संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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Tuesday, April 20, 2021

 संस्कृतनगरपदमाप्तुं वाराणसी ।

  लख्नौ> प्रधानमन्त्रिणः मण्डले अन्तर्भूतं वाराणसीनगरं भारतस्य प्रथमं संस्कृतनगरम् इति पदप्राप्त्यर्थं उत्तरप्रदेशसर्वकारेण प्रयत्नमारभ्यते। अधुना ११० अधिकाः संस्कृतविद्यालयाः वाराणसी नगरे प्रवर्तन्ते। 

  संस्कृतभाषाप्रवृद्ध्यर्थं सविशेषं निदेशकस्थानं [Directorate] स्थापयिष्यति। वार्तालेखाः संस्कृते प्रकाशयितुमारब्धाः। मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथः स्वकीयट्वीट्सन्देशान् संस्कृते कर्तुमारब्धवान्।

  उत्तरप्रदेशस्य 'सेकन्टरि संस्कृत शिक्षासमित्याः' अधीने ११६४ संस्कृतविद्यालयाः सन्ति। तेषु ९७,०००अधिकाः छात्राः अध्ययनं कुर्वन्ति च।

 १८ वयोपर्यन्तेभ्यः अपि वाक्सिनम्। 

   नवदिल्ली> भारते १८ वयोपरि ४५ वयस्केभ्यः युवकेभ्य अपि कोविड्वाक्सिनसुविधां निर्णीय केन्द्रसर्वकारेण स्वीयवाक्सिननये समग्रं परिष्करणं कृतम्। गतदिने प्रधानमन्त्रिणः नरेन्द्रमोदिनः नेतृत्वे समायोजिते उपवेशने एवायं निर्णयः कृतः। मेय्मासस्य प्रथमदिनादारभ्य युवकेभ्यः वाक्सिनीकरणसुविधा लप्स्यते। 

  परिष्कृतनयमनुसृत्य सामान्यविपण्यामपि वोक्सिनौषधं लप्स्यते। मूल्यविषये निर्णयः करणीयः। उत्पाद्यमानानाम्  औषधानामर्धभागः केन्द्सर्वकाराय राज्यसर्वकारेभ्यश्च वितरणं करणीयम्।

~ संप्रति वार्ता
Audio
👆संस्कृत रामजन्म गीत
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Dhi Shuddi Stavam - Harivamsha Puranam.pdf
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चाणक्य नीति ⚔️
✒️द्वादशः अध्याय

♦️श्लोक:-१५


मातृवत् परदारेषु परद्रव्याणि लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति सः पंडितः।।१५।।

♦️भावार्थ --दूसरों की पत्नी को माता की भांति, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले की भाँति तथा सारे प्राणियों को अपनी आत्मा की भांति देखने वाला ही संसार में यथार्थ रुप में मनुष्य है।।

#Chanakya
घोराः सिंहाः कुपितशरभाः कुञ्जरेन्द्रा मदान्धाः
घोरा व्याघ्राः कटुककिटयो भीमभल्लूकसङ्घाः ।
सर्वे चान्ये सहजरिपवो जन्तवो यत्रवासाः
सङ्गाहन्ते प्रशमितरुषः स्वैरमेकोदपाने॥


अन्वयः (संस्कृतवाक्यरचनापद्धतिः)

यत्र घोराः सिंहाः कुपितशरभाः मदान्धाः कुञ्जरेन्द्राः घोराः व्याघ्राः कटुककिटयः भीमभल्लूकसङ्घाः च सर्वे अन्ये सहजरिपवः जन्तवः प्रशमितरुषः स्वैरं एकोदपाने वासाः सन्तः सङ्गाहन्ते (तं फणीन्द्रक्ष्माभृतं नमामि ।)

अन्वयार्थः (प्रतिपदार्थः)
- यत्र - जहाँ
- घोराः - क्रूर एवं बडे
- सिंहाः - सिंह
- कुपित - क्रोधित
- शरभाः - आठ पैर वाला प्राचीन प्राणी
- मद - मद या नशे से
- अन्धाः - भरे या अंधे हुए
- कुञ्जरेन्द्राः - बडे हाथी
- घोराः - बडे
- व्याघ्राः - बाघ
- कटुक - काटखानेवाले
- किटयः - वनसूकर
- भीम - भयंकर
- भल्लूक - भालुओं का
- सङ्घाः - झुंड
- - और
- सर्वे - सभी
- अन्ये - अनेक या बाकी
- सहज - सहज
- रिपवः - शत्रु
- जन्तवः - प्राणियाँ
- प्रशमित - दमन किये गये
- रुषः - कोपवाले हो कर
- स्वैरम् - अपने मन से
- एक - एक ही
- उदपाने - पानी से भरे श्रीस्वामिपुष्करिणी में
- वासाः - वास
- सन्तः - होकर
- सङ्गाहन्ते - पानी में स्नान करते हैं
- तम् - उस
- फणीन्द्र - सर्पों में श्रेष्ठ शेषगिरी
- क्ष्माभृतम् - पर्वत को
- नमामि - नमस्कार करता हूँ।

कवि-काव्य परिचय:

यह श्लोक श्री वेदांतदेशिक जी के परमशिष्य श्री प्रतिवादिभयंकर अण्णंगराचार्य जी के करकमलों से लिखित "फणीन्द्रक्ष्माभृत्स्तोत्रं" नामक स्तोत्रकाव्य का नौवाँ श्लोक है। कविवर्य का काल 13वीं शताब्दी के क्रिस्ताब्द का है और वे श्रीवैष्णव धर्म के प्रसिद्ध यतिश्रेष्ठ थे। इस स्तुतिकाव्य में कुल 10 श्लोक हैं। दसवें श्लोक में कविवर्य ने इस स्तुति का फल और अपने बारे में लिखा है।

श्रीमद्वादिप्रवरभयकृद्देशिकोक्तं फणीन्द्रक्ष्माभृत्स्तोत्रं भुवनमहितं शब्दतोऽर्थाच्च साधु ।

। इस स्तुतिकाव्य के सभी श्लोक "मन्दाक्रान्ता" नाम के वृत्त या छंद में लिखे गये हैं ।

विवरणम् -

इस श्लोक में कवि श्रीफणींद्रगिरी या शेषाचल पर्वत की महत्ता का वर्णन कर रहे हैं। तिरुमल पर्वत पर निवास करने वाले सभी क्रूर प्राणी, जैसे शेर, प्राचीन क्रोधित शरभ, क्रूर बाघ, नशे में धुत हाथी, लंबे दांत वाले जंगली सूअर, भयंकर भालू और अन्य छोटे-बड़े सभी प्राणी अपनी वैरता और घृणा को त्यागकर गुस्से से रहित होकर शांत भाव से इस क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध श्रीस्वामिपुष्करिणी नामक कल्याणी में स्नान करते हुए निवास कर रहे हैं। ऐसे पवित्र पर्वत को प्रणाम करते हुए यतिवर्य उसकी महिमा का बखान करते हैं।

ॐ नमो भगवते वाहाननाय

© Sanjeev GN #Subhashitam
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*🌷॥ओ३म्॥🌷*

🙏 राम के जन्मदिवस रामनवमी पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।🙏

*🌼 आदर्श चरित्र ईश्वरोपासक श्रीराम*
- आर्य विजय चौहान

वाल्मीकि के राम यज्ञरक्षक, त्यागी, तपस्वी, सत्यवादी और वीर पुरुष थे। विश्वामित्र के आश्रम में राक्षसों से यज्ञ की रक्षा करने वाले, भाई भरत के लिए राजपाट का त्याग करने वाले भ्रातृप्रेमी, १४ वर्ष तक वनवास में रहकर तपस्वी जीवन जीने वाले, पत्नी प्रेम से युक्त होकर हरण की गई सीता की खोज और प्राप्ति के लिए महान् परिश्रम करने वाले, रावण जैसे दुष्ट और बलवान् को पराजित करने वाले वीर थे। साथ ही वह ईश्वर के उपासक थे। वह जहांँ भी रहे और गये, उन्होंने प्रातः सायं संध्या उपासना का कभी त्याग नहीं किया।

*🌺 श्रीराम वेदवेदाङ्गवेत्ता और आर्य अर्थात् सदाचारी थे। 🌺*
वाल्मीकि रामायण में श्रीराम का गुण वर्णन करते हुए नारद मुनि कहते हैं -

रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता । वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः ॥ १-१-१४

- श्रीराम स्वधर्म और स्वजनों के पालक, वेद-वेदाङ्गों के तत्त्ववेत्ता तथा धनुर्वेद में प्रवीण हैं॥

सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः। #आर्यः सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शनः॥ १-१-१६

- जैसे नदियाँ समुद्र में मिलती हैं, उसी प्रकार सदा राम से साधु पुरुष मिलते रहते हैं। वे आर्य एवं सब में समान भाव रखने वाले हैं, उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है॥

*🌷श्रीराम द्वारा सन्ध्योपासना अर्थात् ईश्वर की उपासना (ध्यान और जप)*

👉 रामचरितमानस में सन्ध्या करने के प्रमाण -

ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुर निवासकाल में सन्ध्या करने के दो उद्धरण -

निशि प्रवेश मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं सन्ध्या वन्दन कीन्हा॥ - बालकाण्ड २२५/१
- रात्रि का प्रवेश होते ही (संध्या के समय) मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने सन्ध्यावन्दन किया।

विगत दिवसु गुरु आयसु पाईं। सन्ध्या करन चले दोउ भाई॥ - बालकाण्ड २३६/३
- दिन बीतने पर गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई सन्ध्या करने चले गये।

निषाद राज से भेंट के पश्चात् की यह चौपाई अवलोकनीय है -
पुरजन करि जोहारु, घर आए। रघुबर सन्ध्या करन सिधाए। - अयोध्याकाण्ड ८८/३
- नगरवासी श्रीराम आदि को अभिवादन करके घर चले गए और श्रीराम सन्ध्या करने के लिए चल दिए।

👉 वाल्मीकि रामायण में अनेक स्थानों पर श्रीराम के द्वारा प्रातः और सायं संध्योपासना और उसमें गायत्री मंत्र जप करने का वर्णन है -

*विश्वामित्र के आश्रम में संध्योपासना*

कौसल्या सुप्रजा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते। उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमाह्निकम् ॥ १-२३-२
तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ ।
स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम् ॥ १-२३-३
- कौसल्यानन्दन! नरश्रेष्ठ राम! प्रातः काल की‌ सन्ध्या का समय हो रहा है; उठो और प्रतिदिन किये जानेवाले देवसम्बन्धी कार्यों (संध्या, अग्निहोत्र) को पूर्ण करो। महर्षि के परम उदार वचन सुनकर वे नरश्रेष्ठ राम और लक्ष्मण वीर, स्नान और आचमन करके परम जप गायत्री मंत्र का जप करने लगे।

*पुनः विश्वामित्र के आश्रम में संध्योपासना*

कुमारावेव तां रात्रिमुषित्वा सुसमाहितौ। प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां संध्यामुपास्य च ॥ १-२९-३१
प्रशुची परं जप्यं समाप्य नियमेन च ।
हुताग्निहोत्रमासीनं विश्वामित्रमवन्दताम् ॥ १-२९-३२

- वे दोनों राजकुमार भी सावधानी के साथ रात व्यतीत करके सवेरे उठे और स्नान आदि से शुद्ध हो, प्रातःकाल की संध्योपासना तथा नियमपूर्वक सर्वश्रेष्ठ गायत्री मंत्र का जप करने लगे। जप पूरा होने पर उन्होंने अग्रिहोत्र करके बैठे हुए विश्वामित्र जी के चरणों में वन्दना की।

*अयोध्या में राज्याभिषेक से पूर्व प्रातः संध्योपासना*

एकयामावशिष्टायां रात्र्यां प्रतिविबुध्य सः। अलञ्कारविधिं कृत्स्नं कारयामास वेश्मनः ॥ २-६-५
तत्र शृण्वन् सुखा वाचः सूतमागधवन्दिनाम्। पूर्वां सन्ध्यामुपासीनो जजाप यतमानसः ॥ २-६-६

- जब तीन पहर बीतकर एक ही पहर रात शेष रह गयी, तब वे शयन से उठ बैठे। उस समय उन्होंने सभामण्डप को सजाने के लिये सेवकों को आज्ञा दी। वहां सूत, मागध और बंदियों की श्रवण-सुखद वाणी सुनते हुए, श्रीराम प्रातःकालिक संध्योपासना हेतु बैठकर एकाग्रचित्त होकर जप करने लगे।

****************************
*श्रीराम लक्ष्मण और सीता द्वारा संध्योपासना के अन्य प्रमाण*

ततः चीर उत्तर आसङ्गः संध्याम् अन्वास्य पश्चिमाम् । जलम् एव आददे भोज्यम् लक्ष्मणेन आहृतम् स्वयम् ॥ २-५०-४८

- तत्पश्चात् वल्कल का उत्तरीय वस्त्र धारण करने वाले श्रीराम ने सायंकाल की संध्योपासना करके, भोजन के नाम पर स्वयं लक्ष्मण का लाया हुआ जलमात्र पी लिया।

स तम् वृक्षम् समासाद्य संध्याम् अन्वास्य पश्चिमाम् । रामः रमयताम् श्रेष्ठैति ह उवाच लक्ष्मणम् ॥ २-५३-१
- उस वृक्ष के नीचे पहुंचकर आनंद प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ श्रीराम ने सायंकाल की‌ संध्योपासना करके लक्ष्मण से इस प्रकार कहा।

उपास्य पश्चिमाम् संध्याम् सह भ्रात्रा यथा विधि । प्रविवेश आश्रम पदम् तम् ऋषिम् च अभ्यवादयत् ‌‌॥ ४-११-६९

- अपने भाई लक्ष्मण के साथ विधिपूर्वक सायंकालीन संध्योपासना करके श्रीराम ने अगस्त्य मुनि के आश्रम में प्रवेश किया।

*अशोक वाटिका में सीता जी के द्वारा संध्योपासना करने के लिए नदी पर आने का श्री हनुमान् द्वारा वर्णन* -

संध्या काल मनाः श्यामा ध्रुवम् एष्यति जानकी । नदीम् च इमाम् शिव जलाम् संध्या अर्थे वर वर्णिनी ॥ ५-१४-४९

- संध्याकाल में मन लगाने वाली सीता संध्या करने के लिए इस नदी पर अवश्य आएगी।

*🌻 संध्या का अर्थ है 🌻* -

'सन्ध्यायन्ति सन्ध्यायते वा परब्रह्म यस्यां सा सन्ध्या' अर्थात् जिसमें भली-भाँति परमेश्वर का ध्यान करते हैं अथवा जिसमें परमेश्वर का ध्यान किया जाय, वह सन्ध्या कहाती है। - (पञ्चमहायज्ञ विधि)

उद्यन्तमस्तं यन्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन् ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते। - (तैत्तिरीय आ ०२ । प्रपा ०२ । अनु०२)

अर्थ - जब सूर्य के उदय और अस्त का समय आवे, उसमें नित्य प्रकाशस्वरूप आदित्य परमेश्वर की उपासना करता हुआ ब्रह्मोपासक ही मनुष्य सम्पूर्ण सुख को प्राप्त होता है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि दो समय में परमेश्वर की नित्य उपासना किया करें।

तस्माद् ब्राह्मणोऽहोरात्रस्य संयोगे सन्ध्यामुपास्ते। स ज्योतिष्या ज्योतिषो दर्शनात् सोऽस्याः काल:, सा सन्ध्या। तत् सन्ध्यायाः सन्ध्यात्वम्॥ (षड्विश ब्रा० प्रपा० ४ । खं० ५)

अर्थ - ब्रह्म का उपासक मनुष्य रात्रि और दिवस के सन्धि समय में नित्य उपासना करे। जो प्रकाश और अप्रकाश का संयोग है, वही संध्या का काल जानना और उस समय में जो सन्ध्योपासन की ध्यान-क्रिया करनी होती है, वह सन्ध्या है। और जो एक ईश्वर को छोड़ के दूसरे की उपासना न करनी तथा सन्ध्योपासन कभी न छोड़ देना, इसी को सन्ध्योपासन कहते हैं ।।

पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमर्कदर्शनात् । पश्चिमां तु समासीनः सम्यग् ऋक्षविभावनात् ।। - (मनुस्मृति २ । १०१)

अर्थ - दो घड़ी रात्रि से सूर्योदय पर्यन्त प्रातः सन्ध्या और सूर्यास्त से लेकर अच्छे प्रकार तारों के दर्शन पर्यन्त सायंकाल में भलीभांँति स्थित होकर, सविता अर्थात् सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले परमेश्वर की उपासना, सावित्री/गायत्र्यादि मन्त्रों का जप करते हुए इनके अर्थ विचारपूर्वक, नित्य करने के लिए बैठे। (पञ्चमहायज्ञ विधि)

इन प्रमाणों से स्पष्ट ही संध्योपासना में नेत्र बंद करके अपने भीतर ईश्वर-ध्यान और गायत्री आदि श्रेष्ठ वेदमंत्रों का जप करते हुए ईश्वर की उपासना करना है। ईश्वर की प्राप्ति भी वहीं हो सकती है, जहां आत्मा और परमात्मा दोनों का निवास हो अर्थात् हमारा अंतःकरण।

*☀️ जय श्रीराम! ☀️*

*🙏॥ओ३म् शम्॥🙏*
त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं
धर्मिष्ठमार्यवचसा यदगादरण्यम् ।
मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद्
वन्दामहे पुरुष ते चरणारविन्दम् ॥


पदच्छेद: पदपरिचयशास्त्रं च ।

- त्यक्त्वा - त्यज त्यागे धातो: त्वान्तमव्ययमिदम्।
- सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीम् - ईकारान्तस्त्रीलिङ्गस्य सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मी शब्दस्य द्वितियाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्।
- धर्मिष्ठम् - अकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य धर्मिष्ठ शब्दस्य प्रथमाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्।
- आर्यवचसा - सकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य आर्यवचस् शब्दस्य तृतियाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्।
- यत् - दकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य यद् शब्दस्य प्रथमाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्।
- अगात् - गमलृ गतौ इति धातो: सकर्मकस्य कर्तरीप्रयोगस्य परस्मैपदिन: भूतकालस्य लुङ् लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचनान्तं क्रियापदमिदम्।
- अरण्यम् - अकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य अरण्य शब्दस्य द्वितियाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्।
- मायामृगम् - अकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य मायामृगशब्दस्य द्वितियाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्।
- दयितया - आकारान्तस्त्रीलिङ्गस्य दयिता शब्दस्य तृतियाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्।
- ईप्सितम् - अकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य ईप्सित शब्दस्य द्वितियाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्।
- अन्वधावत् - अनु उपसर्गपूर्वकस्य धाव् शीघ्रगमने इति धातो: सकर्मकस्य (द्विकर्मकस्य) कर्तरीप्रयोगस्य अनद्यतनभूतकालस्य लङ् लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचनान्तं क्रियापदमिदम्।
- वन्दामहे - वदि अभिवादन स्तुत्यो: इति धातो: सकर्मकस्य कर्तरीप्रयोगस्य आत्मनेपदिन: वर्तमानकालस्य लट् लकारस्य उत्तमपुरुषस्य बहुवचनान्तं क्रियापदमिदम्।
- पुरुष - अकारान्तपुल्लिङ्गस्य पुरुष शब्दस्य सम्बोधनाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्।
- ते - त्रिषुलिङ्गेषुसमस्य दकारान्तस्य युष्मद् शब्दस्य षष्ठीविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्।
- चरणारविन्दम् - अकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य चरणारविन्दशब्दस्य द्वितियाविभक्ते: एकवचनान्तं पदमिदम्। चरणौ अरविन्दं इव चरणारविन्दम् ।

अन्वय:

हे पुरुष यत् धर्मिष्ठं चरणारविन्दं आर्यवचसा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं त्यक्त्वा अरण्यं अगात् दयितया ईप्सितं मायामृगं अन्वधावत् तत् ते चरणारविन्दं वयं वन्दामहे।

हिंदी में अर्थ और विवरण:

हे पुरुष - हे पुरुष नाम से प्रसिद्ध श्रीमन्महाविष्णु जी
यत् - जो
धर्मिठम् - सदैव धर्म मार्ग पर स्थिर रहनेवाले
चरणारविन्दम् - कमल जैसे चरण
आर्यवचसा - पिता के बात से
सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीम् - त्याग करने को मुश्किल और देवताओं से इच्छा रखनेवाली राज्य संपत्ति को
त्यक्त्वा - त्याग करके
अरण्यम् - जंगल को
अगात् - गया
दयितया - प्रिय पत्नी देवी सीता से
ईप्सितम् - इच्छा कियेगये
मायामृगम् - माया से भरे हिरण को
अन्वधावत् - पीछा किया
तत् - ऐसे
ते - आपके
चरणारविन्दम् - कमल जैसे चरण को
वयम् - हम
वन्दामहे - प्रणाम करते हैं

विवरण:

मध्वमत के गुरु श्रीमदानन्दतीर्थ ने, जो त्रिलोकों में प्रसिद्ध और 13वीं शती में आचार्य मध्वजी से अलंकृत थे, यह श्लोक रचित किया है। इस श्लोक में भगवान श्रीरामजी के गुणों का वर्णन किया गया है।

श्लोक के अर्थ:

दशरथ महाराज से शासित अयोध्या नगरी इतनी प्रसिद्ध थी कि देवतागण भी उसकी गद्दी पर शासन करने की इच्छा रखते थे। इस महान राज्य की सम्पत्ति को त्याग कर भगवान श्रीरामजी ने अपने पिता द्वारा दिये गये वचन को पूरा किया। वे जंगल में अपनी प्रिय पत्नी भगवती श्री सीतामाता की इच्छा से माया से भरे हिरण का पीछा करने निकले, जबकि उन्हें हिरण की वास्तविकता का पता था। इस प्रकार के भगवान श्रीरामजी के कोमल कमल जैसे चरणों को, हे पुरुष नामक श्रीमन्महाविष्णु जी, हम वंदन करते हैं।

Meaning:

We pay homage to the lotus feet of Lord Shreeram, who:

- Abandoned the kingdom of Ayodhya, a land coveted even by the gods, to live in the forest, solely on the oath of his father, Dasharatha.
- Pursued the golden deer only to fulfill the heartfelt request of his beloved wife, Goddess Seeta.

ॐ नमो भगवते हयवक्त्राय

©Sanjeev GN #Subhashitam
📚 श्रीमद बाल्मीकि रामायणम 📚

🔥 बालकाण्ड: 🔥
।। चतुर्दशः सर्गः ।।

🍃 ततस्ते न्यायतः कृत्वा प्रविभागं द्विजात्तमा:।
नुम्रीतमनसः सर्वे प्रत्यूचुर्मुदिता भृशम्॥५०॥

⚜️ भावार्थ - उन्होंने न्यायानुसार हिस्सा कर सब को वह धन वांट दिया। वे अपना अपना हिस्सा बाट कर और प्रसन्न हो बोले, हम बहुत प्रसन्न है ॥४०॥

🍃 ततः प्रसर्पकेभ्यस्तु हिरण्यं सुसमाहितः।
जाम्बूनदं कोटिशतं ब्राह्मणेभ्यो ददौ तदा॥५१॥

⚜️ भावार्थ - फिर महाराज ने उन लोगों को जो यज्ञ देखने आये थे मोहर बाटी और जाम्बूनद के सोने की कई करोड़ मेाहरें अन्य बाह्मरणों को दी ॥५१॥

#Ramayan
📙 ऋग्वेद

सूक्त - २४ , प्रथम मंडल ,
मंत्र - ०३ , देवता - अग्नि आदि।

🍃 अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्, सदावन्भागमीमहे.. (३)

⚜️ भावार्थ - हे सदा रक्षा करने वाले सूर्य देव! तुम उत्तम धन के स्वामी हो, इसलिए मैं तुमसे उपभोग करने योग्य धन मांगता हूँ। (३)

#Rgveda