अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद्विनश्यति॥
🌞 अन्यायेन सम्पादितं धनं दशवर्षाणि यावत् तिष्ठति। तदनन्तरम् एकादशे वर्षे तत् सर्वं धनं विनश्यति इति।
⚜ Wealth acquired through unjust means lasts for ten years. But in the eleventh year, it is completely destroyed.
⚜ अन्याय से कमाया हुआ धन दस वर्ष तक रहता है। लेकिन ग्यारहवें वर्ष में वह पूरी तरह से नष्ट हो जाता है।
#Subhashitam
अद्यास्माकन्नववर्षोऽस्ति।
सन्धिविच्छेदं कुर्वन्तु।
सन्धिविच्छेदं कुर्वन्तु।
Anonymous Quiz
18%
अद्य-अस्माकं-नववर्षोऽस्ति।
4%
अद्यास्माकं-नव-वर्षः-अस्ति।
31%
अद्य-अस्माकं-नव-वर्षः-अस्ति।
47%
अद्य-अस्माकं-नववर्षः-अस्ति।
संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्या गृहद्वारि जनः स्मशाने। देहश्चितायां परलोकमार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एकः।। = जीवनभर संग्रह किया धन भूमिपर, पालतू पशु बाड़े में रह जाते हैं। पत्नी अधिक से अधिक द्वार तक और इष्ट-मित्र बन्धु-बान्धव श्मशान तक पहुंच जाते हैं, शरीर…
अत्यन्त कोपः कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्। नीचप्रसङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्।।
= नरक में रहनेवालों के शरीर में निम्न चिह्न होते हैं.. १. अत्यन्त क्रोधी स्वभाव, २. कटु वाणी, ३. दरिद्रता, ४. अपनों से वैर, ५. नीचों की सङ्गति और ६. कुलहीनों की सेवा।
पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम् ? नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्। वर्षा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्,
यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः।।
= यदि करीर के पेड़ में पत्ते नहीं लगते तो इसमें वसन्त ऋतु का क्या दोष ? यदि उल्लू को दिन में नहीं दिखाई देता तो इसमें सूर्य का क्या अपराध ? यदि वर्षा की बूंदें चातक के मुख में नहीं पड़तीं तो इसमें बादलों का क्या दोष ? विधाता ने जो कुछ भी ललाट में लिख दिया है उसे कौन मिटा सकता है ?
अनवस्थितकार्यस्य न जने न वने सुखम्।
जने दहति संसर्गो वने सङ्गविवर्जनम्।।
= अव्यवस्थित कर्म करनेवाले को न तो जनसमाज में सुख मिलता है और न वन में जनसमाज में मनुष्यों का संसर्ग उसे जलाता है और वन में एकाकी रहने के कारण वह दुःखी रहता है।
उदयति यदि भानुः पश्चिमे दिग्विभागे, प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्नः।
विकसति यदि पद्मं पर्वताग्रे शिलायां, न भवति पुनरुक्तं भाषितं सज्जनानाम्।।
= चाहे सूर्य पश्चिम दिशा में उग आए, चाहे मेरु पर्वत अपना स्थान छोड़कर चल दे, चाहे अग्नि अपने गरम स्वभाव को त्याग शीतल बने और चाहे पर्वत के किसी पत्थर पर कमल खिल जाए.. (कवि इन असम्भव बातों की कल्पना करते कहता है..) परन्तु सज्जन लोग एक बार जो प्रतिज्ञा कर लेते हैं, उसे छोड़ नहीं सकते अर्थात् उनकी वाणी बेकार नहीं जाती।
कर्मजा हि शरीरेषु रोगाः शरीरमानसाः।
शरा इव पतन्तीह विमुखा दृढधन्विभिः।।
= अपने पूर्वजन्म के पापकर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाले शारीरिक और मानसिक रोग मनुष्य के शरीर पर ठीक वैसे ही आक्रमण किया करते हैं, जैसे सिद्धहस्त धनुर्धारी द्वारा छोड़े गए बाण ठीक लक्ष्य पर जा गिरते हैं।
जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानमनागपि।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तु शक्तितः।।
= जल में तेल, दुष्ट पुरुष में गुप्त बात, सत्पात्र को दिया दान और बुद्धिमान को दिया गया शास्त्रज्ञान ये थोड़े होने पर भी वस्तु की शक्ति से स्वयं विस्तार को प्राप्त हो जाते हैं।
धर्माऽऽख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्। सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत् को न मुच्येत बन्धनात्।।
= धर्मकथा सुनते समय, स्मशान में और रोगी होने पर मनुष्य की जैसी बुद्धि उत्पन्न होती है यदि वह सदा बनी रहे तो संसार बन्धन से कौन नहीं छूट जाए ?
दूरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितः।यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः।।
= जो जिसके हृदय में बसा हुआ है, वह स्थान की दृष्टि से दूर होने पर भी दूर नहीं है। और जिसे दिल में बसाया नहीं है, वह पास होने पर भी दूर है ऐसा समझना चाहिए।
#vakyabhyas
= नरक में रहनेवालों के शरीर में निम्न चिह्न होते हैं.. १. अत्यन्त क्रोधी स्वभाव, २. कटु वाणी, ३. दरिद्रता, ४. अपनों से वैर, ५. नीचों की सङ्गति और ६. कुलहीनों की सेवा।
पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम् ? नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्। वर्षा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्,
यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः।।
= यदि करीर के पेड़ में पत्ते नहीं लगते तो इसमें वसन्त ऋतु का क्या दोष ? यदि उल्लू को दिन में नहीं दिखाई देता तो इसमें सूर्य का क्या अपराध ? यदि वर्षा की बूंदें चातक के मुख में नहीं पड़तीं तो इसमें बादलों का क्या दोष ? विधाता ने जो कुछ भी ललाट में लिख दिया है उसे कौन मिटा सकता है ?
अनवस्थितकार्यस्य न जने न वने सुखम्।
जने दहति संसर्गो वने सङ्गविवर्जनम्।।
= अव्यवस्थित कर्म करनेवाले को न तो जनसमाज में सुख मिलता है और न वन में जनसमाज में मनुष्यों का संसर्ग उसे जलाता है और वन में एकाकी रहने के कारण वह दुःखी रहता है।
उदयति यदि भानुः पश्चिमे दिग्विभागे, प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्नः।
विकसति यदि पद्मं पर्वताग्रे शिलायां, न भवति पुनरुक्तं भाषितं सज्जनानाम्।।
= चाहे सूर्य पश्चिम दिशा में उग आए, चाहे मेरु पर्वत अपना स्थान छोड़कर चल दे, चाहे अग्नि अपने गरम स्वभाव को त्याग शीतल बने और चाहे पर्वत के किसी पत्थर पर कमल खिल जाए.. (कवि इन असम्भव बातों की कल्पना करते कहता है..) परन्तु सज्जन लोग एक बार जो प्रतिज्ञा कर लेते हैं, उसे छोड़ नहीं सकते अर्थात् उनकी वाणी बेकार नहीं जाती।
कर्मजा हि शरीरेषु रोगाः शरीरमानसाः।
शरा इव पतन्तीह विमुखा दृढधन्विभिः।।
= अपने पूर्वजन्म के पापकर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाले शारीरिक और मानसिक रोग मनुष्य के शरीर पर ठीक वैसे ही आक्रमण किया करते हैं, जैसे सिद्धहस्त धनुर्धारी द्वारा छोड़े गए बाण ठीक लक्ष्य पर जा गिरते हैं।
जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानमनागपि।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तु शक्तितः।।
= जल में तेल, दुष्ट पुरुष में गुप्त बात, सत्पात्र को दिया दान और बुद्धिमान को दिया गया शास्त्रज्ञान ये थोड़े होने पर भी वस्तु की शक्ति से स्वयं विस्तार को प्राप्त हो जाते हैं।
धर्माऽऽख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्। सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत् को न मुच्येत बन्धनात्।।
= धर्मकथा सुनते समय, स्मशान में और रोगी होने पर मनुष्य की जैसी बुद्धि उत्पन्न होती है यदि वह सदा बनी रहे तो संसार बन्धन से कौन नहीं छूट जाए ?
दूरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितः।यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः।।
= जो जिसके हृदय में बसा हुआ है, वह स्थान की दृष्टि से दूर होने पर भी दूर नहीं है। और जिसे दिल में बसाया नहीं है, वह पास होने पर भी दूर है ऐसा समझना चाहिए।
#vakyabhyas
।।श्रीः।।
।।आत्मबोधः।।
Atmabodha, meaning Self-knowledge or Self-awareness, is an exceptionally lucid and readable work of Shankaracharya. Consisting of sixty-eight verses or shlokas, it is in a sense a simple summary of his entire Vedantic structure of thought, intended, it would seem, as a basic primer for his students and followers. The text follows a clearly elaborated doctrine, starting with knowledge as a key to liberation, the nautre of the Atman within us, the assertion of the pervasive and attribute-less nature of Brahman, and the path towards the realisation of the complete identity between the Atman and Brahman.
यद्भासा भास्यतेऽर्कादि भास्यैर्यत्तु न भास्यते।
येन सर्वमिदं भाति तद्ब्रह्मेत्यवधारयेत्।।61।।
61. That by the light of which the luminous, orbs like the Sun and the Moon are illuminated, but which is not illumined by their light, realise that to be Brahman.
आत्म-बोध ऑनलाइन क्लास - 61:
आत्म-बोध के 61st श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। हम लोग सतत कुछ तलाश करते रहते हैं। ऐसे चीज़ की तलाश जो हमें और सुखी एवं करदे। लेकिन विडम्बना यह है, की पूरी दुनियाँ में लोग दुखी हैं, संतप्त हैं। तनाव आज कल की दुनिया की बहुत ही बड़ी समस्या बन गयी है। क्यों? क्यों की हम सबने अनेकों वस्तुएं तो प्राप्त करी हैं लेकिन ये सब नश्वर हैं। आवागमन वाली हैं। अतः जिन-जिन चीज़ों के ऊपर हम आश्रित हुए हैं वे सब एक दिन चली जाती हैं। मूल आवश्यकता एक सत्य और शाश्वत की खोज की होती है। यह ही वेदांत का विषय और प्रसाद होता है। जब भी हम कोई इच्छा करते हैं तो हमारी दृष्टी दृश्य वस्तु पर होती है। शास्त्र बोलते हैं की कहीं जाने की जरूरत नहीं है, उसी जगह और समय नित्य वस्तु वही विराजमान है - उसे जानने मात्र की जरूरत है। उसके लिए ही इस श्लोक में अनेकों लक्षणाएँ देते हैं। वो कौन है जिससे सूर्य-आदि प्रकाशित होते हैं? वो क्या है जिसे सूर्य आदि लौकिक प्रकाश कभी भी प्रकाशित नहीं कर सकते हैं? लेकिन उसके द्वारा दुनिया की सब जड़-चेतन वस्तुएँ प्रकाशित होती हैं। वो ही नित्य है, वो ही टिकाऊ है। वो हमारे अंदर विराजमान चेतन दृष्टा। चेतना ही वो दिव्य प्रकाश है।
#Atmabodha
।।आत्मबोधः।।
Atmabodha, meaning Self-knowledge or Self-awareness, is an exceptionally lucid and readable work of Shankaracharya. Consisting of sixty-eight verses or shlokas, it is in a sense a simple summary of his entire Vedantic structure of thought, intended, it would seem, as a basic primer for his students and followers. The text follows a clearly elaborated doctrine, starting with knowledge as a key to liberation, the nautre of the Atman within us, the assertion of the pervasive and attribute-less nature of Brahman, and the path towards the realisation of the complete identity between the Atman and Brahman.
यद्भासा भास्यतेऽर्कादि भास्यैर्यत्तु न भास्यते।
येन सर्वमिदं भाति तद्ब्रह्मेत्यवधारयेत्।।61।।
61. That by the light of which the luminous, orbs like the Sun and the Moon are illuminated, but which is not illumined by their light, realise that to be Brahman.
आत्म-बोध ऑनलाइन क्लास - 61:
आत्म-बोध के 61st श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। हम लोग सतत कुछ तलाश करते रहते हैं। ऐसे चीज़ की तलाश जो हमें और सुखी एवं करदे। लेकिन विडम्बना यह है, की पूरी दुनियाँ में लोग दुखी हैं, संतप्त हैं। तनाव आज कल की दुनिया की बहुत ही बड़ी समस्या बन गयी है। क्यों? क्यों की हम सबने अनेकों वस्तुएं तो प्राप्त करी हैं लेकिन ये सब नश्वर हैं। आवागमन वाली हैं। अतः जिन-जिन चीज़ों के ऊपर हम आश्रित हुए हैं वे सब एक दिन चली जाती हैं। मूल आवश्यकता एक सत्य और शाश्वत की खोज की होती है। यह ही वेदांत का विषय और प्रसाद होता है। जब भी हम कोई इच्छा करते हैं तो हमारी दृष्टी दृश्य वस्तु पर होती है। शास्त्र बोलते हैं की कहीं जाने की जरूरत नहीं है, उसी जगह और समय नित्य वस्तु वही विराजमान है - उसे जानने मात्र की जरूरत है। उसके लिए ही इस श्लोक में अनेकों लक्षणाएँ देते हैं। वो कौन है जिससे सूर्य-आदि प्रकाशित होते हैं? वो क्या है जिसे सूर्य आदि लौकिक प्रकाश कभी भी प्रकाशित नहीं कर सकते हैं? लेकिन उसके द्वारा दुनिया की सब जड़-चेतन वस्तुएँ प्रकाशित होती हैं। वो ही नित्य है, वो ही टिकाऊ है। वो हमारे अंदर विराजमान चेतन दृष्टा। चेतना ही वो दिव्य प्रकाश है।
#Atmabodha
🍃
♦️na tu maaM shakyase draShTumanenaiva svachakShuShaa|
divyaM dadaami te chakShuH pashya me yogamaishvaram11.8
⚜But, you are not able to see Me with your physical eye; therefore, I give you the divine eye to see My majestic power and glory. (11.08)
⚜परन्तु तुम अपने इन्हीं (प्राकृत) नेत्रों के द्वारा मुझे देखने में समर्थ नहीं हो (इसलिए) मैं तुम्हें दिव्यचक्षु देता हूँ? जिससे तुम मेरे ईश्वरीय योग को देखो।।11.8।।
#geeta
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्
।।11.8।।♦️na tu maaM shakyase draShTumanenaiva svachakShuShaa|
divyaM dadaami te chakShuH pashya me yogamaishvaram
⚜But, you are not able to see Me with your physical eye; therefore, I give you the divine eye to see My majestic power and glory. (11.08)
⚜परन्तु तुम अपने इन्हीं (प्राकृत) नेत्रों के द्वारा मुझे देखने में समर्थ नहीं हो (इसलिए) मैं तुम्हें दिव्यचक्षु देता हूँ? जिससे तुम मेरे ईश्वरीय योग को देखो।।11.8।।
#geeta
🍃
♦️sa~njaya uvaacha
evamuktvaa tato raajanmahaayogeshvaro hariH|
darshayaamaasa paarthaaya paramaM ruupamaishvaram11.9
⚜Sanjaya said:
O King, having said this; Lord Krishna, the great Lord of (the mystic power of) yoga, revealed His supreme majestic form to Arjuna. (11.09)
⚜संजय ने कहा --
हे राजन् महायोगेश्वर हरि ने इस प्रकार कहकर फिर अर्जुन के लिए परम ऐश्वर्ययुक्त रूप को दर्शाया।।11.9।।
#geeta
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्
।।11.9।।♦️sa~njaya uvaacha
evamuktvaa tato raajanmahaayogeshvaro hariH|
darshayaamaasa paarthaaya paramaM ruupamaishvaram
⚜Sanjaya said:
O King, having said this; Lord Krishna, the great Lord of (the mystic power of) yoga, revealed His supreme majestic form to Arjuna. (11.09)
⚜संजय ने कहा --
हे राजन् महायोगेश्वर हरि ने इस प्रकार कहकर फिर अर्जुन के लिए परम ऐश्वर्ययुक्त रूप को दर्शाया।।11.9।।
#geeta
🚩जय सत्य सनातन
🚩आज की हिंदी तिथि
🌥️ 🚩युगाब्द-५१२४
🌥️ 🚩विक्रम संवत-२०७९
⛅ 🚩तिथि - द्वितीया दोपहर 12:38 तक तपश्चात तृतीया
⛅ दिनांक 03 अप्रैल 2022
⛅ दिन - रविवार
⛅ शक संवत - 1944
⛅ अयन - उत्तरायण
⛅ ऋतु - वसंत
⛅ मास - चैत्र
⛅ पक्ष - शुक्ल
⛅ नक्षत्र - अश्विनी दोपहर 12:37 तक तपश्चात भरणी
⛅योग - वैधृति सुबह 07:54 तक तत्पश्चात विष्कम्भ
⛅ राहुकाल - शाम 05:23 से 06:56 तक
⛅सूर्योदय - 06:30
⛅ सूर्यास्त - 06:56
⛅ दिशाशूल - पश्चिम दिशा में
🚩आज की हिंदी तिथि
🌥️ 🚩युगाब्द-५१२४
🌥️ 🚩विक्रम संवत-२०७९
⛅ 🚩तिथि - द्वितीया दोपहर 12:38 तक तपश्चात तृतीया
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⛅योग - वैधृति सुबह 07:54 तक तत्पश्चात विष्कम्भ
⛅ राहुकाल - शाम 05:23 से 06:56 तक
⛅सूर्योदय - 06:30
⛅ सूर्यास्त - 06:56
⛅ दिशाशूल - पश्चिम दिशा में
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संलापशाला अनिश्चित् काल तक बंद रहेगी।🔒
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https://youtu.be/DVfN90Z1F98
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वार्ता: संस्कृत भाषा में समाचार
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पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः। न पापफलमिच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः॥
संस्कृतार्थः -
प्रायः मावनावां स्वभावः भवति यत् ते पुण्यस्य फलं तु इच्छन्ति परन्तु पुण्यं कर्तुं न इच्छन्ति तथा यद्यपि पापस्य फलं तु न इच्छन्ति तथापि सर्वदा पापाचरणम् एव कुर्वन्ति।
#subhaShitam
संस्कृतार्थः -
प्रायः मावनावां स्वभावः भवति यत् ते पुण्यस्य फलं तु इच्छन्ति परन्तु पुण्यं कर्तुं न इच्छन्ति तथा यद्यपि पापस्य फलं तु न इच्छन्ति तथापि सर्वदा पापाचरणम् एव कुर्वन्ति।
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