उपलक्ष्य
कोई ऐसा कारण अथवा विचार जिसको ध्यान में रखकर कोई बात कही जाए या कोई काम किया जाए, उपलक्ष्य कहलाता है। सामान्यतया सांस्कृतिक कार्यक्रमों के निमंत्रण-पत्र पर यह शब्द दिखाई देता है। किंतु कुछ जगह इसे 'उपलक्ष' लिखा जाने लगा है। यह उचित प्रयोग नहीं है। लक्ष शब्द का अर्थ है 'लाख की संख्या'। इसका उपलक्ष्य से कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु प्रचलन के संक्रामक रोग के कारण यह प्रयुक्त होने लगा है। जबकि सही शब्द 'उपलक्ष्य' ही है।
कोई ऐसा कारण अथवा विचार जिसको ध्यान में रखकर कोई बात कही जाए या कोई काम किया जाए, उपलक्ष्य कहलाता है। सामान्यतया सांस्कृतिक कार्यक्रमों के निमंत्रण-पत्र पर यह शब्द दिखाई देता है। किंतु कुछ जगह इसे 'उपलक्ष' लिखा जाने लगा है। यह उचित प्रयोग नहीं है। लक्ष शब्द का अर्थ है 'लाख की संख्या'। इसका उपलक्ष्य से कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु प्रचलन के संक्रामक रोग के कारण यह प्रयुक्त होने लगा है। जबकि सही शब्द 'उपलक्ष्य' ही है।
कृष् का अर्थ होता है, अपनी ओर खींचना, हल चलाना, घसीटना इत्यादि। कृषक और कृषि शब्द इसी से बने हैं। इसी से आकर्षण शब्द बना है। भगवान श्री कृष्ण अपनी संपूर्ण कलाओं से निखिल चराचर को अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे, खींच लेते थे, घसीट लेते थे, इस परिप्रेक्ष्य में भी उनकी कृष्ण संज्ञा सार्थक है। अपनी और खींचने की संपूर्ण प्रक्रिया आकर्षण है इसका विपर्यय या विलोम विकर्षण होता है। (यहां पर वि उपसर्ग का प्रयोग विपरीत अर्थ में हुआ है, संयोग वियोग, रथी विरथ इत्यादि के समान ।)आकर्ष- विकर्ष ,आकर्षित -विकर्षित ,आकृष्ट -विकृष्ट परस्पर विलोम शब्द हैं।
Pragya Pravah : Mission IAS PCS
कृष् का अर्थ होता है, अपनी ओर खींचना, हल चलाना, घसीटना इत्यादि। कृषक और कृषि शब्द इसी से बने हैं। इसी से आकर्षण शब्द बना है। भगवान श्री कृष्ण अपनी संपूर्ण कलाओं से निखिल चराचर को अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे, खींच लेते थे, घसीट लेते थे, इस परिप्रेक्ष्य में भी…
Sir विकर्ष ka विलोम क्या होगा?? प्रश्न के क्रम में
Forwarded from Pragya Pravah Mission IAS/PCS
उपमा का अर्थ होता है साम्यता, सामानता या बराबरी। अलंकार के रूप में इसकी परिभाषा ही दी जाती है जहां अतिशय समानता के कारण उपमेय की उपमान से समानता स्थापित की जाय। जैसे मुख की की चंद्रमा से। उप= समीप,मा=मापना, तोलना ,देखना ,यह पता लगाना की इसके आसपास ,इसकी बराबरी का कोई है। यदि है तो वह उपमेय है अर्थात बराबरी के योग्य है।यदि नहीं तो अन्+ उपम, इस प्रकार अनुपम का अर्थ है जिसकी किसी से समता स्थापित न की जा सके। जिसकी बराबरी का कोई न हो। विवाह के पूर्व जब भगवान राम सीता के मुख को देखते हैं और कालांतर में चंद्रमा को देखते हैं तो एक क्षण उन्हें लगता है की सीता के मुख की सुंदरता चंद्रमा के समान हैं किंतु अगले ही क्षण वह निष्कर्ष स्थापित कर लेते हैं कि चंद्रमा सीता की बराबरी नहीं कर सकता। कहां चंद्रमा कलंकी कहां सीता निष्कलंक, कहां चंद्रमा खारे समुद्र से पैदा हुआ , विष भी समुद्र से ही निकला है इस प्रकार इसका भाई विष है। इस रूप में चंद्रमा सीता की सुंदरता के सामने नहीं ठहरता सीता की बराबरी नहीं कर सकता उनके सामने बेचारा है, रंक है। गरीब है,, इस प्रकार उपयुक्त प्रश्न का सटीक उत्तर अनुपम है।
विकल्प में सर्वभक्षी और सर्वाहारी दोनों नहीं दिया गया है। इसलिए भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है। ध्यान से पढ़िए। सर्वहारी का अभिप्राय होता है ।सब कुछ हरण करने लेने वाला। सर्वहारा का अर्थ होता है जिसका सब कुछ हरण कर लिया गया हो। मार्क्सवाद के दर्शन में बुर्जआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग हैं। बुर्जआ वर्ग पूंजीपति का और सर्वहारा वर्ग निर्धन वर्ग का प्रतीक है। सर्वाहारी शब्द सर्व और आहार से बना है अर्थात सबको आहार बना लेने वाला ।मांसाहारी शाकाहारी इसी आहार से बने हुए हैं।
Forwarded from Pragya Pravah Mission IAS/PCS
पिष्टपेषण दो शब्दों से मिलकर बना है पिष्ट और पेषण। पिष्ट का अर्थ होता है। पीसा गया और पेषण का अर्थ है पीसना। इस प्रकार पिसे हुए को पीसते रहना। लाक्षणिक अर्थ में कही हुई बात को दोहराने के अर्थ को धारण करता है। जिस प्रकार से पिसे हुए को बार-बार पीसा जाता है उसी प्रकार से कही हुई बात को बार-बार दुहराने का लाक्षणिक अर्थ और भाव पिष्टपेषण में समाहित है। पुनरुक्ति का अर्थ होता है कही गई बात को पुनः बार कहना। इसमें बार-बार कहने का भाव समाहित नहीं है।
Pragya Pravah : Mission IAS PCS
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स्वामी विवेकानंद नव्य वेदांत के प्रतिष्ठापक थे.. एक पंक्ति में वेदांत दर्शन के सिद्धांतों का व्यावहारिक संदर्भों में प्रयोग ही नव्य वेदांत है.. जैसे आत्मा ही ब्रह्म है यह वेदांत का सिद्धांत है ।जीवो ब्रह्मैव नापरः.। स्वामी विवेकानंद ने इसको आध्यात्मिक मानवतावाद में प्रतिष्ठित किया। जब सभी में अभेद है तो जात-पात का भेद मिथ्या है। हिंदू मुस्लिम का भेद अज्ञानता है.. उन्होंने इसी आधार पर प्रतिष्ठापित किया कि यदि नर और नारायण एक हैं तो फिर दरिद्र भी नारायण है । उन्होंने दरिद्र नारायण की अवधारणा दी ।स्पष्ट रूप से घोषित किया दरिद्र देवो भव।
।मूर्ख देवो भव
अशिक्षित देवो भव..
इस रूप में जो सबसे गरीब, सबसे वंचित है, वह उसी रूप में श्रद्धास्पद है और ऊपर उठाने योग्य है जिस प्रकार से श्रद्धा पूर्वक हम परमात्मा को ऊंचा स्थान प्रदान करते हैं.. यही नहीं भारत के स्वतंत्रता के संदर्भ में उन्होंने घोषित किया कि यदि आध्यात्मिक रूप से मुक्ति चाहते हैं तो फिर परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़े हुए राष्ट्र के निवासी के रूप में कभी मुक्ति नहीं मिल सकती आध्यात्मिक मुक्ति के पहले राजनीतिक मुक्ति आवश्यक है.. उन्होंने घोषित किया कि यदि नर बराबर नारायण है तो फिर तुम स्वयं को दुर्बल क्यों मानते हो । तुम भी नारायण के समान परम वैभव और सामर्थ्य से युक्त हो ।इस मिथ्या भ्रम को छोड़ो कि तुम दुर्बल हो निरीह हो ।तुम स्वयं जागृत ब्रह्म हो। इसलिए स्वयं को पहचानो और अपने आपको परम लक्ष्य की ओर अग्रसरित करो ।उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। यह उनके जीवन का मूल मंत्र था.. वह भारत की सांस्कृतिक पताका थे। जिन्होंने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को वैश्विक पटल पर स्थापित किया.. 1893 में शिकागो की विश्व धर्म संसद में जब सभी धार्मिक नेता अपने -अपने धर्म को श्रेष्ठ बताने में अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे थे ,उसमें स्वामी जी ने उद्घोष किया कि मुझे गर्व है कि मैं ऐसी सभ्यता में पला बढ़ा हूं। ऐसी संस्कृति में संस्कारित हुआ हूं जहां पर परमात्मा की अर्चना करते हुए कीर्तन किया जाता है कि जिस प्रकार से विभिन्न नदियां सीधे एवं टेढ़े मेढ़े रास्ते से होते हुए अन्ततः समुद्र में विलीन हो जाती हैं। ठीक उसी प्रकार से भिन्न भिन्न मतों को मानने वाले भी अन्ततः उसी एक मात्र परमात्मा को प्राप्त होते हैं। इस रूप में सभी के मत समादरणीय हैं।. को बड़ छोट कहत अपराधू। कौन बड़ा है कौन छोटा है इस प्रकार का कथन आपराधिक कथन है। तुम्हारी भी जय जय हमारी भी जय जय ।इस रूप में स्वामी जी धार्मिक सहिष्णुता और धार्मिक समन्वय के जीवंत मूर्ति थे। जो पूर्व की अपेक्षा आज अधिक प्रासंगिक हैं।
।मूर्ख देवो भव
अशिक्षित देवो भव..
इस रूप में जो सबसे गरीब, सबसे वंचित है, वह उसी रूप में श्रद्धास्पद है और ऊपर उठाने योग्य है जिस प्रकार से श्रद्धा पूर्वक हम परमात्मा को ऊंचा स्थान प्रदान करते हैं.. यही नहीं भारत के स्वतंत्रता के संदर्भ में उन्होंने घोषित किया कि यदि आध्यात्मिक रूप से मुक्ति चाहते हैं तो फिर परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़े हुए राष्ट्र के निवासी के रूप में कभी मुक्ति नहीं मिल सकती आध्यात्मिक मुक्ति के पहले राजनीतिक मुक्ति आवश्यक है.. उन्होंने घोषित किया कि यदि नर बराबर नारायण है तो फिर तुम स्वयं को दुर्बल क्यों मानते हो । तुम भी नारायण के समान परम वैभव और सामर्थ्य से युक्त हो ।इस मिथ्या भ्रम को छोड़ो कि तुम दुर्बल हो निरीह हो ।तुम स्वयं जागृत ब्रह्म हो। इसलिए स्वयं को पहचानो और अपने आपको परम लक्ष्य की ओर अग्रसरित करो ।उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। यह उनके जीवन का मूल मंत्र था.. वह भारत की सांस्कृतिक पताका थे। जिन्होंने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को वैश्विक पटल पर स्थापित किया.. 1893 में शिकागो की विश्व धर्म संसद में जब सभी धार्मिक नेता अपने -अपने धर्म को श्रेष्ठ बताने में अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे थे ,उसमें स्वामी जी ने उद्घोष किया कि मुझे गर्व है कि मैं ऐसी सभ्यता में पला बढ़ा हूं। ऐसी संस्कृति में संस्कारित हुआ हूं जहां पर परमात्मा की अर्चना करते हुए कीर्तन किया जाता है कि जिस प्रकार से विभिन्न नदियां सीधे एवं टेढ़े मेढ़े रास्ते से होते हुए अन्ततः समुद्र में विलीन हो जाती हैं। ठीक उसी प्रकार से भिन्न भिन्न मतों को मानने वाले भी अन्ततः उसी एक मात्र परमात्मा को प्राप्त होते हैं। इस रूप में सभी के मत समादरणीय हैं।. को बड़ छोट कहत अपराधू। कौन बड़ा है कौन छोटा है इस प्रकार का कथन आपराधिक कथन है। तुम्हारी भी जय जय हमारी भी जय जय ।इस रूप में स्वामी जी धार्मिक सहिष्णुता और धार्मिक समन्वय के जीवंत मूर्ति थे। जो पूर्व की अपेक्षा आज अधिक प्रासंगिक हैं।
गांधी शब्द वस्तुतः संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से गान्धी होगा यह नियम है कि यदि समान वर्ण का पूरा अक्षर पहले हो तो न को अनुस्वार में न लिखकर के अक्षर में ही लिखा जाता है जैसे किन्तु परनतु इत्यादि।
किन्तु महात्मा गांधी के साथ प्रचलन में गांधी ही है और वैसे भी व्यक्तिवाचक संज्ञा में व्याकरण नहीं व्यक्तित्व देखा जाता है। इस रूप में भी गांधी शब्द ही सही होगा गाँधी नहीं।महात्मा गांधी भी अपने नाम की उत्पत्ति देखकर के स्वर्ग से प्रसन्न हो रहे होंगे और इस ग्रुप को आशीर्वादित इस कर रहे होंगे कि जाओ सफलता प्राप्त करो।😄.
इसी प्रकार मानक के अनुरूप सही शब्द हिन्दी होगा न कि हिंदी । जैसे कि किन्तु परन्तु इत्यादि। नियम यह है कि जब त के समानवर्णी शब्द जैसे त थ द ध आते हैं तो न को आधा लिखा जाता है अनुस्वार नहीं। न वहां दिखाना चाहता है कि हमारा परिवार है इसलिए हमको भी दिखना चाहिए इसलिए हमको बिन्दी(.) में नहीं हमारे रूप में रहने दो। यही कारण है कि हिन्दी को हिंदी न लिखकर हिन्दी लिखा जाता है। हमारे राष्ट्रगीत में इसी नियम के तहत वंदे न लिखकरके वन्दे लिखा हुआ है। आप सब लोग वन्दना करिए वंदना नहीं।
किन्तु महात्मा गांधी के साथ प्रचलन में गांधी ही है और वैसे भी व्यक्तिवाचक संज्ञा में व्याकरण नहीं व्यक्तित्व देखा जाता है। इस रूप में भी गांधी शब्द ही सही होगा गाँधी नहीं।महात्मा गांधी भी अपने नाम की उत्पत्ति देखकर के स्वर्ग से प्रसन्न हो रहे होंगे और इस ग्रुप को आशीर्वादित इस कर रहे होंगे कि जाओ सफलता प्राप्त करो।😄.
इसी प्रकार मानक के अनुरूप सही शब्द हिन्दी होगा न कि हिंदी । जैसे कि किन्तु परन्तु इत्यादि। नियम यह है कि जब त के समानवर्णी शब्द जैसे त थ द ध आते हैं तो न को आधा लिखा जाता है अनुस्वार नहीं। न वहां दिखाना चाहता है कि हमारा परिवार है इसलिए हमको भी दिखना चाहिए इसलिए हमको बिन्दी(.) में नहीं हमारे रूप में रहने दो। यही कारण है कि हिन्दी को हिंदी न लिखकर हिन्दी लिखा जाता है। हमारे राष्ट्रगीत में इसी नियम के तहत वंदे न लिखकरके वन्दे लिखा हुआ है। आप सब लोग वन्दना करिए वंदना नहीं।