संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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प्रियो वा यदि वा द्वेष्यो
मूर्खो वा यदि पण्डितः ।
वैश्वदेवान्तमापन्नः
सोऽतिथिः स्वर्गसङ्क्रमः ॥


अर्थ:

प्रियजन हो या शत्रु, द्वेषी हो या मूर्ख, या पंडित हो, यदि कोई भी वैश्वदेवयज्ञ के समय घर पर आए, तो वह अतिथि स्वर्ग की सीढ़ी के समान होता है। इसलिए उसे भोजन कराना चाहिए।

मूल: पञ्चतन्त्रम् /लब्धप्रणाशम्/2
कवि: श्रीविष्णुशर्मा

Meaning:

A guest who may be a loved one or a foe, an illiterate or a learned person, if they appear during the time of Vaishwadevayajna, should be treated as a ladder to heaven. They should be honored with food.

© Sanjeev GN #Subhashitam
📚 श्रीमद बाल्मीकि रामायणम 📚

🔥 बालकाण्ड: 🔥
।। त्रयोदशः सर्गः ।।

🍃 तथेति च स राजानमत्रवीद्द्विजसत्तमः।
करिष्ये सर्वमेवैतद्भवता यत्समर्थितम् ॥५॥

⚜️ यह सुन मुनिपुङ्गव वशिष्ठ जी ने दशरथ जी से कहा -और जो निवेदन किया तदनुसार ही हम सब कार्य करेंगे ॥५॥

🍃 ततोऽब्रवीद्विजान्वृद्धान्यज्ञकर्मसु निष्ठितान्।
स्थापत्ये निष्ठितांश्चैव दृद्धान्परमधार्मिकान्॥६॥
कर्मान्तिकाञ्चिल्पकरान्वर्धकीनखनकानपि।
गणकाशिल्पिनश्चैव तथैव नटनर्तकान्॥७॥

तथा शुचीशास्त्रविदः पुरुषान्सुवहुश्रुतान्।
यज्ञकर्म समीहन्तां भवन्तो राजशासनात्॥८॥

⚜️ तदुपरान्त वशिष्ठ जी ने वृद्ध और यज्ञकार्य में कुशल ब्राह्मणों को, परम धार्मिक और वृद्ध स्थापत्य विद्या (भवन-निर्माण - कला )कुशल कारीगरों को, शिल्पियों को, अथवा लेखकों को, नटों और नाचने वालियों को, वहुत जानने वाले और सच्चे (ईमानदार ) शास्त्र वेदा ब्राह्मणों को बुला फर कहा कि, आप लोगों के लिये महाराज की आज्ञा है कि यज्ञ कार्य में मनोयोग पूर्वक आपलोग लग जाय॥६॥७॥८॥

#ramayan
📙 ऋग्वेद

सूक्त - २२ , प्रथम मंडल ,
मंत्र - १२, देवता - अश्विनीकुमार आदि

🍃 इहेन्द्राणीमुप ह्वये वरुणानीं स्वस्तये. अग्नायीं सोमरपीतये.. (१२)

⚜️ हम अपने कल्याण के लिए एवं सोमपान करने के लिए इंद्रपत्नी, वरुणपत्नी एवं अग्निपत्नी को बुलाते हैं। (१२)

#rgveda
🔥बालकाण्ड:🔥
।।त्रयोदशः सर्गः।।

🍃इष्टका बहुसाहस्राः शीघ्रमानीयतामिति ।
औषकार्याः क्रियन्तां च राज्ञां वहुगुणान्विताः॥९॥

⚜️बहुत सी ईटे शीघ्र एकत्र कर, आने वाले महमान राजाओं के ठहरने के लिये तथा अन्य सम्भ्रान्त लोगों के ठहरने के लिये सब तरह के कल (पाराम के) अलग अलग घर बना कर तैयार करी ॥९॥

🍃व्राह्मणावसथाश्चैव कर्तव्याः शतशः शुभाः।
भक्ष्यान्नपानर्बहुभि : समुपेताः सुनिष्ठिताः॥१०॥

⚜️इसी प्रकार सैकड़ों सुन्दर मकान अच्छी अच्छी जगहों पर ब्राह्मणों के ठहरने के लिये वनाओ जिनमें भोजनादि की सब आवश्यक सामग्री रहे॥१०॥

#ramayan
📙ऋग्वेद

सूक्त-२२, प्रथम मंडल,
मंत्र-१३ देवता-अश्विनीकुमार आदि

🍃मही द्यौः पृथिवी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम्, पिपृतां नो भरीमभिः.. (१३)

⚜️विशाल धुलोक और पृथ्वी इस यज्ञ को रस से सींच दें और पोषण करके हमें पूर्ण बनावें. (१३)

#rgveda
हरिःॐ। मङ्गलवासर-सायङ्कालशुभेच्छाः।

आकाशवाण्या अद्यतनसायङ्कालवार्ताः।

जयतु संस्कृतम्॥
अस्तङ्गतानेकमायादिवादीश-
विद्योतिताशेषवेदान्त भो ।
श्रीराघवेन्द्रार्य श्रीराघवेन्द्रार्य
श्रीराघवेन्द्रार्य पाहि प्रभो ॥
१६ ॥

अर्थः

हे हराये गये अनेक मायावादियों के श्रेष्ठ वादियों, प्रचारित समस्त वेदांत और उपनिषदों के प्रकाशक श्रीराघवेन्द्रतीर्थस्वामी जी, कृपया मेरी रक्षा करें।

ॐ श्रीगुरुराघवेन्द्राय नमः।।

Meaning:

"O scholar who has triumphed over numerous top Mayavada debaters and the publisher of all the Vedanta and Upanishads, HH Shri Raghavendra Teerthaswamin, please protect me."

Om Shri Raghavendraya Namah //

©Sanjeev GN  #Subhashitam
चाणक्य नीति⚔️
✒️ दशमः अध्याय

♦️श्लोक:-१८

गीर्वाणवाणीषु विशिष्टबुद्धि स्तथाऽपि भाषान्तर लोलुपोऽहम्।
यथा सुरगणेष्वमृते च सेविते स्वर्गांगनानामधरासवे रुचिः ॥१८॥

♦️भावार्थ--यद्यपि मैं संस्कृत भाषा में विशिष्ट बुद्धि रखता हूँ फिर भी दूसरी भाषाओं को जानने का लोभ उसी प्रकार करता हूँ जैसे अमृत के विद्यमान होने पर भी देवताओं की इच्छा स्वर्ग की अप्सराओं के अधर रस का पान करने के लिए आतुर रहती है।

#chanakya
🔥बालकाण्ड:🔥

।।त्रयोदशः सर्गः।।

🍃तथा पारजनस्यापि कर्तव्या बहुविस्तराः।
आवासा वहुभक्ष्या वै सर्वकामैरुपस्थिताः।।११।।

⚜️नगर निवासीयों के ठहरने के लिये भी बड़े बड़े लंबे चौड़े मकान बनाये जायें, जिनमें भोजन और सब प्रकार की सामग्री लाकर यथा स्थान सजा दी जाय॥११॥

🍃तथा जानपदस्यापि जनस्य बहुशोभनम्।
दातव्यमन्नं विधिवत्सत्कृत्य न तु लीलया॥१२॥

⚜️देहातियों के लिये भी सब सुविधाओं के मकान बने । एक वात का ध्यान रखना कि, जिसको अन्नादि भोजन सामग्री दी जाए उसे सत्कार पूर्वक दी जाय, देते समय किसी का भी अनादर न किया जाय ॥१२॥
📚आओ वेद पढें

📙ऋग्वेद

सूक्त-२२, प्रथम मंडल,
मंत्र-१३ देवता-अश्विनीकुमार आदि

🍃तयोरिद्घृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः. गन्धर्वस्य श्रुवे पदे... (१४)

⚜️बुद्धिमान् लोग अपने कर्मों के द्वारा आकाश और पृथ्वी के बीच में घी की तरह जल पीते हैं. वह अंतरिक्ष गंधर्वों का निश्चित निवासस्थान है. (१४)
हरिःॐ। २०२१-०३-१८ गुरुवासरः।

https://youtu.be/plD3exO2Dlw

जयतु संस्कृतम्॥
चाणक्य नीति⚔️
✒️ दशमः अध्याय

♦️श्लोक:-१९


अन्नाद् दशगुणं पिष्टं पिष्टाद् दशगुणं पयः।
पयसोऽष्ट गुणं मांसं मांसाद् दशगुणं घृतम् ॥१९॥

♦️भावार्थ--अन्न से दस गुना गुण आटे में है। आटे से दस गुना अधिक शक्ति दूध में है। दूध से आठ गुना अधिक शक्ति मांस में है (लेकिन ये स्वाभाविक भोजन नहीं है अशुद्ध ,तामसिक है) और मांस से दस गुना अधिक शक्ति घी में है।

#chanakya
हरिःॐ। गुरुवासर-सायङ्कालशुभेच्छाः।

आकाशवाण्या अद्यतनसायङ्कालवार्ताः।

जयतु संस्कृतम्॥
🌅।।ओ३म्।।🌅

🙏मृत्यु और जीवन विचार🙏 - श्रीमद्भगवद्गीता

लेख पढ़े अथवा विस्तृत व्याख्या के लिए वीडियो सुनें -

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२.२७॥

भावार्थ : जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। उससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥२.२२॥

भावार्थ : जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२.१०॥

भावार्थ : यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥२.२३॥

भावार्थ :  इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२.२४॥

भावार्थ : क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वत्र गतिशील, और आत्मरूप से अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥२.१८॥

भावार्थ : इस नाशरहित, अप्रमेय/अज्ञेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥

प्रस्तुति - आर्य विजय चौहान
करोतु मम कल्याणम्।
हरिः हयमुखाभिधः॥
गुरुः च मध्वनामा मे।
वरदः अस्तु निरन्तरम्॥


पदच्छेद: पदपरिचयशास्त्रं च ।

- करोतु (karotu): डुकृञ् करणे इति धातोः सकर्मकस्य कर्तरीप्रयोगस्य परस्मैपदिनः लोट् लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचनान्तं क्रियापदमिदम् ।
- मम (mama): त्रिषुलिङ्गेषु समस्य दकारान्तस्य अस्मद् शब्दस्य षष्ठीविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम् ।
- कल्याणम् (kalyANam): अकारान्तनपुंसकलिङ्गस्य कल्याणशब्दस्य द्वितियाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम् ।
- हरिः (harih): इकारान्तपुल्लिङ्गस्य हरि शब्दस्य प्रथमाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम् ।
- हयमुखाभिधः (hayamukhAbhidhah): अकारान्तपुल्लिङ्गस्य हयमुखाभिध शब्दस्य प्रथमाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम् ।
- गुरुः (guruh): उकारान्तपुल्लिङ्गस्य गुरु शब्दस्य प्रथमाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम् ।
- (cha): अव्ययमिदम्
- मध्वनामा (madhwanAmA): नकारान्तपुल्लिङ्गस्य मध्वनामन् शब्दस्य प्रथमाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम् ।
- मे (mE): त्रिषुलिङ्गेषु समस्य दकारान्तस्य अस्मद् शब्दस्य षष्ठीविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम् ।
- वरदः (varadah): अकारान्तपुल्लिङ्गस्य वरद शब्दस्य प्रथमाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम् ।
- अस्तु (astu): अस भुवि इति धातोः अकर्मकस्य कर्तरीप्रयोगस्य परस्मैपदिनः लोट् लकारस्य प्रथमपुरुषस्य एकवचनान्तं क्रियापदमिदम् ।
- निरन्तरम् (nirantaram): अव्ययमिदम्

Formation of Sanskrit Sentence:

हयमुखाभिधः हरिः मम कल्याणं करोतु । च मे मध्वनामा गुरुः निरन्तरं वरदः अस्तु ।

Hindi Translation:

- हयमुखाभिधः: घोडे के मुख के समान मुख वाले हयग्रीव नाम के
- हरिः: भगवान श्रीमन्महाविष्णु जी
- मम: मेरी
- कल्याणम्: कल्याण
- करोतु: करें
- : तथा
- मे: मेरे लिये
- मध्वनामा: मध्व नाम से प्रसिद्ध आचार्य मध्व जी
- गुरुः: जो सभी चौदह लोकों के गुरु हैं वे
- निरन्तरम्: हमेशा
- वरदः: वर प्रदान करनेवाले
- अस्तु: बनें

Historical Context:

1480 से 1600 तक भूमी पर विराजमान श्रीमद्वादिराजतीर्थ नाम के प्रसिद्ध कवि और सन्यासीश्रेष्ठ ने इस श्लोक की रचना अपने बहुत ही प्रमुख ग्रंथ "सरसभारतीविलासः" में मंगलाचरण के रूप में किया है । अर्थात् यह श्लोक इस ग्रंथ का प्रथम श्लोक है ।

इस श्लोक में यतिवर जी अपने चहीते भगवान श्रीहयवदन जी जो श्रीहरि या श्रीमन्महाविष्णु जी के अवतार हैं उन से कल्याण की प्रार्थना कर रहे हैं । साथ ही साथ मध्व धर्म के मूल गुरु श्रीमन्मध्वाचार्य जी से हमेशा वरप्रदाता बने रहने की भी प्रार्थना कर रहे हैं ।

Meaning In English:

A revered pontiff of Madhwa Philosophy, His Holiness Shri Vadirajateethaswamin, who lived between 1480 and 1600 AD, composed a benediction verse in his distinguished work, "Sarasabhaarathivilaasa."

In this verse, the poet seeks blessings from Lord Hayavadana, an incarnation of Lord Mahavishnu with a horse-like face, to bring auspiciousness. He also prays to HH Shri Madhwacharya, the esteemed preacher to all 14 worlds, to bestow the desired boon upon him.

The poet's intent is to ensure that his forthcoming work progresses smoothly without obstacles. The verse is crafted in the "Anushtup" meter, known for its simplicity in Sanskrit poetry.

ॐ नमो भगवते हयाननाय।

©Sanjeev GN #Subhashitam
स्यन्दना नो चतुरगाः ।
सुरेभा वाविपत्तयः ।।
स्यन्दना नो च तुरगाः ।
सुरेभावा विपत्तयः ।।

अन्वयः (संस्कृतवाक्यरचनापद्धतिः)

स्यन्दनाः स्यन्दनाः नो च चतुरगाः तुरगाः नो । सुरेभाः सुरेभाः नो वा अविपत्तयः विपत्तयः नो ।

अन्वयार्थ:

स्यन्दनाः - वेग से दौड़नेवाले रथ
स्यन्दनाः - रथ
नो - नहीं हैं।
- और
चतुरगाः - चतुरता से भरे चाल वाले
तुरगाः - घोड़े
नो - नहीं हैं।
सुरेभाः - अच्छी ध्वनि करनेवाली
सुरेभाः - हाथियाँ
नो - नहीं हैं।
वा - अथवा
अविपत्तयः - विपत्तिरहित
विपत्तयः - पदातिदल या सैनिक
नो - नहीं हैं।

विवरण:

आज विश्व कवितादिन के अवसर पर, 5वीं शती के कवि भारवी द्वारा रचित महान ग्रंथ "किरातार्जुनीयम्" के पंद्रहवें सर्ग का यह 16वां श्लोक प्रस्तुत किया जा रहा है। इस अनुष्टुप छंद वाले श्लोक में विशेषता यह है कि पहले और तीसरे पाद में समान अक्षर पाये जाते हैं, और द्वितीय तथा चतुर्थ पाद में भी समान अक्षर होते हैं। हालांकि, शब्दों के संयोजन में भिन्नता के कारण अर्थ भिन्न होता है।

इस श्लोक में, युद्ध के लिए आये शंकर जी के सैन्य जब एकाकी ऋषि अर्जुन को देखते हैं, तो वे सोचते हैं कि इस ऋषि के पास उनके समान ना तो शीघ्रगामी रथ हैं, ना चतुर घोड़े, ना जोर से कूजने वाली हाथियाँ, और ना ही विपत्तियों से रहित सेना। वे इसे एक सामान्य ऋषि मानते हैं, और इसलिए इसे पराजित करने में कोई कठिनाई नहीं मानते।

MEANING:

Neither he has fast running chariots, nor cleverly running horses, neither loud sounding elephants, nor soldiers who lack fear.

The above verse is from the 15th canto of "Kiratarjuniyam," a renowned work by the 5th-century poet Shri Bharavi. In this passage, Lord Shiva's army, observing Arjuna on the battlefield armed with only a bow and arrows, underestimates him. They believe Arjuna can be easily defeated because he lacks fast chariots, skillful horses, elephants as formidable as the heavenly Airavata, and fearless soldiers.

On the occasion of World Poets' Day, this verse is presented for its exceptional literary quality. Despite being in the Anushtup meter, it features a unique characteristic: the first and third quarters, as well as the second and fourth quarters, contain the same sets of letters, though arranged differently. This rare structural elegance highlights the verse's distinctive place in Sanskrit literature.

ॐ नमो भगवते हयास्याय

©Sanjeev GN #Subhashitam #celebrating_sanskrit
📚 श्रीमद बाल्मीकि रामायणम 📚

🔥 बालकाण्ड: 🔥
।। त्रयोदशः सर्गः ।।

🍃 यथोक्तं तत्सुविहितं न किंचित्परिहीयते।
ततः सुमन्त्रमाहूयरसिष्ठो वाक्यमत्रवीत्॥१७॥

⚜️ आपने जैसी आज्ञा दी है, तदनुसार ही हम सब करेंगे, किसी काम में त्रुटि न रहने पावेगी। तब वशिष्ठ जी ने सुमंत्र को बुलवाया और उनसे बोले ॥१७॥

#ramayan