संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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Bhagvadgita 4.38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।
.
.
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इस मनुष्यलोकमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भली-भाँति सिद्ध हो गया है, वह (कर्मयोगी) उस तत्त्वज्ञानको अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है।


न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते'

--यहाँ 'इह' पद मनुष्यलोकका वाचक है; क्योंकि सबकी-सब पवित्रता इस मनुष्यलोकमें ही प्राप्त की जाती है। पवित्रता प्राप्त करनेका अधिकार और अवसर मनुष्य-शरीरमें ही है। ऐसा अधिकार किसी अन्य शरीरमें नहीं है। अलग-अलग लोकोंके अधिकार भी मनुष्यलोकसे ही मिलते हैं।

संसारकी स्वतन्त्र सत्ताको माननेसे तथा उससे सुख लेनेकी इच्छासे ही सम्पूर्ण दोष, पाप उत्पन्न होते हैं (गीता 3। 37)। तत्त्वज्ञान होनेपर जब संसारकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं रहती, तब सम्पूर्ण पापोंका सर्वथा नाश हो जाता है और महान् पवित्रता आ जाती है। इसलिये संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला दूसरा कोई साधन है ही नहीं।संसारमें यज्ञ, दान, तप, पूजा, व्रत, उपवास, जप, ध्यान, प्राणायाम आदि जितने साधन हैं तथा गङ्गा, यमुना, गोदावरी आदि जितने तीर्थ हैं, वे सभी मनुष्यके पापोंका नाश करके उसे पवित्र करनेवाले हैं। परन्तु उन सबमें भी तत्त्वज्ञानके समान पवित्र करनेवाला कोई भी साधन, तीर्थ आदि नहीं है; क्योंकि वे सब तत्त्वज्ञानके साधन हैं और तत्त्वज्ञान उन सबका साध्य है।
24.1.21आज का वेदमंत्र, अनुवाद महात्मा ज्ञानेन्द्र अवाना जी द्वारा, प्रचारित आर्य जितेंद्र भाटिया द्वारा🙏🌹

नाना चक्राते यम्या वपूंषि तयोरन्यद्रोचते कृष्णमन्यत्।
श्यावी च यदरुषी च स्वसारौ महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥ ऋग्वेद ३-५५-११॥🙏🌹

दिन और रात दो जुड़वा बहने हैं। जो विभिन्न रूपों को दर्शाती हैं।उनमें से एक चमकती है,और मनुष्यों को पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करती है। रात विश्राम कर अपनी उर्जा को तरोताजा करने के लिए प्रेरित करती है। एक काली है, और दूसरी गोरी है, परंतु दोनों का परस्पर प्रेम है।🙏🌹

There are twin sisters day and night, revealing various forms. One of them shines brightly and inspires humans work hard. Other, night, inspires to regain energy by resting.One is black, and the other is fair but they love each other. (Rig Veda 3-55-11)🙏🌹#rgveda 🙏🌹
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त्रिदोष

त्रिदोष अर्थात तीन दोष यानि वात, पित्त, कफ़ इसी को महर्षि वाग्भट्ट ने कहा है कि

वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः ।

क्योंकि ये शरीर को दूषित करते हैं इसलिए इन्हें दोष कहा जाता है ।।
"दूषणाद्दोषाः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो शरीर को दूषित करते हैं वे दोष हैं, ये दोष शरीर को तभी दूषित करते हैं जब स्वयं विकृत हो जाते हैं ।।
प्राकृतावस्था में तो दोष धातु, मल ही शरीर को धारण करते हैं ।।
इसीलिए "दोष धातु मल मूलं हि शरीरम्" कहा गया है ।। किन्तु शरीर को दूषित करने के कारण ही इन्हें दोष नाम से वर्णित किया गया है ।। परन्तु सदैव ये इसी रूप में नहीं रहते ।।

साम्यावस्था प्रकृति- जब ये प्राकृतावस्था में रहते हैं, तब शरीर को धारण करते हैं, इसीलिए समावस्था में स्थित वात्, पित्त, कफ़ को धातु कहते हैं ।। और जब ये शरीर धारण के लिए अनुपयुक्त होकर शरीर को मलिन करते हैं तब इन्हें मल कहते हैं ।।
इस प्रकार अवस्था भेद से वात, पित्त और कफ़ के लिए दोष, धातु और मल इन तीनों संज्ञाओं का व्यवहार होता है ।। ये दोष शरीर को तभी दूषित करते हैं जब स्वयं विकृत होते हैं ।। दूषित होने पर शरीर में अनेक तरह के विकार उत्पन्न करते हैं ।।

वैदिक वाङ्मय में त्रिदोष संबंधी निम्न मत मिलते हैं :- यथा- अथर्ववेद में वात, पित्त, कफ़ को रसादि सप्तधातुओं का निर्माणकर्ता तथा शरीरोत्पत्ति का कारण कहा गया है ।।

चरक संहिता में कहा गया है कि वात, पित्त और कफ़ ये त्रिदोष प्राणियों के शरीर में सर्वदा रहते हैं ।। शरीर के प्रकृति भूत ये त्रिदोष आरोग्य प्रदान करते हैं तथा विकृत होने पर ये विकार कहे जाते हैं । 'त्रिदोष का प्रकृतिस्थ रहना ही आरोग्य है ।। "

दोषा पुनस्त्रयो वात पित्त श्लेष्माणः ।।
ते प्रकृति भूताः शरीरोपकारका भवन्ति ।।
विकृतिमापन्नास्तु खलु नानाविधैविकरिः शरीरमुपतापयन्ति । - (च०वि०अ०१)


अर्थात्- प्राकृतावस्था में लाभकारी और विकृति आने पर शरीर में रोगोत्पत्ति दोषों के ही परिणामस्वरूप होती है ।। अर्थात् इनकी साम्यावस्था ही स्वस्थता का प्रतीक है और इसमें परिवर्तन होना विकार का कारण ।।
यथा
"रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यरोगतां ।"
अतः इन दोषों में परिवतर्न आना ही रोग का मूल कारण होता है ।। अनेक प्रकार के मिथ्याहार-विहारों के सेवन करने पर भी यदि मनुष्य की क्षमता के आधार कारण दोष का कोप न हो अथवा स्वल्प मात्रा में दोष कुपित हो, तब रोग की संभावना नहीं होती ।। इसी बात को वाग्भट्ट ने कहा है

सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः ।।
तत प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधः हितसेवनम् ।।

महर्षि सुश्रुत अपनी संहिता के सूत्र-संचालन में एक स्थान पर लिखते हैं कि

"विसगार्दानविक्षेपैः सोमसूयार्निला यथा ।। धारयन्ति जगद्देहं वात पित्त कपस्तथा ।।" (सु.सू.21)

अर्थात् जैसे वायु, सूर्य, चंद्रमा परस्पर विसर्ग आदान और विक्षेप करते हुए जगत को धारण करते हैं, उसी प्रकार वात, पित्त और कफ़ शरीर को धारण करते हैं ।। इस प्रकार शरीर में दोषों की उपयोगिता और महत्त्व इनके प्राकृत और अप्राकृतिक कर्मों के आधार पर है ।। यानि प्राकृतावस्था में शरीर का धारण तथा विकृतावस्था में विनाश ।।

वात पित्त श्लेष्मणां पुनः सवर्शरीरचराणां ।। सर्वाणि स्रोतांस्ययनभूतानि (च०वि०५/५)

"वातपित्तकफा देहे सवस्त्रोतोऽनुसारिणः"
(च०चि०२८/५९)

वात, पित्त और कफ़ का स्थान समग्र शरीर है ।। सारे ही स्रोत इनके स्रोत हैं ।। यद्यपि इनकी उत्पत्ति और संचय का एक मूल स्थान है परन्तु समग्र शरीर ही इनका स्थान है ।।

त्रिदोष का पञ्चमहाभूत से सम्बन्ध-

मानव शरीर का निर्माण पंच महाभूत से होता है ।। शरीर का एक भी अणु महाभूत का संगठन से रहित नहीं है ।। जब संपूर्ण शरीर ही पंचभौतिक है, तो शरीर में रहने वाले तथा शरीर के विभिन्न क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से सहयोग करने वाले त्रिदोष का पंचभौतिक संगठन भी स्वाभाविक है ।। तीनों दोषों में जो गुण और कर्म विद्यमान हैं, उनका आधार पंचमहाभूत ही है ।। पंच महाभूत सृष्टि के सूक्ष्म तत्त्व हैं, जिनमें संपूर्ण सृष्टि एवं सृष्टि के संपूर्ण चराचर द्रव्य प्रभावित है और उन संपूर्ण तत्त्वों में पंचमहाभूत व्याप्त हैं ।।

महाभारत में लिखा है कि- "शरीर में चेष्टाकर्म वायु का है ।। अवकाश (पोलापन) आकाश है ।। उष्णता अग्नि है ।। द्रव रूप जल है और स्थूलता पृथ्वी है ।। इस प्रकार इन पाँचों भूतों से स्थावर और जंगम अर्थात् चर और अचर जगत् व्याप्त है ।" यथा

चेष्टा वायुः खभाकाशमूष्माग्निः सलिलंद्रवम् ।। पृथिवी चात्र संघातः शरीरं पाञ्चभौतिकम् ॥
इत्येते पञ्चभिभूतेर्र्क्तं स्थावर जङ्गमम् ।

(महाभारत)

इस प्रकार संसार के समस्त द्रव्य पाँच भौतिक होते आयुर्वेद में कहा गया है ।। इसलिए

सर्वद्रव्यं पाञ्चभौतिकरमस्मिन्नर्थे ।।- (च०सू०अ०४१)
हरिःॐ। इन्दुवासर-सुप्रभातम्।

अद्यतनप्रातःकालसंस्कृतवार्ता आकाशवाणीतः।

जयतु संस्कृतम्॥
📚 श्रीमद बाल्मीकि रामायणम 📚

🔥 बालकाण्ड: 🔥
।। नवमः सर्गः ।।

🍃 कश्यपस्य तु पुत्रोऽस्ति विभण्डक इति श्रुतः।
ऋश्यशृङ्ग इति ख्यातस्तस्य पुत्रो भविष्यति॥३॥

⚜️ कश्यएपुत्र विभण्डक के ऋषि श्रृंग नामक पुत्र होंगे॥३॥

🍃 स वने नित्यसंदृद्धो मुनिर्वनचरः सदा।
नान्यं जानाति विप्रेन्द्रो नित्यं पित्रनुवर्तनात् ॥४॥

⚜️ वे वन ही में रहेंगे और सदा वन में पिता के पास रहने के कारण अन्य किसी पुरुष वा स्त्री को नहीं जान पायेंगे॥४॥


#ramayan
येनाहमिहदुर्मार्गा-।
दुध्दृत्याभिनिवेशित: ।।
सम्यक् श्रीवैष्णवे मार्गे ।
पूर्‌णप्रज्नं नमामि तम् ।।

ಯೇನಾಹಮಿಹದುರ್ಮಾರ್ಗಾ- |
ದುದ್ಥೃತ್ಯಾಭಿನಿವೇಶಿತಃ ||
ಸಮ್ಯಕ್ ಶ್ರೀವೈಷ್ಣವೇ ಮಾರ್ಗೇ |
ಪೂರ್ಣಪ್ರಜ್ಞಂ ನಮಾಮಿ ತಮ್ ||

yEnAhamihadurmArgA-/
duddhrutyAbhinivEshitah //
samyak shrIvaiShNavE mArgE /
pUrNaprajnam namAmi tam //

पदच्छेद: पदपरिचयशास्त्रं च ।

ಪದಚ್ಛೇದ ಮತ್ತು ಪದಪರಿಚಯಶಾಸ್ತ್ರ |

Word division and Etymology /

येन - दकारान्तपुल्लिङ्गस्य यद् शब्दस्य तृतियाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम् ।

अहम् - त्रिषु लिङ्गेषु समस्य दकारान्तस्य अस्मद् शब्दस्य प्रथमाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम् ।

इह - अव्ययमिदम् ।

दुर्मार्गात् - अकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य दुर्मार्ग शब्दस्य पञ्चमीविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम् ।

दुष्टं च तत् मार्गं च दुर्मार्गम् । तस्मात् ।

उद्धृत्य - उत् उपसर्गपूर्वकस्य हृञ् हरणे इति धातो: ल्यप् प्रत्ययान्तं पदमिदम् ।

अभिनिवेशित: - अकारान्तपुल्लिङ्गस्य अभिनिवेशित शब्दस्य प्रथमाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम् ।

अभि च नि उपसर्गै: पूर्वकस्य विश प्रवेशे इति धातो: तप् पुल्लिङ्गप्रत्ययपदमिदम् ।

सम्यक् - अव्ययमिदम् ‍।

श्रीवैष्णवे - अकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य श्रीवैष्णव शब्दस्य सप्तमीविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम् ।

विष्णो: इदं वैष्णवम् । श्री: च असौ वैष्णव: च श्रीवैष्णव: । तस्मिन् ।

मार्गे - अकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य मार्ग शब्दस्य सप्तमीविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम् ।

पूर्णप्रज्नम् - अकारान्तपुल्लिङ्गस्य पूर्णप्रज्न शब्दस्य द्वितियाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम् ।

पूर्णा प्रज्ना यस्य स: पूर्णप्रज्न: । तम् ।

नमामि - णमु प्रह्वीभावे इति धातो: सकर्मकस्य कर्तरीप्रयोगस्य परस्मैपदिन: वर्तमानकालस्य लट् लकारस्य उत्तमपुरुषस्य एकवचनान्तं क्रियापदमिदम् ।।

तम् - दकारान्तपुल्लिङ्गस्य तद् शब्दस्य द्वितियाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम् ।

अन्वय: -

येन अहं इह दुर्मार्गात् सम्यक् उद्धृत्य श्रीवैष्णवे मार्गे अभिनिवेशित:, तं पूर्णप्रज्नं नमामि ।

ಯೇನ - ಯಾವ ಶ್ರೀಮದಾಚಾರ್ಯರಿಂದ

ಅಹಮ್ - ನಾನು

ಇಹ - ಈ ಲೋಕದ

ದುರ್ಮಾರ್ಗಾತ್ - ಕೆಟ್ಟ ಅಭಿಪ್ರಾಯಗಳನ್ನು ಅನುಸರಿಸಲು ಪ್ರೇರೇಪಿಸುವ ಮಾರ್ಗದಿಂದ

ಸಮ್ಯಕ್ - ಚೆನ್ನಾಗಿ

ಉದ್ಧೃತ್ಯ - ಎತ್ತಲ್ಪಟ್ಟು

ಶ್ರೀವೈಷ್ಣವೇ - ಜ್ಞಾನಭರಿತವಾದ ವಿಷ್ಣುವಿನ ಧರ್ಮವಾದ

ಮಾರ್ಗೇ - ವೈಷ್ಣವಧರ್ಮದಲ್ಲಿ

ಅಭಿನಿವೇಶಿತಃ - ಮರಳಿ ಸಂಸ್ಥಾಪಿಸಲ್ಪಟ್ಟೆನೋ

ತಮ್ - ಅಂತಹ

ಪೂರ್ಣಪ್ರಜ್ಞಮ್ - ಪರಿಪೂರ್ಣಮತಿಯುಳ್ಳ ಆನಂದತೀರ್ಥರೆಂಬ ಪ್ರಮತಿಗಳನ್ನು

ನಮಾಮಿ - ನಮಸ್ಕರಿಸುತ್ತೇನೆ.

ಭಾವಾನುವಾದ -

ಭೂಲೋಕವು ಸತ್ವ ರಜ ಮತ್ತು ತಮೋಗುಣಗಳಿಂದ ಕೂಡಿದೆ ಎಂಬುದು ಸರ್ವವಿದಿತ. ಕೃತ, ತ್ರೇತಾ ಮತ್ತು ದ್ವಾಪರ ಯುಗಗಳಲ್ಲಿ ಭಗವಂತನ ನೇರವಾದ ಅವತಾರಗಳಾಗಿವೆ. ಆದರೆ ಭಗವಂತನು ಕಲಿಯುಗದ ಕೊನೆಗೆ ಅವತಾರಮಾಡಿ ಧರ್ಮವನ್ನು ಪುನಸ್ಥಾಪಿಸಲು ಕಲ್ಕಿಯ ಅವತಾರವನ್ನು ಮಾಡುವವನಾದ್ದರಿಂದ ಕಲಿ ಎಂಬ ಯುಗಪುರುಷನ ಪ್ರಭಾವವು ಹುಲುಮಾನವರಾದ ನಮ್ಮ ಮೇಲಾಗುವುದು ಸಾಮಾನ್ಯವೇ. ಆದ್ದರಿಂದ ಸಜ್ಜನವೃಂದವಾದ ಶ್ರೀಮನ್ಮಹಾವಿಷ್ಣುವಿನ ಭಕ್ತವೃಂದಕ್ಕ ಮೋಕ್ಷದ ದಾರಿಯು ಜಗತ್ತಿನಲ್ಲಿ ತಾಂಡವನೃತ್ಯ ಮಾಡುತ್ತಿರುವ ತಮೋಗುಣಪ್ರಾಬಲ್ಯಗಳಿಂದ ಕೂಡಿದ ಅಭಿಪ್ರಾಯಗಳಿಂದ ಕಳೆದುಹೋಗದಿರಲಿ ಎಂದು ಸಕಲಲೋಕಗಳೊಡೆಯನಾದ ಶ್ರೀಮನ್ಮಹಾವಿಷ್ಣುವು ವಾಯುದೇವರಾದ, ಭಾವಿ ಬ್ರಹ್ಮರಾದ ಶ್ರೀಮದಾನಂದತೀರ್ಥರಾದ ಶ್ರೀಮನ್ಮಧ್ವಾಚಾರ್ಯರಿಗೆ ಕಲಿಯಪ್ರಾಬಲ್ಯವು ಸದ್ಭಕ್ತರ ಮನವನ್ನು ಸನ್ಮಾರ್ಗದಿಂದ ವಂಚಿಸದಿರಲೆಂದು ಹಾಗೂ ಎಲ್ಲ ಸಜ್ಜನರಿಗೂ ವಿಷ್ಣುಸರ್ವೋತ್ತಮತ್ವವನ್ನು ತಿಳಿಸಲು ಹಾಗೆಯೇ ತ್ರಿಗುಣಾತ್ಮಕವಾದ ವಸುಂಧರೆಯಲ್ಲಿ ಕೇವಲ ಸತ್ವಗುಣಗಳನ್ನು ಪಡೆದು ಬದುಕುವ ಸನ್ಮಾರ್ಗವನ್ನು ಬೋಧಿಸಲು ಭೂಲೋಕದಲ್ಲಿ ಆವಿರ್ಭವಿಸಲು ಆಜ್ಞಾಪಿಸಿದ್ದಾನೆ.

ಇಂತಹ ತಮೋಗುಣಪ್ರಾಬಲ್ಯವಿರುವ ದುರ್ಮತಗಳ ಮೋಹಕ್ಕೆ ಸಿಕ್ಕು ಮೋಕ್ಷವೆಂಬ ಮಾರ್ಗದಿಂದ ವಂಚಿತವಾಗುತ್ತಿರುವ ನನ್ನನ್ನು ಚೆನ್ನಾಗಿ ಉದ್ಧರಿಸಿ ಕೇವಲ ಸತ್ವಜ್ಞಾನದಿಂದ ಕೂಡಿದ ಅಭಿಪ್ರಾಯಗಳನ್ನುಳ್ಳ ಮತ್ತು ಮೋಕ್ಷವನ್ನು ಗಳಿಸಲು ಮಾರ್ಗವನ್ನು ತೋರಿಸುವ ವೈಷ್ಣವಧರ್ಮದಲ್ಲಿ ಚಲಿಸುವಂತೇ ಪ್ರೇರೇಪಿಸಿದ ಶ್ರೀಮದಾನಂದತೀರ್ಥಯತಿಕುಲತಿಲಕರಿಗೆ ನಾನು ನಮಸ್ಕರಿಸುತ್ತೇನೆ.
अम्लानहृष्यदवनीतलकीर्णपुष्पौ ।
श्रीवेङ्कटाद्रिशिखराभरणायमानौ ।।
आनन्दिताखिलमनोनयनौ तवैतौ ।
श्रीवेङ्कटेशचरणौ शरणं प्रपद्ये ।।

ಅಮ್ಲಾನಹೃಷ್ಯದವನೀತಲಕೀರ್ಣಪುಷ್ಪೌ |
ಶ್ರೀವೇಂಕಟಾದ್ರಿಶಿಖರಾಭರಣಾಯಮಾನೌ ||
ಆನಂದಿತಾಖಿಲಮನೋನಯನೌ ತವೈತೌ |
ಶ್ರೀವೇಂಕಟೇಶಚರಣೌ ಶರಣಂ ಪ್ರಪದ್ಯೇ ||

amlAnahruShyadavanItalakIrNapuShpou /
shrIvEnkaTAdrishikharAbharaNAyamAnou //
AnanditAkhilamanOnayanou tavaitou /
shrIvEnkaTEshacharaNou sharaNam prapadyE //

पदच्छेदः पदपरिचयशास्त्रं च ।

ಪದಚ್ಛೇದ ಮತ್ತು ಪದಪರಿಚಯಶಾಸ್ತ್ರ

WORD DIVISION AND ETYMOLOGY:

अस्मिन् श्लोके निम्नलिखितानि पदानि पुल्लिङ्गे, द्वितियाविभक्तौ द्विवचने च सन्ति । अतः तेषां अन्तवर्णानां परिचयं दत्वा समासवाक्यनिरूपणं कृतम् ।।

ಈ ಶ್ಲೋಕದಲ್ಲಿರುವ ಕೆಳಗಿನ ಪದಗಳು ಪುಲ್ಲಿಂಗದಲ್ಲಿ, ದ್ವಿತಿಯಾವಿಭಕ್ತಿಯಲ್ಲಿ ಮತ್ತು ದ್ವಿವಚನದಲ್ಲಿವೆ. ಆದ್ದರಿಂದ ಆ ಪದಗಳ ಅಂತ್ಯವರ್ಣದ ಪರಿಚಯದೊಂದಿಗೆ ಸಮಾಸನಿರೂಪಣೆಯನ್ನು ಮಾಡಲಾಗಿದೆ.

The words written below adopted from the above verse are in masculine gender, dual number and are in objective case. Hence their end letter and the introduction of complex sentence has been given below.

अम्लानहृष्यदवनीतलकीर्णपुष्पौ - अकारान्तः ।

न म्लानं अम्लानम् ।

अवन्याः तलं अवनीतलम् ।

अवनीतले कीर्णौ अवनीतलकीर्णौ ।

अम्लानौ च हृष्यदौ च अवनीतलकीर्णौ च तौ पुष्पौ च अम्लानहृष्यदवनीतलकीर्णपुष्पौ ।

श्रीवेङ्कटाद्रिशिखराभरणायमानौ - अकारान्तः ।

वें कटयते इति वेङ्कटः । वेङ्कटः इति अद्रिः वेङ्कटाद्रिः । श्रीमान् च असौ वेङ्कटाद्रिः च श्रीवेङ्कटाद्रिः । श्रीवेङ्कटाद्रेः शिखरं श्रीवेङ्कटाद्रिशिखरम् ।
श्रीवेङ्कटाद्रिशिखरस्य आभरणौ इव आचरतः इति श्रीवेङ्कटाद्रिशिखराभरणायमानौ ।

आनन्दिताखिलमनोनयनौ - अकारान्तः ।

मनांसि च नयनानि च मनोनयनानि ।

अखिलानां मनोनयनानि अखिलमनोनयनानि ।

आनन्दितानि अखिलमनोनयनानि याभ्याः तौ आनन्दिताखिलमनोनयनौ ।

एतौ - दकारान्तः ।

श्रीवेङ्कटेशचरणौ - अकारान्तः ।

वें कटयते इति वेङ्कटः ।
वेङ्कटानां ईशः वेङ्कटेशः ।
श्रीमान् च असौ वेङ्कटेशः च श्रीवेङ्कटेशः।
श्रीवेङ्कटेशस्य चरणौ श्रीवेङ्कटेशचरणौ ।

अधुना श्लोकवर्तीनां अन्यपदानां परिचयं लिखितम् ।

ಈಗ ಶ್ಲೋಕದಲ್ಲಿರುವ ಉಳಿದಪದಗಳ ಪರಿಚಯವು ಬರೆಯಲ್ಪಟ್ಚಿದೆ.

Now the introduction of remaining words of above verse is given below.

तव - त्रिषुलिङ्गेषु समस्य दकारान्तस्य युष्मद् शब्दस्य षष्ठीविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम् ।

शरणम् - अकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य शरण शब्दस्य द्वितियाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम् ।

प्रपद्ये - प्र इति उपसर्गपूर्वकस्य पद गतौ इति धातोः द्विकर्मकस्य कर्तरीप्रयोगस्य आत्मनेपदिनः वर्तमानकालस्य लट् लकारस्य उत्तमपुरुषस्य एकवचनान्तं क्रियापदमिदम् ।

अन्वयः (संस्कृतवाक्यरचनापद्धतिः)

अहं अम्लानहृष्यदवनीतलकीर्णपुष्पौ श्रीवेङ्कटाद्रिशिखराभरणायमानौ आनन्दिताखिलमनोनयनौ तव एतौ श्रीवेङ्कटेशचरणौ शरणं प्रपद्ये ।

हिंदी में अनुवाद एवं प्रतिपदार्थ:

अहम् - मैं

अम्लान - सदा खिलनेवाले

हृष्यत् - मनमोहनेवाले

अवनीतल - भूमी की सतह पर

कीर्ण - बिछे हुए

पुष्पौ - फूल के समान कोमल

श्री - कांती से भरे (हरियाली से भरे)

वेङ्कट - पापों का नाश करनेवाला

अद्रि - पर्वत के

शिखर - शिखर या अग्रभाग पर

आभरणायमानौ - आभरण के रूप में सजे हुए

आनन्दित - संतोष किये हुए

अखिल - समस्त जीवियों के

मनोनयनौ - मन और नयन वाले

तव - आप के

एतौ - ये

श्री - कान्ती से भरे

वेङ्कट - पापों के नाश करने में

ईश - समर्थ

चरणौ - चरणों के प्रति

शरणम् प्रपद्ये - आश्रय लेता हूँ ।

13 वीं शती के सुप्रसिद्ध श्रीवैष्णवधर्म के श्रीअण्णंगराचार्य नाम के कवि के करकमलों से विरचित "श्रीवेङ्कटेशप्रपत्तिः" नाम की स्तुती का एक श्लोक यहाँ पर अनुवादित है ।

इस स्तुती में श्रीमन्महाविष्णु जी के श्रीवेंकटेश जी के चरणों का वर्णन किया गया है । मन को मोह लेनेवाले शब्दों का सही तरह से जोडना, उत्तम सुप्रभातकाव्यों में उपयोग होनेवाली "वसंततिलका" नाम के छंद का उपयोग, तथा चरणों को प्रसिद्धवस्तुओं का उपमान दे कर भक्तों के हृदय में भक्ति जगाने में यह स्तुती बहुत ही सही तरीके से और सात्विक तरीके से उत्तीर्ण हुई है । ऐसे श्लोक संस्कृतभाषा में ही मिलेंगे, अन्य कोई भाषा में ऐसे श्लोक या काव्यों की रचना बहुत ही कठिन है ।

इस श्लोक में प्रतिवादिभयंकर श्रीअण्णंगराचार्य जी श्रीवेंकटेशजी के चरणों का गुणगान करते हुए कहा है कि यह चरण सदा विकसितपुष्प के समान हैं । विकसितपुष्प जैसे मन को मोह लेती हैं, वैसे ही ये पुष्प जो धरती पर अर्थात् वेंकट नाम के पर्वत के चोटी पर आभरण के रूप में प्रकाशित हो रहें हैं और वहीं पर बिछे हुए हैं । अर्थात् ये चरण अपनी सुंदरता से भक्तों के मन को मोह लेते हैं और उन भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं । केवल आकर्षित ही नहीं, अपि तु सभी
जीवों के मन और नयनों को आनंदित भी करते हैं । यहाँ पर किवर्य कहते हैं, ऐसे श्रीवेंकटेश जी के चरणों का मैं शरण लेता हूँ ।

जीव को देव के बारे में जानना चाहिये । संसार की रचना देव ने इसीलिये बनाया है कि जीव इस संसार में रह कर भगवान या देव के गुणों का, उन के रूप का, उन के चरित्र का गुणगान कर के उन से मोक्ष की प्रार्थना करते इस धरती पर दिन बिताते चलें । ऐसे करने पर ही जीव को भगवान के लोक में जाने की तथा वहाँ पर देव को देखकर उन की प्रत्यक्ष सेवा करने का अवसर जीव को प्राप्त होता है । इस से उस जीव के पुण्य में वृद्धि हो कर भगवान के चरणों में सेवा करने का अवसर सदा के लिये प्राप्त कर लेता है । इस पुण्य को कमाने के लिये या निरंतर देव की सेवा करने के लिये जीव को ऐसे श्लोकों का मनन, पारायण, अर्थानुसंधान, पाठ, पठन करना चाहिये । ऐसे करने से मन में चरणों के निरंतर दर्शन बनेंगे । इस से जीव की प्राकृतिक मस्तिष्क में भगवान के चरणों का स्मरण विनाश नहीं होता ।

ॐ नमो भगवते हयाननाय ।।

ಅನ್ವಯ: (ಸಂಸ್ಕೃತವಾಕ್ಯರಚನಾಪದ್ಧತಿ)

ಅಹಮ್ - ನಾನು

ಅಮ್ಲಾನ - ಬಾಡದಿರುವ

ಹೃಷ್ಯತ್ - ಮನೋಹರವಾದ

ಅವನೀತಲ - ಭೂತಲದಲ್ಲಿ

ಕೀರ್ಣ - ಹರಡಿಕೊಂಡಿರುವ

ಪುಷ್ಪೌ - ಹೂಗಳಂತಿರುವ

ಶ್ರೀ - ಹಸಿರಿನ ಕಾಂತಿಯಿಂದ

ವೇಂ - ಪಾಪವನ್ನು

ಕಟ - ನಾಶಮಾಡುವ

ಅದ್ರಿ - ಪರ್ವತವಾದ ವೇಂಕಟಗಿರಿಯ

ಶಿಖರ - ತುದಿಗೆ

ಆಭರಣಾಯಮಾನೌ - ಆಭರಣದಂತೇ ಇರುವ

ಆನಂದಿತ - ಸಂತೋಷಗೊಳಿಸಲ್ಪಟ್ಚ

ಅಖಿಲ - ಸಮಸ್ತ ಜೀವಿಗಳ

ಮನಃ - ಮನಸ್ಸುಗಳನ್ನೂ ಮತ್ತು

ನಯನೌ - ಕಣ್ಣುಗಳನ್ನೂ ಉಳ್ಳ

ತವ - ನಿಮ್ಮ

ಏತೌ - ಈ

ಶ್ರೀ - ಕಾಂತಿಸಂಪನ್ನವಾದ

ವೇಮ್ - ಪಾಪಗಳನ್ನು

ಕಟ - ನಾಶಮಾಡುವ ದೇವತೆಗಳಿಗೆ

ಈಶ - ಒಡೆಯರಾದ ಶ್ರೀವೇಂಕಟೇಶದೇವರ

ಚರಣೌ - ಚರಣಗಳನ್ನು ಕುರಿತು

ಶರಣಮ್ - ಶರಣು ಅಥವಾ ಆಶ್ರಯವನ್ನು

ಪ್ರಪದ್ಯೇ - ಹೊಂದುತ್ತೇನೆ.

ವಿವರಣೆ:

13 ನೇ ಶತಮಾನದ ಪ್ರಸಿದ್ಧ ಕವಿತಾರ್ಕಿಕಕೇಸರೀ ಎಂಬ ಬಿರುದಾಂಕಿತರಾದ ಶ್ರೀ ವೇದಾಂತದೇಶಿಕರ ಶಿಷ್ಯರಾದ ಶ್ರೀ ಅಣ್ಣಂಗರಾಚಾರ್ಯರೆಂಬ ಕವಿಪಂಡಿತರ ಕರಕಮಲಗಳಿಂದ ವಿರಚಿತವಾದ "ಶ್ರೀವೇಂಕಟೇಶಪ್ರಪತ್ತಿ" ಎಂಬ ಸ್ತೋತ್ರಕಾವ್ಯದ ಶ್ಲೋಕವೊಂದನ್ನು ಪ್ರತಿದಾರ್ಥಸಹಿತವಾಗಿ ಇಲ್ಲಿ ವಿವರಿಸಲು ಪ್ರಯತ್ನಿಸಲಾಗಿದೆ.

ತ್ರಿಗುಣಾತ್ಮಕವಾದ ಈ ಲೋಕದಲ್ಲಿ ಕಲಿಗಾಲವಾದ ಈ ಸಮಯದಲ್ಲಿ ತಮೋಗುಣಗಳಿಂದ ಜೀವಿಗಳ ಬುದ್ಧಿಯು ಮಂದವಾಗಿ ಭಗವಂತನ ಪಾದಸ್ಮರಣೆಯು ಇಲ್ಲದಂತಾಗಿ ಜೀವಿಗಳಿಗೆ ಮೋಕ್ಷದ ಹಾದಿಯು ಮುಚ್ಚಿಹೋಗುತ್ತದೆ. ಇಂತಹ ಅನಾಹುತಗಳನ್ನು ತಪ್ಪಿಸಲು ಕಾಲಕಾಲಕ್ಕೆ ಭಗವದ್ಭಕ್ತರು ಜೀವಿಗಳ ಉದ್ಧಾರಕ್ಕಾಗಿ ಇಂತಹ ಶ್ಲೋಕಗಳನ್ನು ರಚಿಸಿ ಭಗವಂತನ ಪಾದಸ್ಮರಣೆಯು ಸತತವಾಗಿ ಜೀವಿಗಳ ನೆನಪಿನಲ್ಲಿ ಉಳಿಯುವಂತೇ ಮಾಡುತ್ತಾರೆ. ಈ ಶ್ಲೋಕದಲ್ಲಿ ಕವಿವರ್ಯರು ಈ ರೀತಿ ಭಗವಂತನ ಪಾದಗಳನ್ನು ವರ್ಣಿಸಿದ್ದಾರೆ.

ಯಾವಾಗಲೂ ಅರಳಿರುವ ಅಥವಾ ಬಾಡದೇ ಇರುವ ಎಲ್ಲರ ಮನವನ್ನೂ ಸೆಳೆಯುವ, ಭೂಮಿಯ ಮೇಲೆ ಹರಡಿರುವ, ಶ್ರೀವೇಂಕಟವೆಂಬ ಪರ್ವತದ ಶಿಖರಕ್ಕೆ ಅಲಂಕಾರಪ್ರಾಯಗಳಾದ, ನೋಡುವ ಭಕ್ತಜೀವರ ಮನಸ್ಸಿಗೂ ಹಾಗೂ ಕಣ್ಣುಗಳಿಗೂ ಆನಂದವನ್ನು ಕೊಡುವ ಪಾಪಗಳನ್ನು ಕಳೆಯುವ ದೇವತೆಗಳಿಗೆ ಒಡೆಯರಾದ ಶ್ರೀವೇಂಕಟೇಶದೇವರ ಈ ನಿಮ್ಮ ಪಾದಗಳನ್ನು ಕುರಿತು ನಾನು ಶರಣುಹೋಗುತ್ತೇನೆ.

ಸುಂದರವೂ, ಪ್ರಾತಃಕಾಲದಲ್ಲಿ ಉಚ್ಚಾರಣೆಮಾಡಲು ಯೋಗ್ಯವೂ ಆದ "ವಸಂತತಿಲಕಾ" ಎಂಬ ಛಂದಸ್ಸಿನಲ್ಲಿ ಪ್ರಕೃತಶ್ಲೋಕವು ಕವಿವರ್ಯರಿಂದ ವಿರಚಿತವಾಗಿದೆ. ಈ ಶ್ಲೋಕದಲ್ಲಿ ಭಗವಂತನ ಪಾದಗಳನ್ನು ವರ್ಣಿಸಿದ ಉದ್ದೇಶವು ಜೀವಿಗಳ ಮುಕ್ತಿಯಾಗಿದೆ. ಭಗವಂತನ ಸ್ಥಳವಾದ ಶಾಶ್ವತವೈಕುಂಠದಿಂದ ಬೇರ್ಪಟ್ಟ ಜೀವಿಗಳ ಉದ್ಧಾರಕ್ಕೋಸ್ಕರವಾಗಿ ಭಗವಂತನು ಅನೇಕಕೋಟಿ ಬ್ರಹ್ಮಾಂಡಗಳನ್ನೂ, ಲೋಕಗಳನ್ನೂ ಸೃಷ್ಟಿಸಿ ವಿವಿಧ ಬಗೆಯ ಜೀವರುಗಳನ್ನು ಅವರವರ ಪುಣ್ಯದ ಯೋಗ್ಯತೆಗೆ ತಕ್ಕಂತೇ ಬೇರೆ ಬೇರೆ ಲೋಕಗಳಲ್ಲಿ ಜನಿಸುವಂತೇ ಮಾಡಿ ಆಯಾ ಜೀವಿಗಳ ಧಾರ್ಮಿಕಾಭಿವೃದ್ಧಿಗಾಗಿ ಬುಧ್ಯಾದಿ ಇಂದ್ರಿಯಗಳನ್ನು ಕೊಟ್ಟಿರುತ್ತಾನೆ. ಇದರ ಸದುಪಯೋಗ ಮಾಡಿಕೊಂಡು ಆ ಭಗವಂತನ ಪಾದಗಳ ಮನನ ಮಾಡಿ ಈ ತ್ರಿಗುಣಾತ್ಮಕಲೋಕದಿಂದ ಬಿಡುಗಡೆ ಹೊಂದಿ ಶಾಶ್ವತವಾಗಿ ಆ ಭಗವಂತನ ಲೋಕದಲ್ಲಿ ಆತನ ಸನ್ನಿಧಿಯಲ್ಲಿ ಸೇವಾರತನಾಗಿರುವುದೇ ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಜೀವಿಯ ಮೂಲೋದ್ದೇಶವಾಗಿದೆ.

ಇಂತಹ ಮೂಲೋದ್ದೇಶದ ಪೂರೈಕೆಗಾಗಿ ಕಾಲಕಾಲಕ್ಕೆ ಭಗವಂತನ ಪಾದಸ್ಮರಣೆಯು ಅವಶ್ಯವೆಂದು ತಿಳಿದ ಇಂತಹ ಮಹಾನುಭಾವರು ಇದೇ ಲೋಕದಲ್ಲಿರುವ ಬೇರೇ ಬೇರೇ ಸುಂದರವಸ್ತುಗಳ ಜೊತೆಗೆ ಭಗವಂತನ ಪಾದಗಳನ್ನು ಹೋಲಿಸಿ ನಮಗೆ ತಿಳಿಸಿಕೊಟ್ಟು ನಮ್ಮ ಜೀವನದ ಮುಕ್ತಿಗೆ ಕಾರಣರಾಗುತ್ತಾರೆ.

ಓಂ ನಮೋ ಭಗವತೇ ಹಯಾನನಾಯ ||
भवद्विरुद्धोत्थकुदृष्टिरस्ति या ।
तां दृष्टिमाशु प्रविनश्य श्वसिमः ।।
भवत्क्षमाक्रान्तं च यच्छत्रुपादं ।
तत्पादचिन्हं हि प्रविनाशयामः ।।

अर्थः-

तेरी जानिब उठी जो कहर की नज़र ।
उस कहर को मिटा के ही दम लेंगे हम ।।
तेरी धरती पे है जो क़दम ग़ैर की ।
उस क़दम के निशान तक मिटा देंगे हम ।।

मूल:- शहीद हिंदी मूवी
कवि:- श्री प्रेम धवन
संगीत:- श्री प्रेम धवन
गायक:- श्री मोहम्मद रफी
संस्कृतानुवाद:- संजीवकुमार नरेगल्
छंद:- हर पाद में 12 अक्षर युक्त "वंशस्थविल"

ಭವದ್ವಿರುದ್ಧೋತ್ಥಕುದೃಷ್ಚಿರಸ್ತಿ ಯಾ |
ತಾಂ ದೃಷ್ಟಿಮಾಶು ಪ್ರವಿನಶ್ಯ ಶ್ವಸಿಮಃ ||
ಭವತ್ಕ್ಷಮಾಕ್ರಾಂತಂ ಚ ಯಚ್ಛತ್ರುಪಾದಂ |
ತತ್ಪಾದಚಿನ್ಹಂ ಹಿ ಪ್ರವಿನಾಶಯಾಮಃ ||

ಅರ್ಥಃ-

ನಿನ್ನ ವಿರುದ್ಧ ಏಳುವ ಕುದೃಷ್ಚಿಯ |
ಬಗ್ಗಿಸಿಯೇ ನಾವು ಉಸಿರಾಡುತ್ತೇವೆ ||
ನಿನ್ನ ಭೂಮಿಯ ಮೇಲಿರುವ ವೈರಿಯ |
ಪಾದಚಿನ್ಹೆಯನ್ನೇ ನಾವಳಿಸುತ್ತೇವೆ ||

ಮೂಲ:- ಶಹೀದ್ ಹಿಂದೀ ಚಲನಚಿತ್ರ
ಕವಿ:- ಶ್ರೀ ಪ್ರೇಮ್ ಧವನ್
ಸಂಗೀತ:- ಶ್ರೀ ಪ್ರೇಮ್ ಧವನ್
ಗಾಯನ:- ಶ್ರೀ ಮೊಹಮ್ಮದ್ ರಫಿ.
ಸಂಸ್ಕೃತಾನುವಾದ:- ಸಂಜೀವಕುಮಾರ ನರೇಗಲ್
ಕನ್ನಡಾನುವಾದ:- ಸಂಜೀವಕುಮಾರ ನರೇಗಲ್
ಛಂದಸ್ಸು:- ವಂಶಸ್ಥವಿಲಃ ಪ್ರತಿ ಪಾದದಲ್ಲಿ 12 ಅಕ್ಷರಗಳನ್ನು ಜೋಡಿಸಲಾಗಿದೆ.

bhavadwiruddhOtthakudruShTirasti yA |
tAm druShTimAshu pravinashya shwasimah ||
bhavatkShamAkrAntam cha yachchhatrupAdam |
tatpAdachinham hi pravinAshayAmah ||

MEANING:-

O the mother land, we breathe only after melting down the bad eyesight of your foes. We eradicate even their footprint on your land.

MOVIE:- SHAHEED
LYRICS:- PREM DHAVAN
MUSIC:- PREM DHAVAN
SINGER:- MD. RAFI
SANSKRIT & KANNADA TRANSLATOR:- SANJEEVKUMAR GN
METRE:- 12 Syllabled in every quarter, the VAMSHASTHAVILAH.
हितोपदेशः - HITOPADESHAH

यो नात्मजे न च गुरौ न च भृत्यवर्गे
दीने दयां न कुरुते न च बन्धुवर्गे ।।
किं तस्य जीवितफलेन मनुष्यलोके
काकोऽपि जीवति चिराय बलिं च भुङ्क्ते ।। 288/041

अर्थः:

जो व्यक्ति इस मनुष्यलोक में अपने पुत्र, गुरु, सेवक, निर्धनों तथा बंधु वर्ग में दया नहीं करता है, उसका जीवित रहने से क्या लाभ है? कौआ भी बहुत काल तक जीवन बिताता है और भोजन करता है।

MEANING:

A person who shows no compassion to his son, guru, servants, the poor, or his relatives, what is the use of his life in this human world? Even a crow lives long and consumes food.

ॐ नमो भगवते हयास्याय।

©Sanju GN #Subhashitam