संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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हसेम हासयेम

माता। हे पुत्र पूजार्थं फलमानय।
पुत्र। अस्तु।
माता। धनं स्वीकृत्य गच्छ।
पुत्र। कति फलानि आनयानि।
माता। फलद्वयं क्रीत्वा आनय।
पुत्र। आपणं गत्वा फलद्वयं क्रीत्वा गृहं प्रति आगच्छति। मार्गे एकं खादित्वा एकं फलम् एव आनयति।
पुत्र। मातः फलं स्वीकुरु।
माता। एकमेव अस्ति। द्वितीयं फलम्।
पुत्र। तदेव एतत्।
माता। रे सम्यक् वद। एकं फलम् अत्र अस्ति। द्वितीयं कुत्र।
पुत्र। अम्ब एतदेव तत्। कतिवारम् अपि पृच्छेः। चिन्ता मास्तु। तदेव एतत्।

#hasya
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http://sanskritize.com/index.php/2021-02-15-07-47-28/15-sanskrit/27-chandamama-stories
🙏 वेदवाणी 🙏
अनुवाद महात्मा ज्ञानेन्द्र अवाना जी द्वारा, प्रचारित आर्य जितेंद्र भाटिया द्वारा🙏🌼

नहि ष्मा ते शतं चन राधो वरन्त आमुरः।
न च्यौत्नानि करिष्यतः॥ ऋग्वेद ४-३१-९॥🙏🌼

परमेश्वर सैकड़ों प्रकार का धन देता है। दुष्ट हिंसक वृत्ति के मनुष्य उसको प्राप्त नहीं कर सकते। जब परमेश्वर ऐसे दुष्टों का संहार करता है तो उसे भी यह रोक नहीं सकते।🙏🌼

God gives hundreds of kinds of wealth to its people. Human beings of evil and violent nature cannot receive it. When God destroys such wicked people, they cannot stop Him. (Rig Veda 4-31-9)🙏🌼


अस्माँ अवन्तु ते शतमस्मान्सहस्रमूतयः।
अस्मान्विश्वा अभिष्टयः॥ ऋग्वेद ४-३१-१०॥🙏🏵️

परमेश्वर सैकड़ों प्रकार से सुरक्षा प्रदान करता है।
हे प्रभू ! आप हमारी भी रक्षा करें।🙏🏵️

God provides protection by hundreds of ways. O God ! We pray You to protect us also. (Rig Veda 4- 31 -10)🙏🏵️

दभ्रेभिश्चिच्छशीयांसं हंसि व्राधन्तमोजसा।
सखिभिर्ये त्वे सचा॥ ऋग्वेद ४-३२-३॥🙏🌻

परमेश्वर के नियमों पर चलने वाला उसका मित्र होता है। ऐसे व्यक्ति भले ही संख्या में कम हो तो भी संख्या में बहुत अधिक और अति शक्तिशाली दुष्टों का नाश कर देते हैं।🙏🌻

The people who follow the laws of God are friends of God. Even if such people are small in number, they destroy large numbers and very powerful evil doers. (Rig Veda 4-32-3)🙏🌻
_[विस्तृत]_
मोहित डोकानिया:-


धर्म क्या है?
विद्वानों का मत है कि धर्म वह है जो हमें आदर्श जीवन जीने की कला और मार्ग बताता है। केवल पूजा-पाठ या कर्मकांड ही धर्म नहीं है। धर्म मानव जीवन को एक दिशा देता है। विभिन्न पंथों, मतों और संप्रदायों द्वारा जो नियम, मनुष्य को अच्छे जीवन यापन, जिसमें सबके लिए प्रेम, करूणा, अहिंसा, क्षमा और अपनत्व का भाव हो, ऐसे सभी नियम धर्म के तहत माने गए हैं।

वेदों के अनुसार
वेदों एवं शास्त्रों के मुताबिक धर्म में उत्तम आचरण के निश्चित और व्यवहारिक नियम है -

1. ''आ प्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा श्लोकं देव: कृणुते स्वाय धर्मणे। (ऋग्वेद - 4.5.3.3)
''धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेते असुरस्य मायया।
(ऋग्वेद - 5.63.7)
यहाँ पर 'धर्म' का अर्थ निश्चित नियम (व्यवस्था या सिद्धान्त) या आचार नियम है

*धर्म की परिभाषा*
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥

धर्म शब्द संस्कृत की 'धृ' धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलंबन देना, पालन करना। इस प्रकार धर्म का स्पष्ट शब्दों में अर्थ है :
धारण करने योग्य आचरण धर्म है। सही और गलत की पहचान कराकर प्राणिमात्र को सदमार्ग पर चलने के लिए अग्रसर करे, वह धर्म है। जो हमारे जीवन में अनुशासन लाये वह धर्म है। आदर्श अनुशासन वह जिसमें व्यक्ति की विचारधारा और जीवनशैली सकारात्मक हो जाती है। जब तक किसी भी व्यक्ति की सोच सकारात्मक नहीं होगी, धर्म उसे प्राप्त नहीं हो सकता है।
वास्तव में, धर्म ही मनुष्य की शक्ति है, धर्म ही मनुष्य का सच्चा शिक्षक है। धर्म के बिना मनुष्य अधूरा है, अपूर्ण है।


मनुस्मृति के अनुसार
धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९२)
अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )।

1. धैर्य : धन संपत्ति, यश एवं वैभव आदि का नाश होने पर धीरज बनाए रखना तथा कोई कष्ट, कठिनाई या रूकावट आने पर निराश न होना।

2. क्षमा : दूसरो के दुव्र्यवहार और अपराध को लेना तथा क्रोश न करते हुए बदले की भावना न रखना ही क्षमा है।

3. दम : मन की स्वच्छंदता को रोकना। बुराइयों के वातावरण में तथा कुसंगति में भी अपने आप को पवित्र बनाए रखना एवं मन को मनमानी करने से रोकना ही दम है।

4. अस्तेय : अपरिग्रह- किसी अन्य की वस्तु या अमानत को पाने की चाह न रखना। अन्याय से किसी के धन, संपत्ति और अधिकार का हरण न करना ही अस्तेय है।

5. पवित्रता (शौच) : शरीर को बाहर और भीतर से पूर्णत: पवित्र रखना, आहार और विहार में पूरी शुद्धता एवं पवित्रता का ध्यान रखना।

6. इन्द्रिय निग्रह : पांचों इंद्रियों को सांसारिक विषय वासनाओं एवं सुख-भोगों में डूबने, प्रवृत्त होने या आसक्त होने से रोकना ही इंद्रिय निगह है।

7. धी : भलीभांति समझना। शास्त्रों के गूढ़-गंभीर अर्थ को समझना आत्मनिष्ठ बुद्धि को प्राप्त करना। प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना।

8. विद्या : आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान, जीवन के रहस्य और उद्देश्य को समझना। जीवन जीते की सच्ची कला ही विद्या है।

9. सत्य : मन, कर्म, वचन से पूर्णत: सत्य का आचरण करना। अवास्तविक, परिवर्तित एवं बदले हुए रूप में किसी, बात, घटना या प्रसंग का वर्णन करना या बोलना ही सत्याचरण है।

10. आक्रोध : दुव्र्यवहार एवं दुराचार के लिए किसी को माफ करने पर भी यदि उसका व्यवहार न बदले तब भी क्रोध न करना। अपनी इच्छा और योजना में बाधा पहुंचाने वाले पर भी क्रोध न करना। हर स्थिति में क्रोध का शमन करने का हर संभव प्रयास करना।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तवयः मानो धर्मो हतोवाधीत्॥
(मनु स्मृति)
अर्थात -
धर्म उसका नाश करता है जो उसका (धर्म का ) नाश करता है | धर्म उसका रक्षण करता है जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है | अतः धर्मका नाश नहीं करना चाहिए | ध्यान रहे धर्मका नाश करनेवालेका नाश, अवश्यंभावी है।


याज्ञवल्क्य के अनुसार
अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌।। (याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२)
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)


गौतम ऋषि के अनुसार
यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म।
(जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है।
विदुर के अनुसार
इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ।
उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है।


पद्मपुराण के अनुसार
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)


विवेकानंद के अनुसार
धर्म अनुभूति की वस्तु है। वह मुख की बात मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रुप हो जाना- उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है- वह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण का विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जाना - यही धर्म है।


गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार
सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई सो स्यन्दन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।
बल बिबेक दम पर-हित घोरे, छमा कृपा समता रजु जोरे।
ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम नियम सिलीमुख नाना।
कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न कतहूँ रिपु ताकें।
महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-धीर।। (लंकाकांड)

श्री रामजी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है॥
शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥
ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥
निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥
हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥
हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान्‌ दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥

श्रीमद्भागवत के अनुसार
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ )
युधिष्ठिर ! धर्म के ये तीस लक्षण शास्त्रों में कहे गये हैं — सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धरि सांसारिक भौगों की चेष्टा से निवृत्ति, मनुष्य के अभिमानपूर्ण प्रयत्नों का फल उलटा ही होता है —ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपने आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण के नाम-गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्म-समर्पण यह तीस प्रकार का आचरण सभी मनुष्यों का परम धर्म है । इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं।
गीता के अनुसार
अभयं सत्वसशुद्धिज्ञार्नयोगव्यवस्थिति:।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाधायायस्तप आर्जवम्।।
अहिंसा सत्यमक्रोधत्याग: शांतिर पैशुनम्।
दया भूतष्य लोलुप्तवं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।। (गीता : 16/1, 2, 3)
अर्थात - भय रहित मन की निर्मलता, दृढ मानसिकता, स्वार्थरहित दान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, देवता और गुरुजनों की पूजा, यश जैसे उत्तम कार्य, वेद शास्त्रों का अभ्यास, भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहना, व्यक्तित्व, मन, वाणी तथा शरीर से किसी को कष्ट न देना, सच्ची और प्रिय वाणी, किसी भी स्थिति में क्रोध न करना, अभिमान का त्याग, मन पर नियंत्रण, निंदा न करना, सबके प्रति दया, कोमलता, समाज और शास्त्रों के अनुरूप आचरण, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, शत्रुभाव नही रखना - यह सब धर्म सम्मत गुण व्यक्तित्व को देवता बना देते है। धर्म का मर्म और उसकी व्यापकता को स्पष्ट करते हुए गंगापुत्र भीष्म कहते है
सर्वत्र विहितो धर्म: स्वग्र्य: सत्यफलं तप:।
बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया।।
(महाभारत शांतिपर्व - 174/2)
अर्थात - धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है। जब हम धर्ममय आचरण करते हैं तो चाहे हमें उसका फल तत्काल दिखाई नहीं दे, किन्तु समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता है। सत्य को जानने (तप) का फल, मरण के पूर्व(ज्ञान रूप में) मिलता है। जब हम धर्म आचरण करते है तो कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है किन्तु ये कठिनाइयां हमारे ज्ञान और समझ को बढाती है। धर्म के कई द्वार हैं। जिनसे वह अपनी अभिव्यक्ति करता है। धर्ममय आचरण करने पर धर्म का स्वरुप हमें समझ में आने लगता है, तब हम अपने कर्मो को ध्यान से देखते है और अधर्म से बचते है।
धर्म की कोई भी क्रिया विफल नही होती, धर्म का कोई भी अनुष्ठान व्यर्थ नही जाता। महाभारत के इस उपदेश पर हमेशा विश्वास करना चाहिए और सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए।

वाल्मीकि रामायण में धर्म
वाल्मिकी रामायण में (3/37/13) भगवान श्रीराम को धर्म की जीवंत प्रतिमा कहा गया है। श्रीराम कभी धर्म को नहीं छोड़ते और धर्म उनसे कभी अलग नहीं होता है। (युद्ध कांड 28/19) श्रीरामचन्द्र जी के अनुसार, संसार में धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। धर्म का पालन करने वाले को माता-पिता, ब्राह्मण एवं गुरु के वचनों का पालन अवश्य करना चाहिए।यथा:-
यस्मिस्तु सर्वे स्वरसंनिविष्टा धर्मो, यतः स्यात् तदुपक्रमेत।
द्रेष्यो भवत्यर्थपरो हि लोके, कामात्मता खल्वपि न प्रशस्ता॥
(श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण 2/21/58)
अर्थात- जिस कर्म में धर्म आदि पुरुषार्थों का समावेश नहीं, उसको नहीं करना चाहिए। जिससे धर्म की सिद्धि होती हो वहीं कार्य करें। जो केवल धन कमाने के लिए कार्य करता है, वह संसार में सबके द्वेष का पात्र बन जाता है। यानि उससे, उसके अपने ही जलने लगते हैं। धर्म विरूद्ध कार्य करना घोर निंदनीय है।

इसी तरह देवी सीता भी धर्म के पालन का ही आवश्यक मानती हुऐ कहती हैं-
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्।
धर्मेण लभते सर्व धर्मसारमिदं जगत्॥
(श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण 3/9/30)
अर्थात- देवी सीता के कहने का मतलब यह हे कि धर्म से अर्थ प्राप्त होता है और धर्म से ही सुख मिलता है। और धर्म से ही मनुष्य सर्वस्व प्राप्त कर लेता है। इस संसार में धर्म ही सार है। यह बात देवी सीता ने उस समय कही जब श्रीराम वन में मुनिवेश धारण करने के बावजूद शस्त्र साथ में रखना चाहते थे। वाल्मिकी रामायण में देवी सीता के माध्यम से पुत्री धर्म, पत्नी धर्म और माता धर्म मुखरित हुआ है।
संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah pinned «_[विस्तृत]_ मोहित डोकानिया:- धर्म क्या है? विद्वानों का मत है कि धर्म वह है जो हमें आदर्श जीवन जीने की कला और मार्ग बताता है। केवल पूजा-पाठ या कर्मकांड ही धर्म नहीं है। धर्म मानव जीवन को एक दिशा देता है। विभिन्न पंथों, मतों और संप्रदायों द्वारा जो नियम, मनुष्य…»
आपणिकः - अरे श्रीमती ! भवती सदैव आपणे ( दुकान पर ) आगच्छति , सर्वाणि आभूषणानि च पश्यति कदाचित् गृहीत्वा न गच्छति ।
श्रीमती - नैव भ्रात: ! एवं नास्ति अहं तु सदैव किमपि न किमपि गृहीत्वा गच्छामि । भवान् एव ध्यानं न ददाति

😁😂🤪😆 रौशन:

#hasya
संस्कृतस्य विद्वान् पण्डितः गुलामदस्तगीर-बिराजदार-महोदयः दिवङ्गतः।


 संस्कृतस्य विद्वान् पण्डितः गुलामदस्तगीर-बिराजदार-महोदयः दिवङ्गतः। महाराष्ट्रे सोलापूरनगरे पुत्रस्य गृहे आसीत् सः।

   आजीवनं सः संस्कृतसंवर्धनाय प्रयत्नरतः आसीत्। एतदर्थम् सर्वत्र देशे तस्य भ्रमणम् आसीत्। बहूनि पुस्तकानि सः रचितवान्। महाराष्ट्रे सर्वकारीयरचनायां संस्कृतसंघटकरूपेण सः कार्यं कृतवान्, पाठ्यपुस्तकमण्डल्याम् अध्यक्षत्वेन तेन महत्कार्यं कृतम्।  विश्वसंस्कृतप्रतिष्ठाने स महामन्त्री रुपेण कार्यं कृतवान्। प्रतिष्ठाने संस्कृतकार्ये सर्वदा तस्य मार्गदर्शनं प्रोत्साहनं च आसीत्। तस्य निर्गमनेन संस्कृतजगतः महती हानिः जाता अस्ति।

तस्य कुटुम्बे पुत्रः बदिउज्जमा बिराजदार, कन्याद्वयं, पौत्रादयाः च सन्ति। अद्य अन्त्ययष्टिः भविष्यति।
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📚 श्रीमद बाल्मीकि रामायणम 📚

🔥 बालकाण्ड: 🔥
।। चतुर्दशः सर्गः ।।

🍃 तस्याशिषोऽथ विविधा ब्राह्मणैः समुदीरिताः।
उदारस्य नृवीरस्य धरण्यां प्रणतस्य च ।।५४॥

⚜️ भावार्थ - इस पर उदार, वीरवर और पृथियो पर पसर कर प्रणाम करते हुए महाराज को, ब्राह्मणों ने विविध प्राशीर्वाद दिये ॥५४॥

🍃 ततः प्रीतमना राजा प्राप्य यज्ञमनुत्तमम्।
पापापहं स्वर्नयनं दुष्करं पार्थिवर्ष भैः ।।५५।।

⚜️ भावार्थ - उदारचित्त महाराज दशरथ, पाप नाश करने वाले, स्वर्गप्रद एवं अन्य राजाओं के लिये दुष्कर, इस यज्ञ को पूरा कर दिखाया ॥५५॥

#ramayan
📙 ऋग्वेद

सूक्त - २४ , प्रथम मंडल ,
मंत्र - ०५ , देवता - अग्नि आदि।

🍃 भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवावसा। मूर्धानं राय आरभे.. (५)

⚜️ भावार्थ - हे सूर्य देव! तुम धन के स्वामी हो। यदि तुम रक्षा करो तो हम धन की उन्नति करने में लग जाएं। (५)

#rgveda
🚩आज की हिंदी तिथि

🌥️ 🚩युगाब्द - ५१२३
🌥️ 🚩विक्रम संवत - २०७८
🚩तिथि - द्वादशी शाम 07:17 तक तत्पश्चात त्रयोदशी

दिनांक - 24 अप्रैल 2021
दिन - शनिवार
विक्रम संवत - 2078
शक संवत - 1943
अयन - उत्तरायण
ऋतु - ग्रीष्म
मास - चैत्र
पक्ष - शुक्ल
नक्षत्र - पूर्वाफाल्गुनी सुबह तक 06:22 तत्पश्चात उत्तराफाल्गुनी
योग - ध्रुव सुबह 11:43 तक तत्पश्चात व्याघात
राहुकाल - सुबह 09:25 से सुबह 11:01 तक
सूर्योदय - 06:13
सूर्यास्त - 18:59
दिशाशूल - पूर्व दिशा में
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