,नगरकोट की लूट-1008ई
8.मुल्तान पर आक्रमण1010ई -फतह दाउद मुल्तान का विलय।

9.आनन्दपाल के उत्तराधिकारी त्रिलोचनपाल के विरुद्ध आक्रमण -राजधानी नन्दन पर अधिकार-1013-14ई
10.थानेश्वर पर आक्रमण-1014ई.
11.कश्मीर पर आक्रमण-1015ई/1021 में पुनः -दोनों बार असफल।
12.बरन,मथुरा शासक कुलचन्दऔर कन्नौज ( प्रतिहार -राज्यपाल ) पर आक्रमण- 1018-19ई.
13.कालिंजर पर आक्रमण -1019 ई. -चन्देल विद्याधर
14.पंजाब पर आक्रमण-1020ई. - सम्पूर्ण पंजाब में प्रशासनिक व्यवस्था स्थापन।
15.ग्वालियर व कालिंजर पर आक्रमण -1022ई.
16.सोमनाथ पर आक्रमण- 1025-26 ई. चालुक्य भीम प्रथम।

17.जाटों व खोखरों के विरुद्ध आक्रमण -1027 ई.
वैदिक धर्म एवम् पर्यावरण
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ऋग्वेद कालीन धर्म का सम्बन्ध पर्यावरण से अवश्य है ।
इस ( काल ) के देवता पशुत्त्वारोपी न होकर अवधारणा में महामानव हैं । ये देवता तत्त्वतः प्रकृति की महान शक्तियों के नियंत्रण में रहते हैं ।
दिन और रात का चक्र विस्मित करता है और इसको बनाए रखने के लिए विशेष देवता हैं : सूर्य ( सूरज ) , उषस् ( उषा काल की देवी ) और आश्विन ( जो रथों पर सवार हैं और सूर्य की किरणों को फैलाकर प्रात : की सूचना देते हैं ) ।
वर्षा , बाढ़ और तड़ित ( आकाशीय विद्युत ) का देवता इन्द्र है - वही इन्द्र जो युद्ध का भी देवता है , अतः पुरोहितों के संरक्षकों के शत्रुओं को परास्त करने वाला है ।
इन्द्र के बाद ऋग्वैदिक ऋषि - जगत में अग्नि का विशेष स्थान है । अग्नि की , जो आग का देवता है , ऋचाओं में सर्वाधिक प्रशस्ति की गई है । वह प्रकाश का धूम्र - ध्वज प्रसारक है- जिसके अधिकार क्षेत्र ( प्रभुत्व ) में यज्ञ की अग्नि से लेकर प्रत्येक गृहस्थ के उपयोग में आने वाली आग तक शामिल हैं ।

अन्य देवताओं में वरुण और मित्र हैं जो सूर्य और आकाश पर नियंत्रण रखते हैं ; और देवी सरस्वती हैं जो नदियों को नियंत्रित करती हैं ।

प्राकृतिक तत्त्वों के इन सीधे प्रभावों का मन में उठने वाली जिज्ञासाओं ( सवालों ) को उठाना पहले से ही शुरू कर दिया था , जैसा कि ऋग्वेद की प्रसिद्ध सृजन ऋचा ( दशम मण्डल) से स्पष्ट है कि कालान्तर में यह परम्परा उपनिषदों की दार्शनिक अवधारणा / चिन्तन में व्यक्त हुई ।
सम्भवत: उसका एक नैतिक पक्ष भी था , जो याज्ञवल्क्य द्वारा पत्नी मैत्रेयी को , हर एक से और हर वस्तु से प्यार करने की सलाह के रूप में स्वयं स्पष्ट होता है ( बृहदारण्यक उपनिषद् )
पालतू पशुओं के प्रति जुड़े इस तरह के रवैये से लगता है कि यह एक नया दृष्टिकोण ( बोध ) था । मवेशियों की क़ीमत ऊँची हो गई , खासतौर से गाभिन
और दुधारू गायों की , और गाय को पवित्रता के आभामंडल से आवृत्त कर दिया गया । अथर्व - वेद में गोवध की निन्दा की गई है..
एक बहु - उद्धृत गद्यांश में शतपथ ब्राह्मण -- घोषणा करता है कि
' पृथ्वी पर गाय और वृषभ नि : सन्देह प्रत्येक वस्तु का भरण - पोषण करते हैं , अतः ' गाय और वृषभ ' के मांस - भक्षण का निषेध करता है ।
छान्दोग्य उपनिषद में अंहिसा को (जीवों को क्षति पहुँचाने से दूर रहना) धर्मनिष्ठ व्यक्तियों के आचरण के रुप में संस्तुत किया गया है ।
ऋग्वेद में अरण्यानि( जंगल की देवी ) की स्तुति
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अरण्यान्यरण्या न्यसौ या प्रेव नश्यसि ।
कथा ग्रामं न पृच्छसि न त्वा भीरिव विन्दती उँ ॥1
वृषारवाय वदते यदुपावति चिच्चिकः ।
आघाटिभिरिव धावयन्नरण्यार्निमहीयते ॥ 2
उत गाव इवाद न्त्युत वेश्मेव दृश्यते ।
उतो अरण्यानिः सायं शकटीरिव सर्जति ॥ 3
गामङ्गैष आ हयति दार्वङ्गैषो अपावधीत् ।
वसन्नरण्यान्यां साय मक्रुक्षदिति मन्यते ॥ 4
न वा अरण्यार्निह न्त्यन्यश्वेन्नाभिगच्छति ।
स्वादोः फलस्य जग्ध्वाय यथाकामं नि पद्यते ॥5
आञ्जनगान्धि सुरभि बह्वन्नामकृषीवलाम् ।
प्राहं मृगाणं मातरं मरण्यानिमशंसिषम् ॥ 6.
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हे ( अरण्यानि ) अरण्य देवते ! ( अरण्यानि या असौ प्र इव नश्यसि ) अरण्य में वन में जो तू देखते - देखते ही अन्तर्धान हो जाती है , वह तू ( कथा ग्रामं नपृच्छसि ) नगर - ग्राम की कुछ विचारणा कैसे नहीं करती ? निर्जन अरण्य में ही क्यों जाती हो ? ( त्वा भी : इव न विन्दति ) तुझे डर भी नहीं लगता ? ॥

( वृषारवाय वदते ) ओर से बड़ी आवाज से शब्द करनेवाले प्राणी के समीप ( चित् - चिकः यत् उपावति ) जब ची - ची शब्द करनेवाले प्राणी प्राप्त होता है , उस समय मानो ( आघाटिभिः इव धावयन् ) वीणा के स्वरों के समान स्वरोच्चारण करके ( अरण्यानिः महीयते ) अरण्य देवता का यशोगान करता है ॥

( उत गावः इव अदन्ति ) और गौओं के समान अन्य प्राणि भी इस अरण्य में चरते हैं । ( उत वेश्म इव दृश्यते ) और लता - गुल्म आदि गृह के समान दिखाई देते हैं । ( उत अरण्यानिः सायं शकटी : सर्जति ) और सायंकाल के समय वन से विपुल गाड़ियाँ चारा , लकड़ी आदि लेकर निकलती हैं - मानो अरण्य देवता उन्हें अपने घर भेज रहा है ।।

हे ( अङ्ग ) अरण्य देवता ! ( एषः गां आह्वयति ) यह एक पुरुष गाय को बुला रहा है , और ( एषः दारु अपावधीत् ) दूसरा काष्ठ काट रहा है । ( सायं अरण्यान्यां वसन् अक्रुक्षत् इति मन्यते ) रात्रि में अरण्य में रहनेवाला मनुष्य नानाविध शब्द सुनकर कोई भयभीत होकर पुकारता है , ऐसे मानता है ॥

( अरण्यानिः न वै हन्ति ) अरण्यानी किसी की हिंसा नहीं करती । और ( अन्यः इत् च न अभि गच्छति ) दूसरा भी कोई उस पर आक्रमण नहीं करता । ( स्वादोः फलस्य जग्ध्वाय यथाकामं नि पद्यते ) वह मधुर फलों का आहार करके अपनी इच्छा के अनुसार सुख से रहता है ॥

( आञ्जनगन्धि सुरभिं बहु - अन्नां अकृषीवलां ) कस्तूरी आदि उत्तम सुवास से युक्त , सुगंधी , विप
ुल फलमूलादि भक्ष्य अन्न से पूर्ण , कृषि वलों से रहित , ( मृगाणां मातरं अरण्यानि अहं प्र अशं सिषम् ) और मृगों की माता , ऐसी अरण्यानि की मैं स्तुति करता हूँ ॥
पर्यावरण संरक्षण हेतु बस्तर का कोई विद्रोह......!

बस्तर में आदिवासियों ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध 1859 में साल के वृक्षों को बचाने के लिये व्रिदोह किया था जिसे कोई विद्रोह के नाम से जाना जाता है।

बस्तर में आदिवासी जनजीवन पूर्णतः वनो एवं उससे मिलने वाले वनोपज पर ही आधारित है। वन और आदिवासियों का अटूट गठबंधन हजारो साल पुराना है। वनों के लिये आदिवासी जान दे भी सकते है और जान ले भी सकते है। रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव का शासन था। उस समय अंग्रेजी हुकुमत बस्तर की वन संपदा पर गिद्ध की नजरे गड़ाये हुई थी।बस्तर को साल वनों का द्वीप कहा जाता है। साल वनों को काटने के लिये ब्रिटिश शासन ने हैदराबाद की निजाम की कंपनी को ठेका दे दिया।

साल वनों की कटाई के विरोध में वर्तमान बीजापुर जिले के फोतकेल के जमींदार नागुल दोर्ला ने आसपास के भोपालपटनम भीजी आदि के जमींदारों को एकत्रित किया एवं ब्रिटिश शासन के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। विद्रोही एक वृक्ष के पीछे एक सर का नारा देकर वृक्षों की कटाई करने वाले ठेकेदारों का सर कलम करने लग गये। ग्लसफर्ड स्वयं सेना लेकर इन विद्रोहियों के दमन के लिये बस्तर पहुंचा। परन्तु यहां स्थिति को समझकर एवं विद्रोहियों को भारी पड़ता देख ब्रिटिश हुकुमत ने हैदराबाद के कंपनी के सारे ठेके निरस्त कर दिये।

यह विद्रोह बस्तर का पहला पर्यावरण आंदोलन था। बीजापुर जिले में नागुल दोर्ला ने इसे नेतृत्व दिया। दोरला आदिवासियों ने इस विद्रोह में बढ चढ़ कर हिस्सा लिया। दोरलाओं का अन्य नाम कोई भी है जिसके कारण 1859 का यह विद्रोह कोई विद्रोह के नाम से जाना जाता है।

एक बात.. जानवर सिर्फ़ प्रेम के भूखे है.. इन्हें मारिये मत..!
आषाढ का किसान....!

आषाढ का मास गर्मी के अन्त और बरसात के प्रारम्भ का समय होता है.. इसी वक्त किसान भाई अपने खेती सम्बन्धी कार्य जुट जाते हैं. किसान के इसी मेहनत के साथ अपनी बचपन की यादें बस्तर की हल्बी भाषा मे अशेन्द्र पाण्डे ने प्रस्तुत की है.

गिरली पानी ईली बतर ....
नांगर फार के करा जतन...!

कुकड़ा बासी सोऊंन उठुन...
टंगया जोता दांवा के कांधे धरुन...!

धान बीज के डालीने धरुन...
खतु खुटो के गाडा़ ने जोडुन....!

पिला पिचका के बागा ने धरुन...
हाथ ने छाता छतोड़ी धरुन...!

बोड़ा छाती के खमन ने खोजुन...
छिंद किड़ा के अोटी ने धरुन...!

तगाडी़ कोड़की खांद ने बोहुन...
बेडा़ पार चो फुटान के बुजुन.....!

सुन्दर सपाय मया ने कमांव रे भाई.......!

🌴झाड़ चुके बंदर , किसान चुके बत्तर🌧️⛈️,
"""आघे चो सियान मन बल्लासोत"""(पूर्वजों का कथन)
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*हिन्दी अनुवाद*

मेरा ‌लेख किसान को समर्पित है....
आज के बारिश को देख, लिखने का मन किया अौर इसी से बचपन याद आ गया....!
शायद पढ़ने वालों को भी याद आ जाये.....!

## बारिश हुई आ गया बत्तर(फसल लगाने का मौसम), सभी किशान हल का जतन मरम्मत करें.....!

## कुकड़ा बासी(मुर्गे कि सुबह की पहली आवाज) के साथ उठकर ,
टंगया(कुल्हाड़ी) जोता दांवा(बैलों को हल से बांधने की रस्सी) को पकड़कर...!

## धान बीज को डाली (बांस का जार) में रखकर,
खाद खत को गाडा़(बैलगाड़ी) में रखकर...!

## बोड़ा - छाती(बस्तर कि जंगली मौसमी सब्जी) को जंगल से खोजकर,
छिंद कीड़ा(छिंद पेड़ के अंदर पाये जाने वाला किड़ा जिसे सब्जी बनाकर खाया जाता है) को आंचल मे पकड़कर (जब किसान कि पत्नी खेतों मे समय निकालकर छिंद कीड़ा पकड़ती है....!

## तगाड़ी कोड़की (फावडा़) को खांद(कंधा) में रखकर खेत के मेड़ को बंद करके,
""सभी किशान प्यार से खेती करें""...!

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नोट:- पूर्वजों का कथन है कि....
(झाड़ चुके बंदर)अगर बंदर छलांग लगाते समय डाल से चुक जाये तो जो स्थिति निर्मित होगी वैसे ही (किशान चुके बस्तर) किशान कि स्थिति समय पर फसल ना लगाने से होती है....
************""
धन्यवाद
************
अशेन्द्र के कमलों से.....

इस सम्बन्ध मे मेरा अभिमत है कि आषाढ से चुका किसान, डाल से चुका बन्दर और स्कुल से भागा विद्यार्थी एक दिन जरुर पछताता है...!

इतना शानदार छायाचित्र के लिए हर्ष पटेल जी को धन्यवाद
This Ganesha mould is from Rakhigarhi site in Haryana, 2nd c. CE, Kushana era. Shows how the site was continuously occupied from the Harappan times.
This mould is also among the oldest available Ganesha images, with the earlier existing ones from 1st c. CE (Terracotta murtis) coming from Pal (Maharashtra), Ter (Maharashtra), and Chandraketugarh (WB) sites.
#बड़लीअभिलेख
भारत का तिथि अंकित प्राचीनतम अभिलेख
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भारत का दूसरा सबसे प्राचीन /राजस्थान का सबसे प्राचीन अभिलेख
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अजमेर जिले के बड़ली गांव से प्राप्त इस शिलालेख में ' वीर सम्वत '-- 84 का उल्लेख है ।

महावीर सम्वत् अथवा वीरनिर्वाण सम्बत्--

वीरनिर्वाण संवत् या महावीर संवत् का प्रयोग विशिष्टतः जैन हस्तलिखित प्रतियों में हुआ है , अभिलेखों में इसका प्रयोग विरल है । श्वेताम्बर लेखक मेरुतुंग सूरि अपने ग्रन्थ ' विचार श्रेणि ' में लिखते हैं कि महावीर सं ० और विक्रम संवत् में 470 वर्ष का अन्तर है ।
इस कथन के अनुसार महावीर संवत् का प्रारम्भ 57+ 470 ई ० पू ० यानि 527 ई.पू. में हुआ ..जो की महावीर स्वामी की निर्वाण तिथि है...और महावीर स्वामी के निर्वाण से वीर सम्वत प्रचलित होने के प्रमाण तो अनेकानेक उपलब्ध है।

नेमिचन्द्राचार्य का ‘ महावीर चरियम् ' एक अन्य जैन ग्रंथ है जो इस कथन की पुष्टि करता है । इसका कथन है कि “ मेरे ( महावीर ) निर्वाण के 605 वर्ष और पांच महीने बाद शक राजा का जन्म होगा । गणना करने पर महावीर संवत् के प्रारम्भ की वही तिथि --527 ( = 605-78) ई ० पू ० प्राप्त होती है । दिगम्बर लेखक नेमिचन्द्र अपनी कृति ' त्रिलोकसार ' में उपरिनिर्दिष्ट मत का समर्थन करते हैं ।
इस प्रकार बड़ली अभिलेख की तिथि हुई --443 ई.पू.( 527-84)
यानि यह भारत का प्राचीनत्तम तिथि अंकित अभिलेख है ।
भारत के प्राक् मौर्य कालीन अभिलेखों में मुख्यत : दो ही ज्ञात है --एक पिपरहवा अभिलेख और दूसरा बड़ली अभिलेख।
इनमें पिपरहवा तिथिरहित है।
सौहगोरा और महास्थान इनके बाद के यानि चन्द्रगुप्त मौर्य कालीन है और तिथि रहित है।

बड़ली अभिलेख ब्राह्मी लिपि व प्राकृत भाषा में है तथा इसकी 2 पंक्तियां ही पठनीय है --
'विराय भगवत'
' चतुरासिति वस'
इस प्रकार यह अभिलेख राजस्थान में वैदिक परम्परा के निर्वाह की पुष्टि करता है।
चौरासी स्तम्भ शाला वस्तुत: बड़े बड़े श्रौत यज्ञों की द्योतक है।

यह तथ्य इतिहास की पुस्तकों से बिल्कुल ओझल सा ही है..और इस पर गम्भीर शोध की आवश्यकता है।
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बस्तर का सर्वोत्तम पेय - मंडिया पेज....!

एडविना डिसूजा जी बस्तर आये थे, तो मेरी उनसे मुलाकात घोटपाल मेले मे हुई थी. मैने उनसे पूछा कि आपको बस्तर मे सबसे अच्छा क्या लगा? तो उन्होंने कहा - मंडिया पेज... यह सुनकर एक बारगी मै भी चौंका, किन्तु यह सच है कि यदि आप गर्मी के मौसम मे बस्तर आते हैं तो आपको यहाँ निश्चित तौर पर मंडिया पेज ही सबसे अच्छा लगेगा. लू से खुद को बचाने और शरीर को ठण्डा और तरोताजा रखने हेतु मंडिया पेज ही सर्वोत्तम है.

विभिन्न प्रकार के ठंडे पेय बाजारों में उपलब्ध है किन्तु इस मंडिया पेज का कोई तोड़ नहीं है। मंडिया पेज बस्तर की आदिवासी संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। स्थानीय ग्रामीण गर्मी के दिनों में मंडिया पेज का सर्वाधिक इस्तेमाल करते है।

मंडिया को हिन्दी में रागी कहा जाता है। मंडिया के आटे को रात भर एक कटोरी में भीगा कर रखा जाता है। सुबह तक यह घोल खटटा हो जाता है। सुबह पानी में चावल डालकर पकाते है। चावल पकने पर मंडिया के घोल को उसमें डालकर अच्छे से मिलाते है। स्थानीय हलबी बोली में इसे पेज कहते हैं।

पकने पर उतारकर ठंडा करके 24 घंटे तक इसका सेवन करते हैं। इससे शरीर को ठंडकता मिलती है और भूख भी शांत होती है।ग्रीष्मकाल में शरीर के लिये जल की अधिक आवश्यकता को ग्रामीण इस पेज से पुरी करते है। मंडिया पेज गर्मी के मौसम में प्यास बुझाने के साथ-साथ सेहत के लिये स्वास्थ्यवर्धक, शक्ति वर्धक पेय का विकल्प है। यह शरीर के तापमान को नियंत्रित करने के साथ-साथ पाचन क्रिया को भी ठीक करता है।

ग्रामीण महिलायें तेज धूप में बच्चों को धूप से बचाव हेतु उनके सिर पर मंडिया आटा का लेप लगाती हैं। प्रायः यह पेज हांडी में ही रखा जाता है। ग्रामीण कार्य करने हेतु जब घरो से बाहर निकलते है तो तुम्बा में मंडिया पेज साथ में लेकर निकलते है।

कभी आप भी यदि बस्तर मे या कहीं भी गर्मियो मे बाहर घुमे तो मंडिया पेज ही पीये... आप स्वस्थ तो जग स्वस्थ.
आप भी अनुभव साझा किजिये मंडिया पेज के साथ.

छायाचित्र सौजन्य एडविना डिसूजा जी Wannabemaven

आप हमे instagram मे @bastar_bhushan पर follow कर सकते हैं..!
मुहम्मद बिन तुगलक -सांकेतिक मुद्रा --
" तुगलकाबाद के सामने सिक्कों का पहाड़ जैसा ढेर लग गया।"

" प्रत्येक हिन्दू का घर टकसाल बन गया ।"

बरनी के इन कथनों का सही तात्पर्य क्या है ?
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सामान्यतः यह माना जाता है कि यह योजना इसलिए असफल हुई ..क्योंकि सुल्तान ने ऐसी कोई विशेषता अपनी शाही मुद्रा में नहीं रखी थी जिससे की बाजार में जाली सिक्के न बन सके।
इसलिए बाजार में जाली सिक्कों की भरमार हो गई ।।
जबकि ऐसा नहीं था--
शाही टकसाल के पास सांकेतिक सिक्का बनाने के लिए --एक विशेष प्रकार के कांसे की मिश्रित धातु थी और उसे कसौटी पर सरलता से पहचाना जा सकता था ...यानि कोई नकली मुद्रा टकसाल में लाए -- तो असली है या नकली ..इसकी पहचान सम्भव थी।
लेकिन यह भेद (..जब प्रारम्भिक दौर था इस सांकेतिक मुद्रा प्रचलन का..तब) सुनार ..जो कि हिन्दू थे...उनको पता नहीं था।
उन्होंने भारी संख्या में खोटे सिक्के बना डाले ...और उन्हें सीधा बाजार के क्रय विक्रय में डाला गया।।
सुल्तान की यह योजना इसलिए असफल हुई --कि प्रथम तो ...उसने इस प्रकार असली नकली के भेद की कोई सार्वजनिक मुनादी नहीं करवाई..दूसरा -- उसको जनता से इस प्रकार की उम्मीद थी कि जब पहले वे सोने चांदी के सिक्के लेते थे तो वे कसौटी पर धातु की शुद्धता भी परखते थे...उसी प्रकार का व्यवहार वे इस प्रतीक मुद्रा के साथ स्वत: ही करेंगें।।
लेकिन जनता ने उसे निराश किया ( जैसा की हमेशा ही सामान्यतः करती आई है ) और जाली सिक्के बाजार में असली प्रतीक के साथ बड़े स्तर पर घुल-मिल गये।
हालांकि ऐसा करने पर दण्ड की व्यवस्था थी ...पर अब दण्ड दे किस किस को।।
बरनी --का पहला कथन --कि प्रत्येक हिन्दू का घर टकसाल बन गया ...इसको अब अपन समझ सकते हैं कि --कैसे बना ।
ग्रेसम लॉ--के अनुसार -- बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है । यही हुआ--शीघ्र ही जाली प्रतीक मुद्रा की इतनी अधिक भरमार हो गई की ..प्रतीक मुद्रा का तेजी से प्रतीक मुद्रा का अवमूल्यन हुआ और वे पत्थरों और ठीकरों के समान मूल्यहीन हो गये।

अब जब प्रतीक मुद्रा का निर्णय वापस लिया गया ...तब असली नकली सारे सिक्के टकसाल लाये जाने लगे ..बदले में सोने चांदी के सिक्के लेने के लिए...
लेकिन वहां तो खोटे की पहचान होनी ही थी..
अतः बरनी का जो दूसरा कथन हैं कि तुगलकाबाद के सामने पहाड़ सा ढेर लग गया सिक्कों का...वह वस्तुत: खोटे सिक्कों का ढेर था न की असली प्रतीक मुद्रा का...ऐसे ढेर लगाया जाता अगर असली का तो..जनता ( जो किसी भी हद तक जा सकती है ) वहीं से ले ले कर वापस टकसाल में जमा करवाने नहीं पहुंच जाती ।।
इसलिए निष्कर्ष यही है कि सुल्तान की योजना में चाहे जो खोट रही हो ..सुल्तान की नियत में खोट नहीं थी।
.योजना की विफलता की असली जिम्मेदारी तो जनता की ही थी।

Pappusingh prajapat