संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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चाणक्य नीति ⚔️
✒️ नवमः अध्याय

♦️श्लोक :- १२

स्वहस्तग्रथिता माला स्वहस्तघृष्टचन्दनम्।
स्वहस्तलिखितस्तोत्रं शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ॥१२॥

♦️भावार्थ - अपने हाथों से गूँथी हुई माला, अपने हाथों से घिसा गया चन्दन व अपने हाथ से लिखा स्तोत्र – ये कार्य इन्द्र की सम्पदा को भी अपने वश में कर लेते हैं।।

#chanakya
हरिःॐ। गुरुवासर-सायङ्कालशुभेच्छाः।

आकाशवाण्या अद्यतनसायङ्कालवार्ताः।

जयतु संस्कृतम्॥
🙏 24.2.21 वेदवाणी🙏
अनुवाद महात्मा ज्ञानेन्द्र अवाना जी द्वारा, प्रचारित आर्य जितेंद्र भाटिया द्वारा,🙏🏵️

अग्ने कदा त आनुषग्भुवद्देवस्य चेतनम्।
अधा हि त्वा जगृभ्रिरे मर्तासो विक्ष्वीड्यम्॥ ऋग्वेद ४-७-२॥🙏🏵️

हे परमेश्वर ! कब मनुष्य आपके नियमों का अनुसरण करेंगे ? कौन आनंद और सुख का प्रदाता है, यह कब जानेंगे ? आप को पूर्ण रूप से कब स्वीकार करेंगे ? कब आपको आराध्य मानेंगे ? हमारी इच्छा है कि प्रत्येक क्षण, विचार और कर्म में मनुष्य आपको विस्मृत ना करें।🙏🏵️

O God ! When will humans follow your rules ? When will humans will know the actual provider of pleasure and happiness ? When will you be fully accepted ? When will you be considered adorable ? We wish that humans should always remember you in every moment, thought and action. (Rig Veda 4-7-2)🙏🏵️🙏🏵️
चाणक्य नीति ⚔️
✒️ नवमः अध्याय

♦️श्लोक :- १४

दरिद्रता धीरतया विराजते, कुवस्त्रता स्वच्छतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरुपता शीलतया विराजते।।१४।।

♦️भावार्थ - धैर्य रखने से ग़रीबी कष्ट नहीं देती, ख़राब कपड़ा स्वच्छ रखने से पहनने योग्य होता है, बेकार अन्न भी गरम-गरम स्वादिष्ट लगता है। शील स्वाभाव के कारण कुरुप व्यक्ति भी सुन्दर लगने लगता है।


#chanakya
हितोपदेशः - HITOPADESHAH

कनकभूषणसङ्ग्रहणोचितो
यदि मणिस्त्रपुणि प्रणिधीयते ।।
न च विरौति न चापि स शोभते
भवति योजयितुर्वचनीयता ।। 316/069

अर्थः:

सोने के आभूषण में लगने योग्य मणि यदि लोहे के आभूषण में जड़ दी जाए, तो वह मणि न तो चमकती है और न ही शोभा देती है, बल्कि उस मणि को लगाने वाले की निंदा होती है।

MEANING:

If a gem suited for golden ornaments is set in an iron ornament, it neither shines nor appears beautiful, but the person who sets it is subject to criticism.

ॐ नमो भगवते हयास्याय।

©Sanju GN #Subhashitam
कलौ युगे कल्पतरुप्रभावः
उद्धारकर्ता कलितागसोऽपि ।
जीयाच्चिरं विष्णुपराग्रगण्यः
श्रीराघवेन्द्रो गुरुराडुदारः ॥


पदच्छेद:

कलौ युगे कल्पतरुप्रभावः उद्धारकर्ता कलितागसः अपि जीयात् चिरं विष्णुपराग्रगण्यः श्रीराघवेन्द्रः गुरुराट् उदारः

अन्वयः (संस्कृतवाक्यरचनापद्धतिः)

कलौ युगे कल्पतरुप्रभावःकल्पतरुप्रभावः कलितागसः अपि उद्धारकर्ता, विष्णुपराग्रगण्यः उदारः गुरुराट् श्रीराघवेन्द्रः चिरं जीयात् ।

अन्वयार्थ:

- कलौ - कलि से प्रभावित इस
- युगे - युग में
- कल्पतरु - कल्पतरु जैसे
- प्रभावः - प्रभाव वाले
- कलितागसः - अपराधियों को
- अपि - भी
- उद्धारकर्ता - उद्धार करनेवाले
- विष्णु - श्रीमन्महाविष्णु जी के
- पर - भक्तों में
- अग्रगण्यः - श्रेष्ठ
- उदारः - उदार मन वाले
- गुरु - गुरुओं के
- राट् - राजा
- श्रीराघवेन्द्रः - श्रीराघवेन्द्रतीर्थ जी
- चिरम् - बहुकाल तक
- जीयात् - जीयें

विवरण:

18वीं शताब्दी के अंत में श्रीमद्राघवेंद्रतीर्थ जी के परम शिष्य, अवधूतशिरोमणि श्रीकृष्णावधूत जी के करकमलों से विरचित श्रीराघवेन्द्रतंत्रं नामक ग्रंथ के प्रथम पटल का यह अंतिम श्लोक है। आज श्रीमद्राघवेंद्रतीर्थ जी के वर्धंती उत्सव (जन्मदिन) के शुभ अवसर पर उनके पादपद्मों में यह श्लोकसुमन श्रद्धा एवं भक्ति के साथ समर्पित है।

कलियुग में, आजकल लोग इतने स्वार्थी हो गए हैं कि छोटी-छोटी सहायता की आवश्यकता होने पर भी कोई पास नहीं आता। केवल वही आता है जिसे आपसे कुछ लाभ हो रहा हो। ऐसे समय में केवल स्वर्ग में मिलने वाला कल्पवृक्ष ही बिना किसी प्रत्युपकार की अपेक्षा के, सबकी मनोकामनाओं को पूरा करता है। परंतु स्वर्ग तो मानव लोक से बहुत दूर है, इसलिए भगवान श्रीमन्महाविष्णु ने श्रीमद्राघवेंद्र जी को कलियुग में सभी की रक्षा के लिए कल्पवृक्ष के समान सहायता करने के लिए भूलोक पर भेजा है। उनसे कोई भी कुछ भी मांगे, वे उनकी इच्छाएँ पूरी करते हैं। इस विषय में कोई संदेह नहीं है। बहुत ही पापकर्म कर अपने माथे पर कलंक लेने वाले भी यदि इनके शरण में आएं, तो उनके प्रभाव से ही उन पापियों का उद्धार हो जाता है। ऐसे श्रीमन्महाविष्णु जी के परम भक्त, उदार मन वाले, गुरुओं के राजा श्रीमद्राघवेंद्रतीर्थ जी चिरकाल तक जयशील रहें।

© Sanjeev GN  #Subhashitam
न नोननुन्नो नुन्नोनो
नाना नानानना ननु ।
नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो
नानेना नुन्ननुन्ननुत् ॥


पदच्छेदः

न(4) ना(3) ऊननुन्नः(2) नुन्नोनः(5) ना(6) अना(7) नानाननाः(1) ननु(8) । नुन्नः(10) अनुन्नः(11) ननुन्नेनः(9) न (14) अनेनाः (13) नुन्ननुन्ननुत् (12) ।

पदविश्लेषणम्:

- नानाननाः - नानाप्रकाराणि आननानि येषां ते नानाननाः (अनेकमुखयुक्ताः इत्यर्थः)
- ऊननुन्नः - ऊनेन निकृष्टेन नुन्नः विद्धः ऊननुन्नः (नीचेन पराजितः इत्यर्थः)
- नुन्नोनः - नुन्नः ऊनः येन सः नुन्नोनः
- अना - न ना अना (अपुरुषः इत्यर्थः)
- ननुन्नेनः - नुन्नः पराजितः इनः स्वामी यस्य सः नुन्नेनः, न विद्यते नुन्नेनः यस्य सः ननुन्नेनः।
- नुन्ननुन्ननुत् - अतिशयेन नुन्नः नुन्ननुन्नः। नुन्ननुन्नान् नुदति इति नुन्ननुन्ननुत्

अन्वयः (संस्कृतवाक्यरचनापद्धतिः)

हे नानाननाः ऊननुन्नः ना न । नुन्नोनः ना अना ननु । ननुन्नेन नुन्नः अनुन्नः । नुन्ननुन्ननुत् अनेनाः न ।

अन्वयार्थ:

- हे नानाननाः - हे नाना मुखवालों,
- ऊन - नीच पुरुष से
- नुन्नः - हारा हुआ
- ना न - मनुष्य नहीं है।
- नुन्नोनः - नीच पुरुष को पराजित करनेवाला या हरानेवाला
- ना - मनुष्य
- अना - पुरुष नहीं है
- ननु - ना..??
- ननुन्नेनः - जिनका स्वामि कभी हारा न हो वह
- नुन्नः अपि - हारा हुआ हो कर भी
- अनुन्नः - जीतता है।
- नुन्ननुन्ननुत् - अति पीडित को भी पीड़ा देने वाला
- न अनेनाः - मनुष्य निर्दोषी नहीं है।


विवरण:

क्रिस्ताब्द पाँचवीं सदी के आरंभ में भारतवर्ष में संस्कृत भाषा की उन्नति का यह श्लोक एक उदाहरण है। इस अवधि में "भारवि" नामक प्रसिद्ध कवि द्वारा रचित "किरातार्जुनीयम्" नामक ग्रंथ का 15वें सर्ग का 14वाँ श्लोक है। केवल "न" व्यंजन का उपयोग करके सुलभ अनुष्टुप् छंद में इस श्लोक की रचना कवि के हाथों से हुई है। यह ग्रंथ ऐसे विचित्र अक्षरों और अर्थवाले श्लोकों से सजा हुआ है। इस ग्रंथ में राजनीति के बारे में ऐसे श्लोक भी हैं जो राजनीति शास्त्र के अध्ययन के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। भारवि के रचित इस ग्रंथ को छोड़कर कोई अन्य ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। अन्य कवियों की तरह यह कवि भी अपने और अपने काल के बारे में विवरण देने में संकोच करता है। कहा जाता है कि "भारवेरर्थगौरवम्" इस महान ग्रंथ में शब्दों के अर्थ को विशेष महत्व दिया गया है। इस ग्रंथ में राजनीति के साथ-साथ श्रृंगार रस और वीर रस से भरे श्लोक भी हैं, तथा किरात-अर्जुन के बीच हुए युद्धों का वर्णन भी है। इस प्रकार के महान संस्कृत कवियों के हाथों से ही संस्कृत भाषा आज अपने उच्च शिखर पर विराजमान है और आगे भी रहेगी।

इस एकाक्षरी श्लोक में भगवान श्री कार्तिकेय अपने प्रथमगण के सैनिकों से कह रहे हैं: "हे अनेकमुखवाले प्रथमगण के सैनिकों, नीच पुरुष से हारा हुआ पुरुष नीच नहीं होता। नीच पुरुष को हराने वाला भी नीच नहीं होता। जिसका स्वामी कभी हारा न हो, वह हार कर भी जीतता है। अत्यंत पीड़ित मनुष्य को पीड़ा देने वाला निर्दोष नहीं होता।"

तात्पर्य यह है कि अर्जुन के बाणप्रहारों से शिवजी के प्रथमगण के सैनिकों को भय लग गया। वे सब रणभूमि छोड़कर भागने लगे। तब उन सैनिकों के मुखिया षण्मुख या कार्तिकेय, जो शिवजी के पुत्र हैं, ने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए यह कहा कि अर्जुन एक नीच या आप लोगों से कम युद्धशास्त्र जानने वाला ऋषि है। एक सामान्य नीच ऋषि के हाथों से आपकी हार हो रही है। आप लोग मनुष्य नहीं हो, यदि आप लोग उस अकेले ऋषि को हराएंगे, तो भी आप उन्नति को प्राप्त नहीं कर सकते। आपके स्वामी भगवान श्री शिव हैं जो कभी नहीं हारते। आप लोगों की हार से वह भगवान हारे हुए दिखने पर भी युद्ध में वही भगवान जीतेंगे। युद्ध से जो पीड़ा उन्हें प्राप्त हुई है, उस पीड़ित शिवजी को युद्धभूमि में अकेला छोड़कर भागने से जो पीड़ा होगी, उस पीड़ा को प्रदान करने वाले आप लोग पुण्य नहीं, बल की दोषपूर्ण पाप ही प्राप्त करते हैं।

इस श्लोक में कार्तिकेय महारथी अर्जुन को एक सामान्य ऋषि मानते हैं। नीच या निम्न पद का अर्थ सामान्य मनुष्य होता है, जिसमें दूसरे व्यक्ति से भी कम गुण या विशेषता होती है।

इस श्लोक में पदच्छेद करने के बाद प्रति पद के अंत में दिखाई गई संख्याओं को समान रूप से 1, 2, 3, 4 जोड़ने पर श्लोक का अन्वयवाक्य बनता है।

© Sanjeev GN  #Subhashitam
मोदी हयाननो यश्च
छेदी दुःखस्य योऽसताम् ।
भेदी सकलतत्वानां
वेदी कोऽस्य समो वद ॥


पदच्छेदः पदपरिचयशास्त्रं च ।

- मोदी, छेदी, भेदी तथा वेदी - इन्नन्तपुल्लिङ्गे, प्रथमाविभक्तौ तथा एकवचने सन्ति।
- मोदः अस्य अस्ति इति वा मोदं करोति इति मोदी।
- छदनं करोति इति छेदी। (छद् - अपवारणे धातुः)
- भेदनं करोति इति भेदी।
- सकलं वेत्ति इति वेदी/सकलं वेत्ति इति वेदी।
- हयाननः - अकारान्तपुल्लिङ्गस्य हयानन शब्दस्य प्रथमाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम्।
- हयस्य आननं इव आननं यस्य सः हयाननः।
- यः - दकारान्तपुल्लिङ्गस्य यद् शब्दस्य प्रथमाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम्।
- - अव्ययमिदम्।
- दुःखस्य - अकारान्तपुल्लिङ्गस्य दुःख शब्दस्य षष्ठीविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम्।
- यः - दकारान्तपुल्लिङ्गस्य यद् शब्दस्य प्रथमाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम्।
- असताम् - तकारान्त (दकारान्तो वा) पुल्लिङ्गस्य असत् शब्दस्य षष्ठीविभक्तेः बहुवचनान्तं पदमिदम्।
- न सत् असत्। तेषाम्।
- सकलतत्वानाम् - अकारान्तपुल्लिङ्गस्य सकलतत्व शब्दस्य षष्ठीविभक्तेः बहुवचनान्तं पदमिदम्।
- सकलानि च तानि तत्वानि च सकलतत्वानि। तेषाम्।
- कः - मकारान्तपुल्लिङ्गस्य किम् शब्दस्य प्रथमाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम्।
- अस्य - सकारान्तपुल्लिङ्गस्य अदस् शब्दस्य षष्ठीविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम्।
- समः - अकारान्तपुल्लिङ्गस्य सम शब्दस्य प्रथमाविभक्तेः एकवचनान्तं पदमिदम्।
- वद - वद व्यक्तायां वाचि इति धातोः सकर्मकस्य कर्तरीप्रयोगस्य परस्मैपदिनः लोट् लकारस्य मध्यमपुरुषस्य एकवचनान्तं क्रियापदमिदम्।

अन्वयः (संस्कृतवाक्यरचनापद्धतिः):

हे मनः यः हयाननः सदा मोदी, असतां दुःखस्य छेदी च सकलतत्वानां भेदी अस्य समः वेदी कः वद।

- हे मनः - ए मेरे मन
- यः - जो
- हयाननः - श्रीहयवदन देव जी
- सदा - हमेशा
- मोदी - आनंदमय शरीरवाले या भक्तों को आनंदप्रदान करनेवाले हैं,
- असताम् - बुरे लोगों को
- दुःखस्य - दुःख की
- छेदी - आच्छादन करनेवाले हैं
- - तथा
- सकलतत्वानाम् - सभी तत्वों के
- भेदी - भेदक या ज्ञानी हैं,
- अस्य - ऐसे हयवदन जी के
- समः - समान
- वेदी - ज्ञानी
- कः - कौन हैं
- वद - बताओ।

विवरण:

जैसे कि कल एक श्लोक की चर्चा हयवदन जी पर की गई थी, यह श्लोक भी उसी "सरसभारतीविलासः" नामक ग्रंथ का एक श्लोक है, जिसे 15वीं शती के माध्ववैष्णवधर्म के प्रसिद्ध योगी श्रीवादिराजतीर्थ जी ने लिखा है।

यह श्लोक भी अत्यंत प्रचलित और सुलभ "अनुष्टुप्" छंद में है। इस श्लोक में "मोदी, छेदी, भेदी, वेदी" पद श्लोक के हर पाद के आरंभ में उपयोग किए गए हैं, इसलिये यहाँ वर्णप्रासालंकार का उपयोग किया गया है।

श्लोक में यतिवर जी अपने मन से पूछ रहे हैं: हे मन, बताओ, श्रीहयवदन जी के अलावा वह कौन देवता है जो हमेशा आनंदित रहकर सबको आनंदित करते हैं? वह कौन है जो हयवदन जी की तरह हमेशा असुरों और दुष्ट स्वभाव के लोगों को दुःख का आच्छादन करते हैं, या उन्हें दुःख देते हैं? वह कौन है जो हयवदन जी से परे ब्रह्मांड के सभी तत्वों का ज्ञाता है, और वह कौन है जो इन सभी विषयों में इनकी समानता रखता है? अर्थात्, कोई भी नहीं है।

© Sanjeev GN  #Subhashitam
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चाणक्य नीति ⚔️
✒️ दशमः अध्याय

♦️श्लोक :- १

धनहीनो न च हीनश्च धनिक स सुनिश्चयः।
विद्या रत्नेन हीनो यः स हीनः सर्ववस्तुषु ॥१॥

♦️भावार्थ - ग़रीब इंसान दीन-हीन नहीं है। वह विद्या के धन से युक्त हो सकता है। लेकिन जिसके पास विद्यारूपी सम्पत्ति नहीं है, वह सब वस्तुओं से हीन है।

#chanakya
हरिःॐ। भानुवासर-सुप्रभातम्।

आकाशवाण्या अद्यतनप्रातःकालवार्ताः।

जयतु संस्कृतम्॥
📚 श्रीमद बाल्मीकि रामायणम 📚

🔥 बालकाण्ड: 🔥
।। एकादशः सर्गः ।।

🍃 ततः प्रमुदिताः सर्वे दृष्ट्वा तं नागरा द्विजम् ।
प्रवेश्यमानं सत्कृत्य नरेन्द्रणेन्द्रकर्मणा ।।२७।।

⚜️ ऋषि श्रृंग का धूमधाम से नगर में इन्द्र समान पराक्रमी महाराज दशरथ द्वारा आगत स्वागत हुआ देख, समस्त पुरवासी बहुत प्रसन्न हुए ॥२७॥

🍃 अन्तःपुरं प्रवेश्यनं पूजां कृत्वा च शास्त्रतः।
कृतकृत्यं तदात्मानं मेने तस्योपवाहनात्॥२८॥

⚜️ अन्तःपुर में उनके (ऋष्यशृङ्ग के ) जाने पर वहाँ भी शास्त्र विधि के अनुसार उनका पूजन किया गया और महाराज ने मुनि प्रवर के आगमन से अपने को कृतकृत्य माना ॥२८॥

#ramayan
📙 ऋग्वेद

सूक्त - २१ , प्रथम मंडल ,
मंत्र - ०३, देवता - इन्द्र और अग्नि

👍 ता मित्रस्य प्रशस्तय इन्द्राग्नी ता हवामहे, सोमपा सोमपीतये.. (३)

⚜️ हम मित्र देव की प्रशंसा के लिए इंद्र और अग्नि को इस यज्ञ में बुला रहे हैं। वे दोनों सोमरस पीने वाले हैं। हम उन्हीं दोनों को सोमरस पीने के लिए बुला रहे हैं। (३)

#rgveda
चाणक्य नीति ⚔️
✒️ दशमः अध्याय

♦️श्लोक :- २

दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं जलं पिवेत्।
शास्त्रपूतं वदेद् वाक्यं मनःपूतं समाचरेत् ॥२॥

♦️भावार्थ - आँखों से अच्छी तरह देखकर धरती पर पैर रखें, कपड़े से छानकर पानी पिएँ, शास्त्र से शुद्ध करके अर्थात् शास्त्र-सम्मत वाक्य ही बोलें और मन में सोच-विचारकर जो पवित्र काम हो, उसे ही भली प्रकार से करें।

#chanakya
🔥 बालकाण्ड: 🔥
।। एकादशः सर्गः ।।

🍃 अन्तःपुराणि सर्वाणि शान्तां दृष्ट्वा तथागताम्।
सह भतत्रा विशालाक्षी प्रीत्यानन्दस्नुपागमन्॥२९॥

⚜️ ऋषिप्रवर के साथ उनकी पत्नी बड़े बड़े नेत्र वाली शान्ता को पायी देख, अन्तःपुरवासिनी सब रानियों ने बड़ा आनन्द मनाया॥२९॥

🍃 पूज्यामाना च ताभिः सा राज्ञा चैव विशेषतः।
उवास तत्र सुखिता कचित्कालं सहर्त्विजा॥३०॥

👉 🚩इति एकादशः सर्गः

⚜️ रानियों और विशेष कर महाराज दशरथ द्वारा पूजे जाकर शान्ता, अपने पति ऋषि श्रृंग सहित रनवास में कुछ दिनों तक सुख से रहे॥३०॥

#ramayan
📙 ऋग्वेद

सूक्त - २१ , प्रथम मंडल ,
मंत्र - ०४, देवता - इन्द्र और अग्नि

🍃 उग्रा सन्ता हवामह उपेदं सवनं सुतम् इन्द्राग्नी एह गच्छताम्.. (४)

⚜️ हम शत्रुनाशन में क्रूर उन्हीं दोनों को इस सोमरसपूर्ण यज्ञ में बुला रहे हैं। वे इंद्र और अग्नि इस यज्ञ में आवें (४)

#rgveda