आर्यभूमि : The Land of Aryans
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अब पाकिस्तान और तुर्की भी मैदान मे है और भारत पर आरोप लगा रहे है की ईरान मे जो हमास का चीफ मारा गया है उसमे भारत ने इजरायल की मदद की है।

अब इन्हे कौन बताये की हम तो खुद चाहते है की भारत ने मदद की हो, यदि ये साबित हो जाये तो पूरी दिल्ली मे मोदीजी और जयशंकर साहब के पोस्टर लग जाएंगे।

हालांकि इस आरोप का एक कारण ये है की आतंकवादी जिस तरह मारा गया उसमे नयी जांच सामने आयी है। दो महीने पहले से गेस्ट हॉउस मे बम लगा हुआ था, जबकि दो महीने पहले तो ईरान के पूर्व राष्ट्रपति जिंदा थे।

मतलब इजरायल को इतना सब पता था की ईरान का पूर्व राष्ट्रपति विमान दुर्घटना मे मरेगा फिर नया राष्ट्रपति बनेगा, वो शपथ मे हमास प्रमुख को बुलायेगा और हमास प्रमुख ईरानी सेना के 30 गेस्ट हॉउस मे से इसी एक मे रुकेगा और फिर रात को दो बजे हम धमाका करेंगे।

ये बात कही से भी तर्कसंगत नहीं लग रही है। अब तो विश्वास मजबूत हो रहा है की इसे इजरायल ने नहीं मारा है। आप सोचिये इस समय हमास और इजरायल की वजह से नुकसान किसे हुआ है? भारत से इटली तक IMEC कोरिडोर बनना है और उसमे बाधा हमास था।

इस कोरिडोर मे 7 सदस्य है जिनसे होकर ये गुजरेगा। भारत, UAE, सऊदी अरब, जॉर्डन, इजरायल, ग्रीस और इटली। हमास भले ही इजरायल से लड़ रहा हो लेकिन काम सबके अटका दिए है।

नए राष्ट्रपति के शपथ समारोह का न्योता मोदी जी को आया था, लेकिन PMO और विदेश मंत्रालय वालो की दाद देनी होंगी की ना तो मोदीजी गए ना ही जयशंकर साहब गए। बल्कि उनकी जगह नितिन गडकरी गए, ईरान को भी ये नहीं लगा की किसी छोटे प्रतिनिधि को भेजा और विदेशी मीडिया ने तवज्जो नहीं दी।

सोचकर देखिये यदि मोदीजी या जयशंकर साहब जाते और उनकी तेहरान मे उपस्थिति के दौरान ये आतंकी मारा जाता तो कितने सवालों को झेलना पड़ता। इजरायल की जबरदस्ती निंदा करनी पड़ती, वही गडकरी जी कब दिल्ली लौट आये किसी को पता भी नहीं लगा।

खैर जो भी हो यदि भारत सरकार इजरायल का साथ पर्दे के पीछे से भी दे रही हो तो हमें गर्व है मोदी 3.0 पर। बाकि राजनाथ सिंह को 25 लोगो ने कोई चिट्ठी भेजी है की इजरायल को सैन्य मदद मत भेजो, लेकिन लग वही रहा है की राजनाथ सिंह ने अब तक वो चिट्ठी फाड़ भी दी दोगी।

✍️परख सक्सेना✍️
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बांग्लादेशी हिन्दुओ के लिये सच पूछो तो इमोशनल होने का कोई मतलब नहीं है।

मरते है तो मरने दो, 2024 के चुनाव के बाद उत्तरप्रदेश खासकर अयोध्या से जो सबक मैंने लिया वो यही है की आप हिंदुत्व के आधार पर जीवन जी सकते है लेकिन हमें हिंदूवादी से ऊपर उठकर दक्षिणपंथी बनना होगा।

मान लीजिये आपने कट्टर हिंदुत्व अपनाया 2050 तक सरकार के सामने अखंड भारत एक लक्ष्य होगा। तब बांग्लादेश से भागकर आये ये ही हिन्दुओ के बच्चे आपको समझाइश दे रहे होंगे।

पाकिस्तान से भागकर आये कपूर परिवार के वंशज आज भारत मे सेक्युलरिज्म के ब्रांड अम्बेसडर है। ये बांग्लादेशी हिन्दू भी आज भीख मांगेंगे लेकिन कल जब हम हिंदुत्व के लिये इनका समर्थन मांगेंगे तो ये हमें ही सेक्युलरिज्म का पाठ पढ़ाएंगे। अयोध्या वालो की तरह ये भी गुंडों और बलात्कारियो के साथ खडे होंगे।

यदि राम मंदिर बनाकर भी हिन्दू धोखा दे सकता है, बंगाल मे इतना कुछ झेलकर ममता की गोद मे बैठ सकता है तो निश्चित ही वो अहसान फराहमोशी भी करेगा। तथाकथित हिन्दूवादी ये बाते जितना जल्दी समझ ले उतना अच्छा है।

हिंदुत्व के पीछे भागोगे तो आज अयोध्या के हिन्दुओ ने धर्मद्रोह किया है कल बाकि भी करेंगे। हमने हिन्दुओ को बचाने की एजेंसी नहीं ली हुई है, हमें भारत बचाना है।

जो घुसपैठिये भारत मे है वे बाहर जाने चाहिए, जो गजवा ए हिन्द चाहते है उनका विनाश होना चाहिए, लेकिन भारत अब और अधिक शरण नहीं देगा। ये हमारा देश है कोई धर्मशाला नहीं जहाँ आप धर्म का चोला लपेट कर आओ और गंध मचाओ।

थोड़ा नस्लीय है मगर सच है बंगाली हिन्दू के अंदर कम्युनिज्म नाम का वायरस होता है जो हमें चाहिए ही नहीं। इसलिए बांग्लादेश मे रहो और वही मरो ताकि भारत मे यदि किसी के मन मे दक्षिणपंथी सरकार को सबक सीखाने वाली कोई स्कीम हो तो वो भी दहल उठे।

आज की पोस्ट मे नस्लीय टिप्पणी के लिये क्षमा चाहूंगा लेकिन 2024 चुनाव के बाद मेरा झुकाव हिंदुत्व से ज्यादा भारतीय दक्षिणपंथ के लिये है और ये अटल है। मैं भारतीय दक्षिणपंथ के लिये राजनीति वाले हिंदुत्व की कुर्बानी देने को तैयार हु।

✍️परख सक्सेना✍️
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सलमान खुर्शीद ने सही कहा जो बांग्लादेश मे हुआ वो भारत मे भी हो सकता है।

लेकिन भारत मे इसका उल्टा होगा, टारगेट नरेन्द्र मोदी नहीं राहुल गाँधी होगा। राहुल गाँधी जिस तरह हवा मे उड़ रहा है वो दिन दूर नहीं की इन माँ बेटों के कारण लोग पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी की मूर्ति भी तोडना शुरु कर दे।

ये बात ध्यान देने योग्य है की शेख हसीना कोई जन नेता नहीं थी, वो जबरदस्ती करके 2009 से गद्दी संभाले बैठी थी। बांग्लादेश के चुनावों मे जिस तरह हर बार शेख हसीना बड़े बड़े मार्जिन से जीत जाती थी वो संदेहास्पद था।

मोदीजी का केस वो नहीं है, नरेन्द्र मोदी की अप्रूवल रेटिंग आज भी 75% से ऊपर है। देश की जनता आज भी उन्हें अपना नेता मानती है, परेशानी राहुल गाँधी की है। जो एंटी इंकम्बेसी के कारण मिली महज 99 सीटों को अपनी आंधी समझ रहा है।

राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी ये समझ ही नहीं पा रहे है की वे दोनों खुद को देश पर थोप रहे है और देश उन्हें स्वीकार नहीं कर रहा है। यदि ये ही चलता रहा और हवा मे उड़ रहे राहुल गाँधी ने जिस दिन लक्ष्मण रेखा पार कर ली तो बिल्कुल बांग्लादेश जैसे हालात उसके होंगे।

मोदी विरोध करते करते ये लोग कब भारत विरोध करना शुरू कर देते है इन्हे ध्यान नहीं रहता। कितने ही लोग पंडित नेहरू और इंदिरा गाँधी को सिर्फ इनकी वजह से पसंद नहीं करते। इसलिए संभव है भविष्य मे नेहरू जी की मूर्ति भी तोड़ी जाए और इसका पूरा जिम्मा कांग्रेसियो की गधे को घोड़ा बनाने वाली जिद पर होगा।

✍️परख सक्सेना✍️
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तो कुल मिलाकर मोदीजी को सबक सीखाने के लिये हिन्दुओ ने 234 वो सांसद भेजे है जो आज कहेँगे की हाँ हिन्दुओ की जमीन हड़प कर वफ्फ बोर्ड अच्छा काम कर रहा है, उसे करने दो।
प्रश्न धर्म का नहीं नस्ल का है। 1946 मे डायरेक्ट एक्शन डे हुआ था, मुस्लिम लीग ने बंगाली हिन्दुओ को चुन चुन कर मारा था। विभाजन के समय पंजाब से ज्यादा हिन्दू नरसंहार बंगाल मे हुआ था।

लेकिन आज खुद सोचिये पूरे देश मे सेक्युलरिज्म की सबसे ज्यादा फसले किस राज्य मे उगती है? एशिया के लंदन से एशिया का दूसरा बगदाद बन चुके है मगर आप उनका घमंड और ऐटिटयूड देखिये, सबसे ज्यादा भिखारी वाला राज्य सबसे ज्यादा व्यापारी वाले गुजरात को अर्थशास्त्र का ज्ञान देता है।

वहाँ से आयी अभिनेत्रियां कभी अजान पढ़कर सुनाती है तो कभी कहती है "I rarely go to temples"। वहाँ से आये लेखक समाज मे कार्ल मार्क्स, फ्रीबीज और इस्लामिक कला का जहर बोते है। वहाँ से आये छात्र पूरे देश मे वामपंथ की कार्बन डायऑक्साइड छोड़ते है। वहाँ से आये मजदूर यूनियनबाजी करते है और व्हाइट कॉलर मजदूर कॉर्पोरेट पॉलिटिक्स खेलते है।

हमने यहूदियों जितना झेला जरूर है मगर हमारी स्थिति उनसे लाख गुना बेहतर है। यहूदियों की आबादी महज 1 करोड़ है इसलिए उन्हें जरूरत है की दुनिया भर के यहूदी इजरायल ही जाए।

लेकिन भारत मे हम 115 करोड़ हिन्दू है, बांग्लादेश के जिन 1.5 करोड़ हिन्दुओ को आप लेना चाहते है वो सिर्फ बोझ है। इनमे से आधे तो आते ही कम्युनिस्ट पार्टी जॉइन कर लेंगे।

बाकि बैठकर ज्ञानबाजी करेंगे, आपकी किस्मत बहुत ही अच्छी हुई तो शायद एक दो सुभाष चंद्र बोस या स्वामी विवेकानंद भी आ जाये मगर ये नहीं होगा इसलिए सेंटीमेंटल नहीं रियल वैल्यू देखो।

उल्टे प्रार्थना कीजिये बांग्लादेश मे एक आधिकारीक हिन्दू holocaust ही हो जाए क्या पता उनके पेट मे जाने वाली जहरीली गैसो से भारत के सेक्युलरों की नींद टूट जाए और ये जागृत होकर इस्लामिक आतंकवाद के विरुद्ध हमारे साथ खडे हो जाए।

देवी देवताओं की खंडित मूर्ति देखकर दुख होता है मगर जब ये बांग्लादेशी हिन्दू भारत मे आकर आपको सेक्युलरिज्म और कार्ल मार्क्स की विशेषताएं बताएँगे तो उससे ज्यादा दुख होगा।

✍️परख सक्सेना✍️
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पाकिस्तान ओलम्पिक मे भारत से ऊपर है ये बकवास है, सिर्फ एक गोल्ड जीतना और उस पर आंकलन करना पागलपन है। लेकिन चिंता और सबक है ऑस्ट्रेलिया।

2 करोड़ की आबादी वाला देश कुल 45 मेडल जीता है। हमने ओंलम्पिक के लिये 470 करोड़ रूपये खर्चे, ऑस्ट्रेलिया ने ऐसा कुछ नहीं किया। चीन ने भी सच पूछो तो कद्दू पर तीर नहीं मारा, कम्युनिस्ट देश है खिलाड़ियों पर प्रॉपर दबाव बनाकर भेजते है।

स्कूल से ही ओलम्पिक की तैयारी शुरू हो जाती है। 170 करोड़ की आबादी और इतने तामझाम के बावजूद चीन को नंबर 1 के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है।

इसलिए ऑस्ट्रेलिया हमारा रोल मॉडल होना चाहिए, प्रकाश पादुकोण ने कहा है की भारत के खिलाडी ओलम्पिक को गंभीरता से नहीं ले रहे। सहमति है इस स्टेटमेंट से, गंभीरता से लेंगे भी क्यों?

ऑस्ट्रेलिया मे जो लोग गोल्ड लेकर जायेंगे उनसे ज्यादा वीआईपी ट्रीटमेंट यहाँ कास्य पदक जीतने वालो को मिलेगा। उन्हें विज्ञापन मिलेंगे, पड़ोस वाले शर्मा जी के सामने रौब बढेगा बस वो ही हमारा गोल्ड है।

ऑस्ट्रेलिया की ग्रेस ब्राउन ने एक गोल्ड जीता है, 2019 मे भी जीत चुकी है। आप गूगल कर लीजिये अगर उसने इस बीच एक भी विज्ञापन किया हो तो? ऑस्ट्रेलिया के क्रिकेट ऑल राउंडर शेन वाटसन ने एक बार विज्ञापन करने को इसलिए मना कर दिया था क्योंकि श्रीलंका के साथ ऑस्ट्रेलिया की सीरीज थी और उन्हें प्रैक्टिस मे बाधा हो रही थी।

वो लोग एक छोटी सी सीरीज के लिये भी लड़ते है, अमेरिका ने पेरिस ओलम्पिक की तैयारी टोक्यो ओलम्पिक के ठीक एक महीने बाद शुरू कर दी थी। भारत मे हमारे खिलाड़ी ओलम्पिक से 2 महीने पहले तक पब्लिक शो कर रहे थे।

ऐसा नहीं है की ऑस्ट्रेलिया अमेरिका मे उन्हें कोई और विशेष सुविधा मिलती है या उनकी सरकार उन्हें सोने के पानी से नहलायेगी। रिटायरमेंट के बाद ये खिलाड़ी या तो कॉर्पोरेट जॉब करेंगे, ट्रेनर बनेंगे या फिर खुद का बिजनेस करेंगे। भारतीयों की तरह इनके जुलुस और सरकारी नौकरी वाले तामझाम नहीं होंगे।

जिस दिन विनेश फोगाट फाइनल मे सिलेक्ट हुई राहुल गांधी ने ट्विटर पर सुबह से राजनीतिक अस्त्र निकाल लिया था। देश मे आधे लोग अब भी वो है जिन्हे विनेश के जीतने से ज्यादा इस चीज से मतलब था की जीत जाती तो थोड़ा पॉलिटिकल मीम बनाते।

आधे लोग वे भी है जो उसके बाहर होने से खुश है की चलो उस पर तंज कसेंगे। लेकिन किसी को नहीं दिख रहा तो टेबल मे रखा जीरो, किस एंगल से ये ऑस्ट्रेलिया वाला रवैया है? यदि सिर्फ नाम के लिये अवार्ड का नाम अर्जुन रखा है तो व्यर्थ है क्योंकि अर्जुन का अनुसरण ऑस्ट्रेलिया मे हो रहा है।

अब समय आ गया है की हम भ्रान्तियों से ऊपर उठे, खिलाडी सिर्फ खिलाडी होना चाहिए सेलिब्रिटी नहीं। पहले फंड की कमी होती थी समझ आता था मगर अब तो करोड़ो बहा दिए, पीटी उषा जैसे अनुभवी लोग नियुक्त हुए।

फिर भी भारत के खिलाड़ियों ने मात खायी या यू कहे भारत के सेलिब्रिटीज ने मात खायी।

✍️परख सक्सेना✍️
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शेख हसीना ने अमेरिका का नाम लेकर थोड़ा सुकून दें दिया है। इतना तो तय हुआ की ये सब चीन का किया हुआ भी नहीं है और भारत को प्रभावित करने के लिये भी नहीं हुआ।

वफ्फ बोर्ड के लिये वोटिंग हुई और NDA ने एकजुटता दिखाई, देश मे कही दंगे नहीं हुए। आप कल्पना कीजिये ऐसा कोई बिल 2007 मे लाया जाता तो क्या इतनी शांति होती? इसलिए ऐसी कोई बड़ी दिक्क़त भारत मे नहीं दिख रही।

लेकिन म्यांमार मे 2021 से सैनिक शासन लगा हुआ है, अमेरिका ने प्रतिबन्ध लगा दिए थे और म्यांमार तब से चीन पर निर्भर है।

शेख हसीना बांग्लादेश का रक्षा बजट बढ़ा रही थी। इस बजट से चीन को ही फायदा पहुँचाया जा रहा था, बांग्लादेश ने चीन से उधार लेना शुरू कर दिया था।

यही अमेरिका की दिक्क़ते शुरू हुई, भविष्य मे यदि अमेरिका को चीन से युद्ध करना है तो उसे मलक्का के रास्तो के आसपास अपनी सेना चाहिए। मलक्का मे चीन को रोकने के लिये दो द्वीप पर्याप्त है एक अंडमान निकोबार और दूसरा सेंट मार्टिन।

अंडमान निकोबार भारत के पास है और भारत के साथ अमेरिका की सन्धि है। जबकि सेंट मार्टिन बांग्लादेश का है और म्यांमार के बिल्कुल नजदीक, ये बात उसे ख़ास बनाती है।

इसलिए अमेरिका ने पहले शेख हसीना को प्यार से समझाया जब नहीं समझी तो अपना लोकतंत्र वाला हथियार निकाला और बांग्लादेश के आंतरिक मामलो मे टांग अड़ाई, अंत मे एक आंदोलन हुआ और सब कुछ बदल गया।

बांग्लादेश मे अब प्रो अमेरिकी यूनुस बैठा है, अब अगला निशाना म्यांमार होगा, वो दिन दूर नहीं है जब बांग्लादेश और म्यांमार के बीच युद्ध शुरू होगा और अमेरिका की सेनाये किसी ना किसी बहाने सेंट मार्टिन द्वीप पर बैठी होंगी।

बाकि भारत की चिंता मत कीजिये, ये बात सही है की कांग्रेस के नेताओं जैसे सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर ने पाकिस्तान से मीडिया के सामने मदद मांगी है।

राहुल गाँधी लंदन जाकर गुप्त चर्चाये करता है, मगर ये भी सच है की बीजेपी को प्रो अमेरिकन पार्टी भी कहा जाता है। मोदी सरकार के खिलाफ कुछ करना अमेरिका के हित मे नहीं है उल्टे अमेरिका को कांग्रेस का डर होना चाहिए क्योंकि वो पिछले कुछ समय से तो चीन परस्त हो गयी है।

इसलिए चिंता ना करें भारत यथावत ही चलेगा ये सारा सर्कस म्यांमार के लिये हो रहा है। दुख बस इस बात का है की ये सारी ही जगहे कभी अखंड भारत का हिस्सा थी और आज.....

खैर संभव है इसके पीछे कोई सकारात्मक कारण भी हो जो दूर भविष्य मे अखंड भारत की संभावनाये प्रबल बनायेगा।

✍️परख सक्सेना✍️
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लालकृष्ण आडवाणी ने एक किताब लिखी है "My country my life"

आडवाणी 14 अगस्त 1947 को कराची मे ही थे, 5 अगस्त को आरएसएस ने पथ संचलन किया था। जिस रास्ते पर पथ संचलन हुआ वहाँ 14 अगस्त को हिन्दुओ और सिखो की लाशें पड़ी थी। कराची उन दिनों सबसे विकसित बंदरगाहो मे से एक था।

आडवाणी बाइक पर सड़को का मुआवना कर रहे थे, हिन्दू बच्चों ने स्कूलों मे लड्डू लेने से मना कर दिया था क्योंकि चारो तरफ आतंक का माहौल था और आजादी जैसा कुछ प्रतीत नहीं हो रहा था। एक महीने बाद आडवाणी दिल्ली आ गए बाद मे वो जो बने वो तो इतिहास है।

इसी तरह लाहौर मे एक बिजनेसमेन थे गंगाराम, इन्होने कई मंदिर, हॉस्पिटल और स्कूल बनवाए थे। जब विभाजन हुआ तो मुसलमानो ने सारे मंदिर तोड़ दिए और इन सब मे जो मुसलमान घायल हुए उनका इलाज गंगाराम जी के ही हॉस्पीटल मे हो रहा था। यहाँ तक की उनके परिवार के लोगो को भी हिन्दू होने की वजह से मार दिया गया था।

इसलिए ये आजादी पूरी नहीं है, आप अपनी कराची को कैसे भूल सकते है। सिंधु नदी के बिना भारत की कल्पना भी कैसे हो सकती है? ढाकेश्वरी देवी के बिना मातृपूजन कैसे संभव है? लाहौर के बिना पंजाब मतलब एक बेजान शरीर।

ये भारत नहीं है ये इस्लामिक आधिपत्य से मुक्त भूमि मात्र है जो इसीलिए मुक्त है ताकि अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त कर सके। आप चुनौतिया आने दीजिये, कितने ही जेहादी, घुसपैठिये, कांग्रेसी और सेक्युलर आकर बैठ जाए लेकिन ये मिलकर भी भारत को नहीं रोक सकते।

ये लोग भूल जाते है की इस्लाम का उदय जब हुआ तब तक तो भारत मे दो दर्जन बड़े साम्राज्य आकर खत्म भी हो चुके थे। 140 साल पहले बनी कांग्रेस भूल जाती है की इस देश के इतिहास की जड़ भी उसके पूरे अस्तित्व से बड़ी है।

हिन्दुओ को चाहिए की आप अर्थव्यवस्था मजबूत कीजिये, देश का इंफ्रास्ट्रक्चर और तकनीक सुधरनी चाहिए। महाभारत कालीन भारत समृद्ध था क्योंकि लोग आस्थाओ और कर्मकांडो से ज्यादा ज्ञान विज्ञान को महत्व देते थे।

हमें बस उसी रास्ते चलना है, वेदो के मार्ग पर चलेंगे तो धीरे धीरे ही सही मगर गंतव्य तक पहुँच जाएंगे। वो दिन बहुत दूर नहीं है ज़ब लाहौर कराची और ढाका पर भी तिरंगा लहरा रहा होगा, सारनाथ के निशान यहाँ के भवनो पर होंगे। यदि देखने के लिये हम मे से कोई ना भी रहे तो भी गंगा मे बहती हमारी अस्थिया उसका साक्ष बनेगी मगर ये होगा जरूर।

✍️परख सक्सेना✍️
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आज कोलकाता के रेप को 11 दिन हो गए है लेकिन किसी जमाने की नेशनल क्रश माधुरी दीक्षित ने शायद अख़बार हीं नहीं पढ़ा। हालांकि इसी माधुरी दीक्षित ने ये खबर पढ़ ली थी की इजरायल ने रफाह पर बमबारी की है और तुरंत सुबह होते हीं रफाह के लिये आवाज उठा ली थी।

ये होता है टूल किट, ये होता है पैसो के लिये आत्मा को बेच देना। जिन्हे आप सेलिब्रिटी कहते है वे समय आने पर आपके हीं घर की बहन बेटियों का भी सौदा कर सकते है वो भी चंद पैसो के लिये।

दावे के साथ कह सकता हुँ की माधुरी दीक्षित को रफाह को र भी नहीं पता होगा। उसे ये भी नहीं पता होगा की असली मे रफाह मे हुआ क्या है? बस PR एजेंसी को पैसा और टूल किट मिला, उसने दाए देखा ना बाए बस उठाकर एक फोटो लगा दिया "ऑल आईज ऑन रफाह"

इसके ठीक विपरीत उसे ये निश्चित हीं पता होगा की कोलकाता क्या है, वहाँ क्या हुआ है मगर पैसा नहीं दे रहा है ना कोई तो ठीक है जो हुआ सो हुआ।

ऐसे लोगो के लिये आचरण या उसूलो का कोई मोल नहीं है। इन्हे बस पब्लिसिटी चाहिए, हालांकि ये मत सोचिये की माधुरी दीक्षित हीं पूरा बॉलीवुड है। इसी इंडस्ट्री मे पंकज त्रिपाठी, मनोज वाजपेयी और TVF भी है।

अब हमें नितांत आवश्यकता है अपने सेलिब्रिटीज को बदलने की, आपको अंतर ढूंढना होगा। आपको कपूरो और खानो को देखना है या फिर कोटा फैक्ट्री, पंचायत और पिचर्स जैसी वेबसीरीज देखनी है।

घर का जो परिवेश होगा वो हीं समाज का होगा, कोलकाता रेप केस के बाद भी महज 11 दिनों मे बलात्कार संबंधी 5 और खबरें तो मैं खुद पढ़ चुका हुँ। मतलब साफ है की ये समस्या अपवाद नहीं है बल्कि सामाजिक है। कुछ तो हम गलत कर रहे है।

द्रोपदी के केश पकड़ने के कारण दुःशासन और दुर्योधन का ऐसा वध हुआ था की आज 5000 साल बाद भी आत्मा काँप उठती है। लेकिन ये तो टूल किट वाला भारत है, भारत का समाज आज अनुसूया और अहिल्या को भूलकर माधुरी दीक्षित के पीछे लगा है।

माधुरी दीक्षित राम मंदिर समारोह मे भी थी मगर यदि आपको पैसो की चमक मे 5 हजार किमी दूर रफाह दिखाई देता है और 1000 किमी दूर कोलकाता नहीं दिखाई देता तो विषय गंभीर हो जाता है। देश आपको सेलिब्रिटी के रूप मे देख रहा है, महिलाये आपके पहने कपड़ो का अंधानुकरण कर रही है।

आप उस स्तर पर नहीं है जहाँ व्यक्तिगत राय का कांसेप्ट हो। खैर दादा बड़ा ना भैया सबसे बड़ा रुपैया, इसलिए समाज को हीं खुद को बदलना होगा। आज आप कोलकाता के लिये दुखी है आगे और भी शहरों मे ये होगा और सतत चलता रहेगा।

✍️परख सक्सेना✍️
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ये इब्न रुश्द की तस्वीर है, वैसे तो मुसलमान थे लेकिन इन्हे यूरोपीय सेक्युलरिज्म का जनक कहा जाता है। एक जमाना था की बगदाद मे किताबें इतनी ज्यादा पढ़ी जाती थी की कोई भी व्यक्ति आसानी से किताबें बेचकर अमीर हो सकता था।

ये इस्लाम का स्वर्ण काल था, सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था, अरब मे अब्बासी खलीफा के नेतृत्व मे सब हो रहा था। लेकिन फिर आज के ईरान तरफ शिया इस्लाम का उदय होता है और ये खलीफा के खिलाफ बगावत करते है।

खलीफा ने बड़ी आसानी से बगावत तो दबा दी लेकिन बगावत वापस ना हो इसके लिये एक ऐसा कदम उठाया जिसकी सजा आज तक दुनिया भुगत रही है। खलीफा ने शियाओ को आइसोलेट करने के लिये सुन्नी धार्मिक शिक्षा अनिवार्य कर दी।

अब हर जगहे मदरसे खोले जाने लगे और देखते हीं देखते इस्लामिक शिक्षाए विज्ञान पर हावी हो गयी। अब जो मुसलमानो की नई पीढ़ियां आयी उनके सिर पर खून सवार था की इस्लाम को कैसे बढ़ाये।

बाद मे कई नई सल्तनते बनी लेकिन मुस्लिम बादशाहो की सबसे बड़ी चुनौती ये मदरसे हीं थे। आने वाली पीढ़ी वही बनती थी जो मदरसे के कट्टर मौलवी चाहते ना की जो बादशाह चाहता।

अकबर के खिलाफ आधी बगावते हुई हीं इसलिए क्योंकि उसकी नीतियाँ धार्मिक शिक्षा के विरुद्ध थी। पाकिस्तान की किताबो मे अकबर, जहांगीर और शाहजहाँ को हेय सम्राट कहा जाता है। ठीक इसके विपरीत जिस औरंगजेब ने मुग़ल साम्राज्य को बर्बाद कर दिया, मुसलमान उसका गुणगान करते नहीं थकते।

भारत मे वे हीं मुस्लिम शासक सफल हुए जिन्होंने हिन्दू राजाओं से दोस्ती रखी, क्योंकि इस्लाम का ढांचा हीं इतना ज्यादा कठोर है की शासक होने के नाते यदि कोई नरमी बरत दे तो मौलवी फतवा निकालने मे देरी नहीं करता।

आपको आश्चर्य होगा की रजिया सुल्तान जब दिल्ली की सुल्तान बनी तो उसका विरोध इसलिए हुआ क्योंकि गद्दी संभालते हीं उसने सबसे पहले हिन्दू राजाओं से सुलह की और फिर आदेश जारी किया की धर्म व्यक्तिगत हित की बात है उसका प्रयोग राजदरबार मे नहीं होना चाहिए।

ये हीं दो कदम आगे चलकर उसकी मौत तक का कारण बने, जबकि वो अपने भाईयो से ज्यादा योग्य थी। अब आप सोचिये जहाँ सुल्तान सुरक्षित नहीं है वहाँ प्रजा का क्या होगा?

जब तक सल्तनत स्थापित नहीं होती मजहब लड़ने का एक अच्छा हथियार होता है मगर एक बार सल्तनत बन गयी तो मजहब का कोई महत्व नहीं रह जाता। तालिबान आपके सामने एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

तालिबान जब सत्ता के लिये लड़ रहा था तब इस्लाम उसकी प्राथमिकता था, 2021 मे जैसे हीं सत्ता मिली आप देख लीजिये उसने इजरायल या भारत के विरुद्ध एक भी जेहादी मरने को नहीं भेजा। फिलिस्तीन के प्रति समर्पण तालिबानियों से ज्यादा आपको भारत और पाकिस्तान के मुसलमानो मे दिख जाएगा।

बस ये हीं कारण है की मुसलमानो के इर्द गिर्द इस्लामिक शिक्षा का ऐसा जाला बुना हुआ है की इन्हे सच्चाई दिखाई नहीं देती। इसका एक बड़ा कारण यह भी है की कुरान कितनी ऑथेंटिक है ये किसी को नहीं पता।

आज जो कुरान आप देखते है वो पैगंबर मुहम्मद के 150 वर्ष बाद लिखी हुई है और इसकी ओरिजनल कॉपी 1300 साल पुरानी अरबी मे है वो अरबी जिसे आज भी आधे मुसलमान ठीक से समझ नहीं सकते। इसलिए धर्म के ठेकेदारों के लिये इन्हे भटकाना आसान है।

इसके विपरीत हिन्दू धर्म मे समय समय पर साहित्य पोषित होता रहा, भगवदगीता मे संस्कृत की जगह हिन्दी ने भी ले ली। इसलिए हिन्दू भी भटका तो सही मगर उतना नहीं जितना अब्राहमिक भटके।

मुस्लिम समाज को ध्यान देना चाहिए की आतंक से भले हीं गैर मुस्लिम भागदौड़ मचा रहे हो लेकिन ये कैंसर आपका अपना है ये आप हीं के शरीर को अपंग बनायेगा।

✍️परख सक्सेना✍️
https://t.me/aryabhumi
यदि किसी देश मे इस्लामिक क्रांति हो तो तीन बाते पक्की है, भारत का समुदाय विशेष गजवा ए हिन्द की उम्मीद से झूम उठेगा फिर वो देश बर्बाद हो जायेगा और अंत मे वो देश भारत का पक्का दोस्त बन जायेगा।

15 अगस्त 2021 को जब काबुल पर तालिबान का कब्ज़ा हुआ तो समुदाय विशेष मे ख़ुशी की लहर थी। भारत की आजादी से ज्यादा वो अफगानिस्तान के लिये खुश थे।

कारण भी सही थे तालिबान पाकिस्तान का करीबी है, वाजपेयी जी के समय पाकिस्तान ने तालिबानियों को भारत मे आतंकवाद के लिये प्रयोग किया था।

समुदाय विशेष को भी उम्मीद थी की 2021 मे भी तालिबान महमूद गजनवी या मोहम्मद गौरी की तरह आएगा और भारत मे एक मुस्लिम सल्तनत स्थापित करने मे भूमिका निभायेगा।

लेकिन घटनाक्रम पूरे विपरीत हुए, भारत ने अफगानिस्तान को ईरान की मदद से गेहूं भेजना शुरू किया और तालिबान भारत का ऐसा ऋणी हुआ की कुछ मामलो मे तो अब वो अशरफ घनी से ज्यादा प्रो इंडिया लगता है।

2021 से पहले अफगानिस्तान का स्टैंड यही था की कश्मीर भारत पाकिस्तान का आपसी मसला है, तालिबान से समुदाय विशेष को उम्मीद थी की वो कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की मदद करेगा मगर तालिबान ने उल्टे इसे भारत का आंतरिक मुद्दा कह दिया।

मतलब सोच कर देखिये जिस तालिबान से उम्मीद थी की 1192 की तरह दिल्ली और अजमेर मे हिन्दुओ का कत्लेआम मचायेगा वो तालिबान कह रहा है की कश्मीर भारत का मुद्दा है, भारत जो चाहे करें। पाकिस्तान को तो उसने कही रखा भी नहीं।

तालिबान ने भारत को अनुरोध तक किया की अशरफ घनी के समय जो प्रोजेक्ट चल रहे थे उन्हें फिर से शुरू कर दो लेकिन भारत तालिबान शासन को मान्यता नहीं देता इसलिए काम रुका हुआ है। ऊपर से तालिबान सरकार मे कुछ तो वे लोग है जो संयुक्त राष्ट्र की सूची मे आतंकवादी है।

जो भी हो तालिबान निकट भविष्य मे इतना बड़ा खतरा नहीं लग रहा है, लेकिन इन इस्लामिक कट्टरपंथियो का हर दाव उल्टा हीं पड़ता है। ईरान मे जब इस्लामिक क्रांति हुई थी तब भी ये बड़े खुश थे लेकिन इस्लामिक ईरान ज्यादा प्रो इंडिया साबित हुआ बजाय की राजशाही वाले ईरान के।

कबीरदास जी ने ठीक हीं कहा है
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥

शायद ऋतु शब्द तथाकथित इस्लामिक क्रांति के लिये हीं प्रयोग हुआ होगा 😂

✍️परख सक्सेना✍️
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मोदी और ट्रम्प जैसे ग्लोबल लीडर्स को हटा दो और निष्पक्षता से आंकलन करो तो इस समय सबसे महान नेता सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद है।

अमेरिका ने इराक मे 33 साल से राज कर रहे सद्दाम हुसैन को मार डाला, 41 साल से लीबिया पर राज कर रहे गद्दाफी को निपटा दिया लेकिन 53 वर्षो से सीरिया संभाल रहे असद परिवार को नहीं हटा सका।

बशर अल असद खुद 24 सालो से राष्ट्रपति है और वो भी जन समर्थन के साथ। इनके पिता हाफ़िज़ अल असद ने 1971 मे सीरिया मे तख्तापलट करके सत्ता स्थापित की थी। हाफ़िज़ अल असद एक गुस्सैल मगर दूरदर्शी व्यक्ति थे, उन्होंने सीरिया को सेक्युलर बनाये रखा।

हाफ़िज़ अल असद ने कट्टरपंथी मुसलमानो का दमन किया और इस्लाम सीरिया की राजनीति मे हावी नहीं हो सका, सीरिया को मॉडर्न बनाया गया। सीरिया का फायदा भारत के साथ था तो क्या बाबरी मस्जिद और क्या कश्मीर, सीरिया ने हर जगह भारत को मौन समर्थन दे दिया। सीरिया मे आज भी महिलाओ को छोटे कपडे पहनने की आजादी है।

सन 2000 मे उनकी मृत्यु हुई और लंदन से लौटे उनके बेटे डॉ बशर अल असद राष्ट्रपति बने। बशर थोड़े शांत स्वभाव के है, 2011 से पहले सीरिया एक विकसित और सम्पन्न देश था। मज़हबी राजनीति से ये इतना दूर थे की कट्टरपंथियो के लिये काउंसलिंग की व्यवस्था तक करवाई।

सीरिया मे शिक्षा मुफ्त है और सबसे बड़ी बात ये धार्मिक नहीं है। जिस भी मौलाना ने ये कहा की धरती चपटी है उसे जेल भेजा गया, बस बशर अल असद का पाप यही था की वे रूस के करीबी थे और रूस पर ज्यादा विश्वास करते थे।

ये बाते बराक ओबामा को सही नहीं लगी और आख़िरकार सीरिया मे सत्ता विरोधी आंदोलन शुरू हो गए, शुरू मे बशर अल असद बैकफुट पर रहे मगर आज रूस की मदद से वो फ्रंट रनर है। सीरिया मे साक्षरता 86% है वो भी बिना मदरसे वाली।

इसलिए सीरिया मे अरब स्प्रिंग सफल नहीं हो सका, ये बात सही है की सीरिया का कुछ हिस्सा अब भी बशर अल असद के पास नहीं है। लेकिन देर सबेर वो इसे जीत हीं लेंगे, इतना भय के वातावरण मे भी असद रमजान मे जनता के बीच जाकर मिलते है।

आपने कभी नहीं सुना होगा की बशर अल असद हवाई बाते कर रहे हो, वे मीडिया मे कम आते है जितनी जरूरत है उतना बोलते है और चले जाते है।

निःसंदेह असद परिवार ने ये सब रणनीति अपने फायदे के लिये बनाई होंगी लेकिन आज वो उसी की वजह से बचे है। साधारणतः ऐसा होता नहीं है की अमेरिका लोकतंत्र की लड़ाई छेड़े और आप बचे रहे।

सीरिया आज उसी हाल मे है जिस हाल मे ब्रिटेन 1945 मे था, लेकिन लिख लीजिये सीरिया पुनः खड़ा होगा और उसके इस उद्भव को हमारी हीं पीढ़ी हीं देखेगी। इस सदी के सबसे संघर्षशील राष्ट्रध्यक्ष को सम्मान देना तो बनता है।

✍️परख सक्सेना✍️
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कोलकाता रेप केस का मुख्य आरोपी भले ही संजय रॉय हो मगर आप थोड़ा ठीक से देखो तो ऐसा लगेगा की असली आरोपी ममता बनर्जी खुद है।

संजय रॉय पर इससे पहले अपनी 2 पत्नियों को मारने का केस था लेकिन बड़ी ही आसानी से TMC के गुंडों की वजह से उस पर केस ही नहीं हुआ। इसी साल मोमिता से पहले वो 3 महिलाओ के साथ गलत कर चुका था मगर पुलिस ने केस ही दर्ज नहीं किया।

मोमिता के रेप के बाद पुलिस के आने से पहले ही इसे सुसाइड बता दिया गया, पोस्टमार्टम तक कर दिया गया, यदि उसकी सहकर्मी वीडियो नहीं बनाती तो हमें तो पता भी नहीं चलता की कोलकाता मे कोई रेप हुआ है।

लेकिन बंगाल का ये भ्रष्टाचार देखकर आपको कुछ याद आया? लालू के समय का बिहार या फिर मुलायम के समय का उत्तर प्रदेश? दरअसल जिन राज्यों ने क्षेत्रीय पार्टियों को सत्ता सौपी है उनका हाल ये ही हुआ है।

ममता बनर्जी खुद एक स्त्री है मगर उसके चेहरे पर एक शिकन नहीं है, सोनिया गाँधी बाटला हॉउस के आतंकवादियों के लिये रोई थी मगर यहाँ वो मोमिता के खिलाफ कपिल सिब्बल को मैदान मे उतार चुकी है।

कहने का मतलब ये है की समाज मे ऐसी औरते भी होती है, क्या ममता और सोनिया संजय रॉय से कम गुनहगार है?

दरअसल क्षेत्रीय पार्टियों की आदते हमारे दो बड़े प्रधानमंत्रियों ने बिगाड़ी है एक इंदिरा गाँधी दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी। इंदिरा गाँधी ने ज़ब इमरजेंसी लगाई तो उसकी वज़ह से यूपी, बिहार और बंगाल जैसे राज्यों मे क्षेत्रीय पार्टियों को गति मिली।

लालू, भालू, ममता ये सभी इसी इमरजेंसी की पैदाइश है। लेकिन 1998 मे जब वाजपेयी युग शुरू हुआ तो वाजपेयी जी को गठबंधन करना पड़ा और तब पहली बार इन्ही नेताओं की एंट्री दिल्ली मे मंत्री के रूप मे हुई।

यहाँ इनके दांतो पर जो सत्ता का खून लगा उसकी सजा आज पूरा देश भुगत रहा है। गरीब घरो से आये इन लालचियों ने पहली बार सत्ता का सुख भोगा और इसके बाद वो भूख ऐसी बढ़ी की ये पूरा देश बेचने को तैयार थे।

बंगाल मे जो रेप हुआ उसकी मूल जड़ यही है, ममता बनर्जी का यूट्यूब पर शायद आपको एक पुराना वीडियो भी मिल जाए वो बांग्लादेशियो को भगाने के लिये रो रही थी और वाजपेयी सरकार कुछ नहीं कर रही थी।

इसके बाद 2011 मे जब उसे सत्ता मिली तब उसने स्टैंड बदला और आज देखिये उसके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं है। जबकि ये निर्भया से बड़ा काण्ड है, इस काण्ड से पहले संजय रॉय को पकड़ने के 6-7 पर्याप्त कारण थे लेकिन ममता बनर्जी ने कुछ नहीं किया।

या यू कहे उसने TMC वालो के लिये जो इको सिस्टम बनाया वो बड़ा कमाल है। RG KAR मेडिकल कॉलेज मे जहाँ ये रेप हुआ वहाँ इससे पहले 10 से ज्यादा लोग आकस्मिक रूप से मर चुके है और सबको सुसाइड ही बताया गया। मोमिता को भी पुलिस ने सुसाइड ही बनाया था मगर ये कह लीजिए की इस बार ममता बनर्जी की किस्मत खराब थी।

इसलिए मोदी सरकार को मैं आजाद भारत की सबसे अच्छी सरकार कहता हुँ, बिल्कुल शिकायते होंगी आपको। आजकल तो तुष्टिकरण के आरोप भी लगने लगे है लेकिन ये भी एक बात है की शायद ये लोग रेप के आरोपियों के साथ खडे हो जाए मगर दोषियों के साथ कभी खडे नहीं होते।

वाजपेयी जी के समय जो रायता फैला था वो ED के नाम पर ही सही लेकिन सारा जेल मे सिमट गया था पर फिर जनता को लोकतंत्र पर खतरा भी दिखने लगा।

मोदी राज का दूसरा पहलू ये भी रहा की पिछले 10 साल से ये सारे निशाचर सत्ता से दूर छटपटाते रहे। वाजपेयी काल के बाद पहली बार हुआ की ये केंद्र की सत्ता से दूर रहे, वो ही चीजें उन्हें सबसे ज्यादा काट रही है।

आप सोचकर देखिये लालू का एक गुंडा शाहबुद्दीन, जिसे वो वाजपेयी जी के काल मे मंत्री बनाना चाहता था। बाद मे पता भी चल गया की वो ISI का एजेंट था, वाजपेयी जी ने उसे मंत्री नहीं बनाया और जब मोदी काल मे उसे सजा हुई तो खुद पढ़े लिखें लोगो ने कहा ये तो लोकतंत्र की हत्या है।

वाजपेयी ने शाहबुद्दीन को नहीं स्वीकारा मगर आज के राहुल गाँधी को देखकर लगता है की वो तो गले लगा लेता।

दरसल भारत का पढ़ा लिखा समाज खुद आज तक लोकतंत्र की परिभाषा निर्धारित नहीं कर सका। यही कारण है की कपिल सिब्बल ने संजय का साथ देने से पहले एक बार भी नहीं सोचा, मणिपुर पर चिल्लाने वाला राहुल गाँधी बिल्कुल शांत है।

इन नामो मे से किसी के खिलाफ एक्शन हुआ तो राहुल गांधी को बस इतना बोलना है की विपक्ष की आवाज दबाई जा रही है और पूरा माहौल मोमिता से पलटकर ममता बनर्जी के साथ हो जाएगा।

इसलिए ये रेप जनता का, जनता के द्वारा ही हुआ है और ये आगे भी होता रहेगा तब तक, जब तक की हम लोकतंत्र को समझ नहीं जाते।

✍️परख सक्सेना✍️
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जब से जो बाइडन राष्ट्रपति बने सबसे पहले अफगानिस्तान, फिर श्रीलंका, पाकिस्तान और अब बांग्लादेश गिर चुके है, म्यांमार पहले ही गिर गया था तो उस पर प्रतिबन्ध लग गए।

दक्षिण एशिया पर तीर चला और भारत को छोड़कर सब ढेर हो गए, सबसे बड़ी बात चारो ही जगह अमेरिका का कनेक्शन है। लेकिन 2024 के चुनाव मे पूरा प्रयास था कि एक कमजोर सरकार बने।

कमजोर सरकार का इतिहास है मनमोहन सिंह या यू कहे सोनिया गाँधी की सरकार। पता नहीं अब कितने लोगो को याद होगा मगर मनमोहन काल मे जब भारत मे कोई आतंकवादी घटना होती थी तो सबसे पहले अमेरिका से सलाह ली जाती थी।

वो दौर ऐसा था कि अमेरिका यदि इराक मे एक गोली भी चला देता था तो बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज पूरा हिल जाता था। भारत की विदेश नीति इतनी ज्यादा सॉफ्ट थी कि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने जब एक समर्थन माँगा तो पाकिस्तान नाराज ना हो इसलिए भारत ने मना कर दिया था।

चीन श्रीलंका, हिन्द महासागर और अरब सागर मे पैठ जमा रहा था और इस वजह से अमेरिका पर भारत की निर्भरता बढ़ रही थी। ये अमेरिका का भारत के खिलाफ स्वर्णिम समय था, उसके लिये भारत एक मित्र से ज्यादा कॉलोनी बन रहा था।

मगर 2014 मे जब मोदी युग का आरंभ हुआ तो चीजें काफी ज्यादा बदल गयी। भारत ने कॉलोनी बनने की जगह मित्रता को चुना। यदि मनमोहन का समय होता तो इस समय पेट्रोल का भाव 135 रूपये के आसपास होता क्योंकि भारत रूस से तेल नहीं खरीद पाता।

लेकिन सरकार मजबूत थी इसलिए रुसी पेट्रोल से भारत बच गया। बीजेपी को प्रो अमेरिका पार्टी भी कहा जाता है लेकिन अमेरिका के हित मे ये है कि भारत उसके अनुरूप चले। इसलिए 2024 मे पूरी लॉबी इस सरकार को गिराने मे जुटी थी।

राहुल गांधी ने ऑन रिकॉर्ड लंदन मे बोला था कि मोदी को हटाने मे मेरी मदद कीजिये। यह तय मानिये कि 2024 मे यदि बीजेपी हार जाती और राहुल गाँधी प्रधानमंत्री बन जाता तो भारत का हाल वही होता तो पाकिस्तान और बांग्लादेश मे हुआ।

डोनाल्ड लू इसी मिशन पर दक्षिण एशिया मे है, लेकिन भगवान का धन्यवाद कहिये कि 2024 का वोटर 2004 के वोटर जैसा नहीं था। उस समय वालो ने वाजपेयी जी तक को वनवास दे दिया था और इस समय वालो ने मोदीजी को भी बचाये रखा।

चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, एकनाथ शिंदे और चिराग पासवान जैसे लोग स्वार्थ के लिये ही सही मगर उस बवंडर को रोके हुए है जो भारत की सीमा पर खड़ा है। प्रार्थना कीजिये की डोनाल्ड ट्रम्प सत्ता मे वापस लौटे क्योंकि इस समय अमेरिका मे एक वे ही है जो भारत को नहीं गिराना चाहते।

डोनाल्ड लू जो की इस समय अमेरिका की तरफ से दक्षिण एशिया देख रहे है उन्होंने ये बहुत बड़ा दाव खेला था। क्योंकि राहुल गांधी अमेरिका के विपरीत चीन का भी गुलाम बन सकता था, लेकिन शायद अमेरिका ने कुछ सोचकर एक पासा फेका हो।

इसलिए जो लोग चुनाव के परिणामो से दुखी थे वे शुक्र मनाये क्योंकि आपका जहाज समुद्र की लहरों से नहीं बल्कि एक सुनामी से लड़कर अपने तट पर पहुंचा है। आप दुखी हो की जहाज का इंजन थोड़ा स्लो हो गया मगर ये भूल रहे हो की कोशिश स्लो करने की नहीं इंजन को तबाह करने की थी।

बीजेपी मुस्लिम वोटर्स मे सेंध लगाने की कोशिश कर रही है वह विरोध योग्य है मगर यदि बीजेपी का विरोध किया तो वो लोग सत्ता मे बैठेंगे जिनका हिन्दू विरोध देखकर आप शायद एक बार को औरंगजेब को पसंद करने लग जाए।

इसलिए बीजेपी का विरोध कीजिये, ट्रक भरकर विरोध कीजिए लेकिन जब कही चुनाव हो तब मत कीजिए क्योंकि आपकी दो लाइन की फ़्रॉस्ट्रेशन देश के एक हिस्से को हिमाचल प्रदेश की तरह 5 साल के लिये अपंग बना देगी।

✍️परख सक्सेना✍️
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जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था तो ये ही लग रहा था की हफ्ते दो हफ्ते मे जीत जाएगा। लेकिन अब सब उल्टा हो रहा है यूक्रेन रूस मे घुस रहा है और हमले कर रहा है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ये अब पहली बार है की रूस मे विदेशी सेना घुस आयी है, उस समय तो जोसेफ़ स्टालिन ने देशभक्ति जगाकर रूस के नागरिको को ही लड़ने भेजा था और हिटलर को पीछे हटना पड़ा था।

लेकिन आज मंजर कुछ और है, पुतिन स्टालिन जैसे ना सही लेकिन एक मजबूत नेता तो है मगर अब वो भारत और चीन से गुहार लगा रहे है की मध्यस्थता करो। ये आप तय मानिये की असली विनती भारत से ही है।

इस समय भारत ही है जिसकी इतनी हैसियत तो है की प्रधानमंत्री ने एक महीने रूस और अगले ही महीने यूक्रेन की यात्रा की। अमेरिका तो 2022 से ही कह रहा है की भारत को युद्ध रुकवाना चाहिए।

भारत की चिंता स्विट्ज़रलैंड जैसी है, स्विट्ज़रलैंड ने भी ये मध्यस्थता करने की कोशिश की थी तो यूक्रेन ने शर्त रखी थी की रूस इस मीटिंग का भाग नहीं होगा। इस बेतुकी जिद की वजह से ये मध्यस्थता नहीं हो सकी।

यूक्रेन का ये रवैया तब था ज़ब वो बैकफुट पर था अब तो यूक्रेन के पास अपर हैंड है। यूक्रेन लगातार रूस के गाँवों पर कब्जा कर रहा है, रूस की पुलिस चौकियो पर अपने झंडे लगा रहा है। इस बार जैलेंसकी क्या शर्त रखेंगे पता नहीं।

हालांकि भारत की सॉफ्ट पॉवर स्विट्ज़रलैंड से कही ज्यादा है। स्विट्ज़रलैंड को निष्पक्ष की जगह पश्चिमी देश ही कहा जाता है। भारत की बात अलग है, भारत यूक्रेन पर दबाव बना सकता है और मध्यस्थता कर सकता है।

हालांकि ये भारत से ज्यादा रूस के लिये चिंता का प्रश्न है, क्या यूक्रेन कब्जाये गए रुसी इलाके वापस देगा? रूस जिस क्रिमिया पर कब्जा जमाये बैठा है क्या यूक्रेन उसकी जिद छोड़ देगा? यदि पुतिन झुकते है तो राजनीतिक पतन हो जाएगा, नहीं झुकते है तो रूस के बड़े हिस्से पर यूक्रेन कब्ज़ा कर लेगा।

पुतिन के सामने इस समय राजधर्म नाम का संकट है, रूस से पुतिन है या पुतिन से रूस, जोसेफ़ स्टालिन की तरह एक बर्बर तानाशाह कहलाना चाहोगे, जार निकोलस की तरह रूस की बर्बादी कहलाना चाहोगे या फिर निकिता ख्रुश्चेव की तरह वनवास काटोगे।

पुतिन के मन मे इस समय ये ही प्रश्न घूम रहे होंगे वैसे भारतीय मूल्य तो ये ही कहते है की देश व्यक्ति से ऊपर होता है। जो भी हो एक बात तो तय है की भारत की सॉफ्ट पॉवर अब बढ़ रही है, हम 2013 की स्थिति मे नहीं है अब दुनिया मे कोरोना हो, अंतरिक्ष की समस्या हो या युद्ध की मगर भारतीय संस्थाओ का हस्तक्षेप अनिवार्य हो जाता है।

ये सॉफ्ट पॉवर हम कैसे प्रयोग करते है उसी पर निर्भर होगा की हम विश्व गुरु बनते है या एक साधारण देश मात्र रह जाएंगे।

✍️परख सक्सेना✍️
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1814 मे अंग्रेजो ने अमेरिका पर आक्रमण करके उसकी राजधानी वाशिंगटन को पूरा जला दिया था। उस समय कैमरे नहीं थे मगर ये पेंटिंग उसी जमाने की है।

1776 मे अमेरिका को अंग्रेजो से आजादी मिली और 1789 मे जॉर्ज वाशिंगटन पहले राष्ट्रपति बने। उस समय अमेरिका की बहुत दयनीय दशा थी, उसके आधे हिस्से पर स्पेन कब्जा जमाये बैठा था।

कनाडा को लेकर मतभेद था कि ये अलग देश है या अमेरिका का ही हिस्सा है। मगर वाशिंगटन के बाद जब फ़्रांस और ब्रिटेन मे युद्ध छिड़ गया तो अमेरिका ने कनाडा के कई हिस्सों पर छापे मारे।

मगर जब फ़्रांस हार गया तो अंग्रेजो ने अमेरिका पर धावा बोला और 1814 मे अंग्रेजी सेना वाशिंगटन मे घुस गयी। अंग्रेजो ने वाशिंगटन को जमकर लूटा और भयानक रक्तपात किया।

व्हाइट हॉउस को भी लूटा गया और जला दिया गया, राष्ट्रपति जेम्स मेडिसन को पास के गाँव मे शरण लेनी पड़ी। अंग्रेज तांडव कर ही रहे थे कि मानो देवताओं ने अमेरिका की तरफ से युद्ध की घोषणा कर दी।

अमेरिकी इतिहास के सबसे भयावह तूफ़ानो मे से एक तूफान अमेरिका मे आ गया जबकि इसका कोई अनुमान नहीं था। अमेरिका मे उस सदी की सबसे भीषण वर्षा हुई और सारी आग बुझ गयी। पहले अंग्रेजो ने अमेरिकियो को मारा फिर तूफान ने अंग्रेजो को।

अंग्रेजो को वाशिंगटन छोड़कर भागना पड़ा और अमेरिका की आजादी बरकरार रही। लेकिन बर्बाद अमेरिका और ज्यादा लूट गया।

अमेरिकियो को समझ आया की शिक्षा ही वो हथियार है जो आगे उनके काम आएगा इसलिए बर्बाद हो चुकी यूनिवर्सिटीज फिर से खड़ी की गयी।

ज्ञान आया तो अमेरिका ने बाद मे स्पेन को हराया और पश्चिमी अमेरिका आजाद हुआ और आज जितना बड़ा हुआ।

रिसर्च होने लगी और 130 साल बाद अमेरिका ने 1945 मे अपने सुपरपॉवर होने का सफऱ पूरा किया। तब वो यह शक्ति सोवियत संघ के साथ साझा करता था लेकिन 1991 से वो जग सिर मोर बना बैठा है। आज देखिये ब्रिटेन अमेरिका के आगे बोना लगता है।

गौरी और लक्ष्मी, सरस्वती के साथ ही आएगी। देश मे जितनी ज्यादा शिक्षा होंगी देश उतना शक्तिशाली और सम्पन्न होगा। जब नालंदा थी तो भारत सुपर पॉवर था, जब ऑक्सफ़ोर्ड बनी तो ब्रिटेन भी सुपरपॉवर बना और आज उसी यूनिवर्सिटी कल्चर के नाम पर अमेरिका है।

गद्दार नेता वहाँ भी पैदा होते है और भारत से ज्यादा भयावह होते है मगर फिर भी वो जीत जाते है क्योंकि ज्ञान जागृति का अलख जगाए रखता है।

✍️परख सक्सेना✍️
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भारत सरकार को बिना बताये राहुल गाँधी व्हाइट हॉउस मे अमेरिकी शकुनियो से मिलने गया।

जिन्हे नहीं पता हो वे जान ले की अमेरिका को जब भी किसी देश मे तख्तापलट करना होता है तो वो उस देश के विपक्षीयो से मेल मिलाप शुरू कर देता है। जब अफगानिस्तान मे नूर मुहम्मद की सरकार गिरानी थी तो अमेरिका ने तालिबान को खड़ा किया।

जब सीरिया मे बशर अल असद की सरकार गिरानी थी तो इस्लामिक स्टेट खड़ा किया गया, बांग्लादेश मे आप खुद देख रहे है एक अमेरिकी एजेंट ही बैठा है और अब भारत के लिये राहुल गाँधी को प्रयोग किया जा रहा है।

राहुल गाँधी की आप लाइफ साईकल देखो तो कुछ चीजें पता चलेगी, वो जब पैदा हुआ तो उसकी दादी शासक थी जब युवा हुआ तो पिता शासक थे। जिस आयु मे बच्चा बड़ा होता है वो राहुल गाँधी एक राजकुमार की तरह पला है।

लेकिन 1989 आखिरी था जब उस परिवार का कोई व्यक्ति गद्दी पर बैठा। आप जो देखते हो की राहुल गाँधी कभी चीन तो कभी भारत के किसी अन्य दुश्मन से मिलता हुआ पाया जाता है वो इसी सनक का एक नमूना है।

यदि आपने इतिहास नहीं भी मगर लोक कथाये भी पढ़ी हो तो आपको पता होगा की राजा का बेटा बहुत बार राजा ना बन पाने पर गद्दारी करता था।

आप सोचकर देखिये पिछले 40 सालो मे सिखो पर कोई जबरदस्ती हमला नहीं हुआ है लेकिन फिर भी राहुल गाँधी अमेरिका मे बोल कर आया की सिखो को भारत मे पगड़ी नहीं पहनने देते। तुरंत बाद अमेरिका मे पोषित सिख आतंकवादी गुरपतवंत पन्नू इस बयान का स्वागत करता है।

अमेरिका ने ये कोशिश चीन के साथ भी की है और जो लोग 2014 मे अख़बार पढ़ते थे वे महसूस कर रहे होंगे की जिनपिंग के अंदाज इतने बदले हुए क्यों है?

एक बार तो जिनपिंग 3 दिन के लिये गायब भी हो चुके है और उस समय भी उनके प्रतिद्वंदी ली केकियांग जो अमेरिका के खास है वे ही जिम्मेदार थे।

यदि ये 2014 वाले जिनपिंग होते तो इस समय रूस को चुपचाप नहीं बल्कि खुलकर हथियार बेचते। आप माने ना माने मगर अमेरिका चीन को झुका चुका है। शायद इसीलिए अब उसकी आँखे भारत की ओर है।

भारत की सबसे कमजोर कड़ी इस समय कांग्रेस है जिसने 65 साल राज किया मगर 10 सालो से छटपटा रही है। राहुल गाँधी जो 35 वर्षो से सपना लिये है की एक दिन वो दिल्ली का सम्राट बनेगा, इस इंतजार मे जो बैचेनी छिपी है उसका अंदाज आप और हम लगा भी नहीं सकते।

शायद भारत मे भी ब्रिटेन या फ्रांस जैसी क्रांति हो जब राजपरिवार को मार दिया गया था। ये करना जनता के लिये मुश्किल है लेकिन ये हम जानते है की प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के अलावा भी कुछ छिपी हुई शक्तियां है जो असल मे इस देश को चला रही है।

वे शक्तियां सच मे देश के प्रति वफादार है और भ्रष्ट नहीं है, संभवतः यदि वे लोग इस अवलोकन को पढ़े तो निर्णय ले पाएंगे की उन्हें क्या करना चाहिए? जो राष्ट्र के लिये कंटक होंगे उनका कट जाना ही बेहतर है।

दूसरी तरफ इस समय सच मे चीन के साथ यदि शांति स्थापित हो जाए तो बड़ी राहत होंगी क्योंकि सात समुन्दर पार घर के भेदी ने ना जाने क्या राज खोल दिया हो।

✍️परख सक्सेना✍️
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जब वाजपेयी नहीं थे तब लोग चाहते थे की वाजपेयी आये और हिंदुत्व का झंडा लहराये। वाजपेयी आये भारत परमाणु शक्ति बना, कारगिल आज़ाद भारत का पहला युद्ध था जिसमे भारत ने अपनी शर्तो पर सन्धि की।

लेकिन फिर गुजरात दंगे हो गए, उससे 3 महीने पहले ही अमेरिका अफगानिस्तान मे घुस चुका था, विदेशी खुदरा कम्पनियो को चीन मे घुसने से रोकना था, रूस मे पुतिन की सत्ता आ चुकी थी जो की फिर से रूस को रूढ़िवादी बनाने की जिद पर थे।

वाजपेयी जी चौतरफ़ा नए नए समीकरण समझ रहे थे और ऐसे मे उनसे वही गलती हुई जो हर इंसान करता है। 4 मे से 1 काम बिगाड़ दिया और कुछ पुराने मुद्दों पर थोड़े सॉफ्ट पड़ गए।

लेकिन जनता के अनुसार आपका परफेक्ट होना ही आवश्यक है क्योंकि राजनीति की बात करते समय लोगो को ऐसा लगता है की वे तो अपने व्यवसाय और नौकरी मे कही भी कोई गलती नहीं करते।

महंगाई से त्रस्त हार्ड हिंदुत्व की भूखी जनता को सॉफ्ट हिंदुत्व ऐसा चुभा की 2004 मे उसने भारतीय इतिहास की सबसे भ्रष्ट और हिन्दू विरोधी सरकार ही चुन डाली। आप अंदाज इस बात से लगा सकते है की 2004 मे सोनिया गाँधी ही उम्मीदवार थी।

लोग एक बार को एक विदेशी महिला को बैठाने के लिये आतुर थे, वो भी वाजपेयी जी को हटाकर। अंग्रेज हमें क्या देकर गए थे यदि वो जानना हो तो 2004 का चुनाव उत्कृष्ट उदाहरण है या उस समय के जिन नए वोटर्स ने कांग्रेस को वोट दिया उनकी मेंटल स्टेट पढ़ लीजिये।

2004 तक जो चीन भारत के बराबर था वो 2009 तक बहुत आगे था, चीन ने तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश के आसपास गाँव बसाने शुरू कर दिए और जनता तब भी नहीं समझ सकी।

लेकिन 2009 के बाद जब प्रभाव दिखा और चीन ने अंदर घुसना शुरू किया, पाकिस्तान ने सैनिको के सिर काटने शुरू किये तब जनता को ध्यान आया की इससे अच्छे तो वाजपेयी के 100 रूपये के प्याज़ थे। फिर जनता वाजपेयी से ज्यादा हार्ड फेस मोदी ले आयी।

जो कुछ वाजपेयी जी के साथ हुआ ठीक वैसा ही मोदीजी के साथ हुआ। पहले पुरानी चीजें ठीक की फिर नई बनाई और अब विरोध झेल रहे है। बस इन दोनों नेताओं मे फर्क था जनता की जागृति का।

2004 के समय की जनता ने एक बार को विदेशी महिला स्वीकार ली थी और 2024 मे विदेशी महिला के खून को भी नहीं स्वीकारा। आज लोगो को योगी जी बड़े पसंद आ रहे है मगर ये तय मानिये की 2029 मे यदि वे प्रधानमंत्री बन गए तो 2039 तक ये ही कट्टर पंथी उनकी जान के दुश्मन हो जायेंगे।

क्योंकि सत्ता के बाहर रहकर आप जितना हार्ड होते है वो सत्ता मे रहकर नहीं हो सकते। जनता इसे एक पाप की तरह देखती है और सजा देती है, लगभग हर परिपक्व लोकतंत्र मे ये ही हाल है।

वोटर का चरित्र दोहरा होता है राम मंदिर जब तक नहीं बना तब तक तो "बन ही नहीं सकता", जैसे ही बन गया "इसमें कौन सी बड़ी बात थी"
परमाणु शक्ति जब तक नहीं बने तब तक "चीन बन गया है पता नहीं हम कब बनेंगे" जैसे ही बन गए "क्या फर्क पड़ता है उससे"

लेकिन चलो अंत मे सोशल मीडिया और इंटरनेट का धन्यवाद करना चाहिए, जो पुरानी घटनाये सीधे प्रचारित कर देता है और वोटर की याददाश्त 2004 जितनी खराब नहीं होती।

✍️परख सक्सेना✍️
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