संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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ओ३म्
३३८. संस्कृत वाक्याभ्यासः

हिमा कृषकस्य पुत्री अस्ति

तस्याः पिता प्रतिदिनं क्षेत्रं गच्छति।

हिमा प्रातः विद्यालयं गच्छति।

मध्याह्ने पित्रे भोजनं दातुं सा अपि क्षेत्रं गच्छति।

पित्रा सह सा अपि भोजनं करोति।

सा भोजनपात्राणि नीत्वा कुटीरम् आगच्छति।

गृहम् आगत्य मातुः साहाय्यं करोति।

सायंकाले सा धावति।

बहु वेगेन धावति।

प्रातः पञ्चवादने उत्थाय पुनः धावति।

हिमायाः पार्श्वे साधनानि न सन्ति।

तथापि सा अखिलविश्व-धावनस्पर्धायां स्वर्णपदकं प्राप्तवती।

हिमायै कोटिशः अभिनन्दनानि ।


ओ३म्
३३९. संस्कृत वाक्याभ्यासः

दानेन धनं वर्धते ।
= दान से धन बढ़ता है।

दानेन यशः वर्धते ।
= दान से यश बढ़ता है।

बाल्यात् प्रभृतिः विकासः इदम् उपदेशं श्रृणोति स्म।
= बचपन से विकास यह उपदेश सुनता था।

चतुर्भ्यः वर्षेभ्यः पूर्वं विकासः व्यवसायम् आरब्धवान् ।
= चार वर्ष पहले विकास ने व्यवसाय प्रारम्भ किया।

विकासः अर्जितात् धनात् प्रतिदिनं दानं ददाति।
= विकास कमाए हुए धन से प्रतिदिन दान देता है।

सः निर्धनेभ्यः छात्रेभ्यः धनं ददाति।
= वह निर्धन छात्रों को धन देता है।

विकासः रुग्णेभ्यः धनं ददाति।
= विकास रोगियों को धन देता है।

गोशालायै दानं ददाति।
= गौशाला को दान देता है।

दानेन विकासस्य व्यवसायः विकसति।
= दान से विकास का व्यवसाय विकसित होता है।

विकासः बहु सुखम् अनुभवति।
= विकास बहुत सुख अनुभव करता है।


ओ३म्
३४०. संस्कृत वाक्याभ्यासः

किमपि कर्म फलविहीनं न भवति।
= कोई भी कर्म फल बिना का नहीं होता है।

यद् किमपि वयं कुर्मः तस्य फलं तु मिलति एव।
= जो भी हम करते हैं उसका फल तो मिलता ही है।

कर्म विना कोsपि न जीवति।
= कर्म के बिना कोई नहीं जीता है।

कर्म विना कोsपि जीवितुं न शक्नोति।
= कर्म के बिना कोई जी नहीं सकता है।

अनुचितस्य कर्मणः फलम् अनुचितमेव भवति।
= अनुचित कर्म का फल अनुचित ही होता है।

उचितस्य कर्मणः फलम् उचितमेव भवति।
= उचित कर्म का फल उचित ही होता है।

उचितम् अनुचितं विचिन्त्य एव कर्म करणीयम् ।
= उचित अनुचित का विचार कर के ही कर्म करना चाहिये।

अस्माकं कर्मणा अन्ये अपि लाभं प्राप्नुवन्ति ।
= हमारे कर्म से अन्यों को भी लाभ होता है।

संस्कृतप्रचारकः अन्येषां लाभाय एव संस्कृतं पाठयति।
= संस्कृत प्रचारक दूसरों के लाभ के लिये ही संस्कृत पढ़ाता है।

योगप्रचारकः योगं कारयति जनाः लाभान्विताः भवन्ति।
= योगप्रचारक योग कराता है लोग लाभान्वित होते हैं।

चिकित्सकः चिकित्सां करोति , रुग्णः स्वस्थः भवति।
= चिकित्सक चिकित्सा करता है रोगी स्वस्थ होता है।

पुण्यकर्मणि ये रताः प्राप्स्यन्ति पुण्यं फलम् ।
= पुण्य कर्म में जो रत हैं वे पुण्य फल ही पाएँगे।


ओ३म्
३४१. संस्कृत वाक्याभ्यासः

किमपि कर्म फलविहीनं न भवति।
= कोई भी कर्म फल बिना का नहीं होता है।

यद् किमपि वयं कुर्मः तस्य फलं तु मिलति एव।
= जो भी हम करते हैं उसका फल तो मिलता ही है।

कर्म विना कोsपि न जीवति।
= कर्म के बिना कोई नहीं जीता है।

कर्म विना कोsपि जीवितुं न शक्नोति।
= कर्म के बिना कोई जी नहीं सकता है।

अनुचितस्य कर्मणः फलम् अनुचितमेव भवति।
= अनुचित कर्म का फल अनुचित ही होता है।

उचितस्य कर्मणः फलम् उचितमेव भवति।
= उचित कर्म का फल उचित ही होता है।

उचितम् अनुचितं विचिन्त्य एव कर्म करणीयम् ।
= उचित अनुचित का विचार कर के ही कर्म करना चाहिये।

अस्माकं कर्मणा अन्ये अपि लाभं प्राप्नुवन्ति ।
= हमारे कर्म से अन्यों को भी लाभ होता है।

संस्कृतप्रचारकः अन्येषां लाभाय एव संस्कृतं पाठयति।
= संस्कृत प्रचारक दूसरों के लाभ के लिये ही संस्कृत पढ़ाता है।

योगप्रचारकः योगं कारयति जनाः लाभान्विताः भवन्ति।
= योगप्रचारक योग कराता है लोग लाभान्वित होते हैं।

चिकित्सकः चिकित्सां करोति , रुग्णः स्वस्थः भवति।
= चिकित्सक चिकित्सा करता है रोगी स्वस्थ होता है।

पुण्यकर्मणि ये रताः प्राप्स्यन्ति पुण्यं फलम् ।
= पुण्य कर्म में जो रत हैं वे पुण्य फल ही पाएँगे।


ओ३म्
३४२. संस्कृत वाक्याभ्यासः

वीथ्यां जलम् आगतम्
= गली में पानी आ गया।

कुतः आगतम् ?
= कहाँ से आया ?

पश्यामि ।
= देखता हूँ।

ओह …. दुर्गन्धः आगच्छति।
= ओह … दुर्गन्ध आ रही है।

एतद् जलं नास्ति।
= ये पानी नहीं है।

मलम् अस्ति।
= मल है।

वीथ्याः मलनालात् मलिनं जलं बहिः आगच्छति।
= गली की गटर लाइन से गंदा पानी बाहर आ रहा है।

मलकोषः पूरितः जातः।
= गटर भर गया है।

वीथ्यां मलिनं जलं प्रवहति तर्हि जनाः कथं बहिः गमिष्यन्ति।
= गली में गंदा पानी बह रहा है तो लोग बाहर कैसे जाएँगे।

नगरसेवासदनं गच्छामि ….
= नगर सेवा सदन जाता हूँ …

निवेदयिष्यामि ….
= निवेदन करूँगा ….

#Vakyabhyas
एवा पित्रे विश्वदेवाय वृष्णे
यज्ञैर्विधेम नमसा हविर्भिः।
बृहस्पते सुप्रजा वीरवन्तो
वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥
(4/50/6)

विनियोगः

एवा पित्रैति मन्त्रस्य गृत्समदऋषिः बृहस्पतिर्विष्णुर्देवता त्रिष्टुप् छन्दः अन्तःपटनिबर्हणार्थे जपे विनियोगः ।

पदच्छेदः

एव। आ। पित्रे। विश्वदेवाय। वृष्णे। यज्ञैः विधेम। नमसा। हविर्भिः। बृहस्पते। सुप्रजाः। वीरवन्तः। वयम्। स्याम। पतयः। रयीणाम् ।

अन्वयः (संस्कृतवाक्यरचनापद्धतिः)

पित्रे विश्वदेवाय वृष्णे एव यज्ञैः हविर्भिः च नमसा आविधेम । हे बृहस्पते वयं सुप्रजाः वीरवन्तः च रयीणां पतयः स्याम ।

अन्वयार्थः
- पित्रे - समस्त ब्रह्मांडों के पिता या जनक
- विश्व - समस्त जीवियों के
- देवाय - देवता
- वृष्णे - खुशियों की वर्षा करनेवाले को
- एव - ही
- यज्ञैः - यज्ञों से
- हविर्भिः - आहुतियों से
- - तथा
- नमसा - नमस्कारों से
- आविधेम - सेवा करेंगे
- हे बृहस्पते - हे बृहस्पति नाम के श्रीमन्महाविष्णु जी
- वयम् - हम सब
- सुप्रजाः - उत्तम संतानों से भरें
- वीरवन्तः - शक्ति तथा वीर्य से भरें
- - तथा
- रयीणाम् - सभी प्रकार के संपत्तियों के
- पतयः - स्वामी
- स्याम - बनें

विवरण:

श्रीमहाविष्णु जी का पुरुष अवतार सबसे पहला था, जो समस्त ब्रह्मांड के सृजन के समय प्रकट हुआ था। उस समय की गणना मनुष्यों, देवताओं, गंधर्वों आदि की समझ से परे है। जब ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई थी, तभी विराट पुरुष के ज्ञानानंदमय शरीर से वेदों का आविर्भाव हुआ था। लेकिन ये वेद आजकल की पुस्तकों के रूप में नहीं थे, बल्कि शब्दों के रूप में ब्रह्मांड में ही स्थित थे।

इसके बाद ऋषि-मुनियों ने ध्यान में मग्न होकर इन शब्दों को मन से देखा, समझा और उन शब्दों को ऋचाओं में बदल दिया। जिस ऋषि ने जिन ऋचाओं को मन से देखा, उस ऋषि को उन ऋचाओं के समूह के मंत्रों का दृष्टा कहा जाता है। अतः ऋग्वेद के चौथे मंडल के पचासवें मंत्र की छठी ऋक् का विश्लेषण यहाँ ऊपर किया गया है, इस ऋक् के दृष्टा श्री गृत्समद ऋषि हैं। यह मंत्र या सूक्त 11 ऋचाओं से सुसज्जित है और सभी ऋचाएँ बृहस्पति नामक देवता को संबोधित हैं और उनके गुणों तथा कार्यों से संबंधित हैं।

त्रिष्टुप् छंद वेदों में अधिकतर उपयोग होने वाला एक छंद है, जिसमें प्रत्येक पाद में 11 अक्षर होते हैं। ऋग्वेद में यह छंद एक, दो, तथा तीन पादों में भी कहीं-कहीं पर उपलब्ध है, लेकिन इस ऋक् में सभी पाद उपस्थित हैं।

पूजा की समाप्ति के बाद भगवान की मूर्तियों को वस्त्रों में लपेट कर पूजामंडप या पीठ पर रखा जाता है। पुनः पूजा के समय इस वस्त्र को हटाया जाता है, और उस समय इस ऋक् या इस 50वें मंत्र या सूक्त का पाठ किया जाता है।

लौकिक काव्यों में उपसर्ग क्रियापदों के साथ होते हैं, जैसे प्रहरति, आहूयते, संस्मरते आदि, परंतु वेदों के साहित्य में या वेदकाव्य में ऐसे नियम नहीं होते। इसीलिए इस ऋक् में "एव" पद के बाद "आ" उपसर्ग है, जो "विधेम" क्रियापद के साथ मिलकर "आविधेम" बनता है।

इस ऋक् में गृत्समद ऋषि भगवान श्रीमहाविष्णु या बृहस्पति देवता से प्रार्थना करते हैं।

समस्त जीवों और देवताओं के देवता, जो सभी को खुशियाँ प्रदान करते हैं और इसीलिए समस्त ब्रह्मांड के पिता हैं, उनके लिए हम यज्ञ कर के आहुतियों का निवेदन करेंगे और नमस्कार करेंगे। हे बृहस्पति जी, हम वीर्यवान (बलवान), सत्संतानयुक्त और सभी प्रकार की संपत्तियों के मालिक बनें।

इस ऋक् में ऋषिवर्य श्री गृत्समद ने कहीं भी उत्तम पुरुष का एकवचन क्रियापद का प्रयोग नहीं किया है। अर्थात् यह एक सामूहिक प्रार्थना मंत्र है, जो सभी जीवों के उन्नति और खुशियों के लिए की गई है। यही तो हमारी भारतीय संस्कृति का संकेत है, जहाँ एक व्यक्ति केवल अपने लिए ही नहीं, बल्कि समस्त ब्रह्मांड में स्थित जीवों के कल्याण के लिए प्रार्थना करता है।

आइए, इस ऋक् का हम भी मनन और पाठ कर के ब्रह्मांड में जहाँ कहीं भी जीव हों, उनके लिए प्रार्थना करें।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

ॐ नमो भगवते हयतुण्डाकृतिने


© Sanjeev GN #Subhashitam
अद्य तस्य पुण्यतिथि🙏🏼🥀

चित्तरञ्जन दास  (वङ्ग: চিত্তরঞ্জন দাস Chittorônjon Dash) (प्रसिद्धनाम- देशबन्धु) (५ नवेम्बर् १८७० -१६ जून् १९२५) एकः राजनैतिकज्ञः आसीत् । भारतस्य स्वाधीनतायाः प्राग् स्वराज् इति दलस्य प्रतिष्ठाता अपि आसीत् एषः । तदानीन्तने काले एषः आदेशे विख्यातः न्यायवादी आसीत् । बहुधनोपार्जनकारी न्यायवादी भूत्वाऽपि सः धनं अकातरेण साहाय्यप्रार्थीनां कृते यच्छति स्म । तस्मात् एव चित्तरञ्जन दास वङ्गदेशस्य इतिहासे दानवीरः इत्योऽपि नाम्ना ख्यातः अस्ति ।
मित्रम् – किं भो ! इदानीं काव्यं किमर्थं न करोषि ? किं अभवत् ?

कविः – यस्याः कृते काव्यं कुर्वन् आसम् , तस्याः विवाहः अभवत् ।

मित्रम् – रे भो ! तस्याः स्मरणं कृत्वा अद्यापि काव्यं लिखतु , सम्यक् भवेत् ।

कविः – भवान् न जानाति वा ? तया साकम् एव मम विवाहः अभवम् ।

😆😁😄😂😁🤣😄😂

#hasya
हितोपदेशः - HITOPADESHAH

मूल श्लोकः:

कृतशतमसत्सुनष्टं।
सुभाषितशतं च नष्टमबुधेषु।।
वचनशतमवचनकरे।
बुद्धिशतमचेतने नष्टम्।। 394/147।।

अर्थः:

दुष्ट को किये गये सैंकड़ों उपकार व्यर्थ हो जाते हैं, मूर्ख को दिये गये सैंकड़ों उत्तम उपदेश भी निष्फल हो जाते हैं, जो हितवचन नहीं मानता, उसके लिए किये गये सैंकड़ों हितवचन व्यर्थ जाते हैं, और मूर्ख व्यक्ति को दी गई सैकड़ों बुद्धिमान बातें भी बेकार हो जाती हैं।

Translation:

Hundreds of good deeds are wasted when done for a wicked person, hundreds of wise sayings are lost on a fool, hundreds of well-meaning words are useless to someone who doesn’t listen, and hundreds of wisdom-filled teachings are wasted on the mindless.

ॐ नमो भगवते हयास्याय।

#Subhashitam
June 16, 2021

 समुद्रहत्याप्रकरणे दशकोटि- परिहारधनस्य विषये निर्णयः। नियमप्रक्रमाणां परिसमाप्तिः।

     नवदिल्ली> भारते समुद्रहत्याप्रकरणे प्रचाल्यमानाः सर्वे प्रक्रमाः सर्वोच्चन्यायालयेन समापिताः। इट्टलीराष्ट्रेण परिहारधनत्वेन दत्तानि दशकोटिरूप्यकाणि धीवरयोः कुटुम्बाभ्यां तथा नौकायाः स्वामिने च दातुं केरलस्य उच्चन्यायालयाय उत्तरदायित्वम् अदात्। इट्टलीदेशे प्रचाल्यमानेषु विचारणा प्रक्रमेषु केन्द्रसर्वकारस्य केरलसर्वकारस्य च परस्परसहकारित्वम् आवश्यकम् इत्यपि सर्वोच्चन्यायालयेन निगदितम्। २०१२ फेब्रुवरिमासस्य१५ तमे दिने द्वौ केरलीयधीवरौ इट्टलीदेशस्य नाविकसेनायाः गोलिकाप्रहरेण मारितौ। अस्मिन् प्रकरणे अनुवर्तमानाः न्यायालयप्रक्रमाः एव सर्वोच्चन्यायालयेन समापिताः। केन्द्रसर्वकारस्य प्रार्थनां परिगणय्य एव न्यायालयस्य आदेशः। प्रकरणस्य समाप्तये केरलसर्वकारः अपि अनुकूलयत्। नाविकानां गोलिकाप्रहरेण मृतस्य जलस्तिनस्य, अजेष् पिङ्केः च कुटुम्बाय प्रत्येकं चतुष्कोटिरूप्यकाणि तथा नौकायाः स्वामिने परिहारधनत्वेन द्विकोटिरूप्यकाणि च लप्स्यन्ते। सर्वोच्चन्यायालयस्य आदेशम् अनुसृत्य दिल्लीस्थे 'पाट्याल-गृहन्यायालये' संभूतानि सर्वाणि प्रकरणानि इदानीं समापितानि।

~ संप्रति वार्ता
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🚩आज की हिंदी तिथि

🌥️ 🚩युगाब्द - ५१२३
🌥️ 🚩विक्रम संवत - २०७८
🚩तिथि - सप्तमी रात्रि 09:59 तक तत्पश्चात अष्टमी
दिनांक - 17 जून 2021
दिन - गुरुवार
शक संवत - 1943
अयन - उत्तरायण
ऋतु - ग्रीष्म
मास - ज्येष्ठ
पक्ष - शुक्ल
नक्षत्र - पूर्वाफाल्गुनी रात्रि 10:13 तक तत्पश्चात उत्तराफाल्गुनी
योग - वज्र सुबह 06:50 तक तत्पश्चात सिद्धि
राहुकाल - दोपहर 02:20 से शाम 04:01 तक
सूर्योदय - 05:58
सूर्यास्त - 19:20
दिशाशूल - दक्षिण दिशा में
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*१० चतुर्थगणधातवः (य)*

नश्, नश् - णश - अदर्शने
पुष्, पुष् - पुष - पुष्टौ
नृत्, नृत् - नृती - गात्रविक्षेपे
क्रुध्, क्रुध् - क्रुध - कोपे
कुप्, कुप् - कुप - क्रोधे
तुष्, तुष् - तुष - तुष्टौ
अस्, अस् - असु - क्षेपणे
क्लिद्, क्लिन्द् - क्लिन्दू - आर्द्रीभावे
तृप्, तृप् - तृप - प्रीणने (तृप्तिः तर्पणं च)
दुष्, दुष् - दुष - वैकृत्ये
----------------------
*१० षष्ठगणधातवः (अ)*

लिख् लिख् - लिख - अक्षरविन्यासे
विश् विश् - विश - प्रवेशने
सृज् सृज् - सृज - विसर्गे
स्पृश् स्पृश् - स्पृश - स्पर्शने
चर्च् चर्च् - चर्च - अध्ययने
स्फुट् स्फुट् - स्फुट - विकसने
त्रुट् (त्रुट्यति, त्रुटति) त्रुट् - त्रुट - छेदने
प्रच्छ् (पृच्छ्) पृच्छ् - प्रच्छ - ज्ञीप्सायाम्
मृश् मृश् - मृश - आमर्शने
स्फुर् स्फुर् - स्फुर - स्फुरणे
----------------------

*१० दशमगणधातवः (अय)*

चुर् (चोर्), चुर् - चुर - स्तेये
कॄत् (कीर्त्) कॄत् - कॄत - संशब्दने
घुष् (घोष्) घुष् - घुष - कान्तिकरणे
दण्ड् दण्ड् - दण्ड - दण्डनिपाते
पाल् पाल् - पाल - रक्षणे
पीड् पीड् - पीड - अवगाहने
चूर्ण् चूर्ण् - चूर्ण - प्रेरणे, सङ्कोचने च
तर्क् तर्क् - तर्क - भाषायाम्, वितर्कणे च
पूर् पूर् - पूरी - आप्यायने
भक्ष् भक्ष् - भक्ष – अदने
Forwarded from ~संस्कृतानन्दः ।

चित् / चन इति एतयोः विषये प्रश्नक्रीडा अस्ति एषा ।

क्रीडनस्य आरम्भात् पूर्वं स्वरान्त-शब्दानां रूपाणि सम्यक् अवगच्छन्तु ।

किम् इति एतस्य शब्दस्य रूपाणि ( त्रीषु लिङ्गेषु ) सम्यक् स्मरणे स्थापयन्तु ।

चित्-चन-रचनाविषये सम्यक् अभ्यासः भवेत् ।

एषा प्रश्नक्रीडा प्रथम-शतेच्छुकानां कृते एव तथैव १६-जून-दिनाङ्के रात्रौ ११-००-वादनयावत् एव क्रीडितुं शक्यते । तस्मात् अनन्तरं सम्बन्धनी ( link ) कालबाह्या ( expired ) भविष्यति ।

रूपकनाम ( nickname ) लिखित्वा अपि क्रीडितुं शक्यते ।
नामपरिवर्तनं कृत्वा पुनः पुनः अपि क्रीडनं भवितुं शक्नोति ।

क्रीडनार्थं कृपया किञ्चित् नोदनं कुर्वन्तु ।
👇 👇 👇

https://kahoot.it/challenge/01512630?challenge-id=012c0a64-a559-4d0c-b45d-811e0d326dd4_1623865686205
🍃 हतपापचये हेयः लंकेशः अयम् असारधीः।
रजिराविरतेरापः हा हा अहम् ग्रहम् आर घः ॥ २०॥


🔸पापी राक्षसों का संहार करनेवाले (राम) पर आक्रमण का विचार, नीच, विकृत लंकेश – सदैव जिसके संग मदिरापान करनेवाले क्रूर राक्षसगण विद्यमान हैं – ने किया।


विलोम श्लोक :—

🍃 घोरम् आह ग्रहं हाहापः अरातेः रविराजिराः।
धीरसामयशोके अलं यः हेये च पपात हः ॥ २०॥


🔸व्यथाग्रसित हो, शत्रु के शक्ति को भूल, उन्हें (कृष्ण को) बंदी बनाने का आदेश गन्धर्वराज इंद्र – सूर्य की तरह शुभ्र स्वर्णाभूषण अलंकृत मगर कुत्सित बुद्धि से ग्रस्त - ने दे दिया

#Viloma_Kavya
चाणक्य नीति ⚔️

✒️ पंचदशः अध्याय

♦️श्लोक :- १४

अयममृतणनिधानं नायको अपि औषधीनां कमलासहजातः कान्तियुक्तोऽपि चन्द्रः।
भवति विगतरश्मिर्मण्डलं प्राप्य भानोः परसदननिविष्टः को न लघुत्वं याति।।१४।।

♦️भावार्थ -- चन्द्रमा अमृत का भण्डार है, औषधियों को रसयुक्त करने वाला होने से उनका अधिपति है। समुद्र से लक्ष्मी जी के साथ उत्पन्न होने के कारण उनका भाई है। अत्यन्त चमकीला होने के कारण तेजवान है, किन्तु सूर्यमण्डल में पहुंचते ही वह निस्तेज हो जाता है। सच है दूसरे के घर जाकर कौन लघुता को प्राप्त नहीं होता।

#Chanakya
Forwarded from kathaaH कथाः
जून् २०१७ सम्भषणसन्देश:
ओ३म्
३४३. संस्कृत वाक्याभ्यासः

बहु विशालं सदनम् अस्ति।
= बहुत विशाल सदन है।

सदनस्य द्वारम् अपि बहु विशालम्
= सदन का द्वार भी बहुत बड़ा है।

सदनं प्रविशामि अहम् ।
= सदन में मैं प्रवेश करता हूँ।

द्वारस्य अन्तः उद्यानम् अस्ति।
= दरवाजे के अंदर बगीचा है।

स्वागतकक्षः तु बहु विशालः अस्ति।
= स्वागत कक्ष तो बहुत विशाल है।

सदने अष्ट प्रकोष्ठा: सन्ति।
= सदन में आठ कमरे हैं

पाकशाला अपि बहु विशाला अस्ति।
= रसोई भी बहुत विशाल है।

कति जनाः निवसन्ति ?
= कितने लोग रहते हैं ?

एकः एव वृद्धः निवसति।
= एक वृद्ध ही रहता है।

अन्ये सर्वे कुत्र सन्ति ?
= अन्य सब कहाँ है ?

ज्येष्ठ: पुत्रः हाँगकाँग-देशे निवसति।
= बड़ा बेटा हाँगकाँग रहता है।

कनिष्ठ: पुत्रः जोहान्सबर्ग-नगरे निवसति।
=छोटा बेटा जोहान्सबर्ग में रहता है।

वृद्ध: कथं जीवति ?
= वृद्ध कैसे रहता है ?

पुत्रौ धनं प्रेषयतः ।
= दोनों पुत्र धन भेजते हैं।

सदने चत्वारः सेवकाः सन्ति।
= सदन में चार सेवक हैं ।

तिस्रः सेविकाः सन्ति ।
= तीन सेविकाएँ हैं ।

पुत्रयोः धनेन सेवकाः अपि लाभान्विताः भवन्ति।
= पुत्रों के धन से सेवक भी लाभान्वित होते हैं ।


ओ३म्
३४४. संस्कृत वाक्याभ्यासः

ह्यः रात्रौ सम्मान समारोहः अभवत्।
= कल रात सम्मान समारोह हुआ।

लवजी भ्रातुः सर्वे सम्मानं कृतवन्तः।
= लवजी भाई का सम्मान किया गया।

लवजी किं करोति ?
= लवजी क्या करता है ?

लवजी नववादने कार्यालयम् उद्घाटयति।
= लवजी नौ बजे कार्यालय खोलता है।

कार्यालये स्वच्छतां करोति।
= कार्यालय में स्वच्छता करता है।

कार्यालयस्य अवकरं बहिः क्षिपति।
= कार्यालय का कूड़ा बाहर फेंकता है।

कार्यालयस्य पात्राणि प्रक्षालयति।
= कार्यालय के पात्र धोता है।

घटे जलं पुरयति।
= घड़े में पानी भरता है।

पत्रालयतः पत्राणि आनयति।
= डाकघर से पत्र लाता है।

पत्राणि पञ्जिकायां ग्रथ्नाति।
= कागजातों को फाइल में संगृहीत करता है।

अतिथीन् जलं पाययति।
= अतिथियों को जल पिलाता है।

लवजी सर्वदा हसति।
= लवजी हमेशा हँसता है।

सायंकाले सः कार्यालयं पिधायति।
= शाम को वह कार्यालय बन्द करता है।

कार्यालयस्य कुञ्चिकां गृहे नयति।
= कार्यालय की चाभी घर ले जाता है।

लवजी कदापि न ग्लायति।
= लवजी कभी भी नहीं थकता है।


ओ३म्
३४५. संस्कृत वाक्याभ्यासः

सिंगापुरतः कञ्चन-भगिन्याः दूरवाणी आसीत् ।
= सिंगापुर से कंचन बहन का फोन था।

* अहं कञ्चन , सिंगापुरतः ।

* कथम् अस्ति भवान् ?

* अहम् अधुना सिंगापुरे निवसामि ।

* मम पौत्रः अत्र अभियन्ता अस्ति।

* पौत्रवधू अपि पर्यटन-संस्थाने कार्यं करोति।

* सिंगापुरे लघुभारतम् अस्ति।

* तत्र वयं निवसामः।

* मम गृहस्य पार्श्वे आर्यसमाजः अपि अस्ति।

* अहं यज्ञार्थं तत्र गच्छामि।

* अत्र किमपि कष्टं नास्ति।

कञ्चन भगिनी सर्वम् एकसाकम् उक्तवती।

अहं तु मध्ये मध्ये ” आम् , उत्तमम् , शोभनम् , एवं वा ? ” इति उक्तवान् ।


ओ३म्
३४६. संस्कृत वाक्याभ्यासः

सुधा – पश्य भ्रातरम् !
= देखो भैया को

विभा – कुत्र अस्ति सः ?
= कहाँ है वो ?

सुधा – रेलयानेन अवतरति ।
= रेल द्वारा उतर रहा है।

विभा – ” रेलयानात् अवतरति” तथा वद ।
= “रेल से उतर रहा है” ऐसे बोलो ।

सुधा – आम् अहम् अशुद्धम् उक्तवती।
= हाँ मैं अशुद्ध बोली ।

विभा – तर्हि शुद्धं किम् ?
= तो शुद्ध क्या है ?

सुधा – भ्राता रेलयानेन आगतवान् ।
= भैया रेल द्वारा आए ।

भ्राता रेलयानात् अवतरति।
= भैया रेल से उतर रहा है।

विभा – आम् अधुना शुद्धम् ।
= हाँ अब शुद्ध है।

विभा – चल , भ्रातरं मिलावः ।
= चलो , भैया को मिलते हैं।


ओ३म्
३४७. संस्कृत वाक्याभ्यासः

ये ज्ञानिनः सन्ति ते मम गुरवः
= जो ज्ञानी हैं वे मेरे गुरु हैं ।

ये वेदपाठिनः सन्ति ते मम गुरवः
= जो वेदपाठी हैं वे मेरे गुरु हैं

ये सदाचारिणः सन्ति ते मम गुरवः
= जो सदाचारी हैं वे मेरे गुरु हैं

ये सर्वदा सन्मार्गे चलितुं प्रेरयन्ति ते मम गुरवः
= जो हमेशा सन्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करते हैं वे मेरे गुरु हैं

ये मम दोषान् दूरीकुर्वन्ति ते मम गुरवः
= जो मेरे दोषों को दूर करते हैं वे मेरे गुरु हैं

ये मम विकारान् नाशयन्ति ते मम गुरवः
= जो मेरे विकारों को नष्ट करते हैं वे मेरे गुरु हैं

ये मां निर्भयं कुर्वन्ति ते मम गुरवः सन्ति
= जो मुझे निर्भय बनाते हैं वे मेरे गुरु हैं

सर्वेभ्यः वन्दनीयेभ्यः गुरुभ्यः सादरं नमांसि भूयांसि।
= सभी वन्दनीय गुरुओं को सादर अनेक बार नमन

श्रद्धास्पदेषु गुरुचरणेषु सादरं प्रणतयः
= श्रद्धास्पद गुरुचरणों में सादर अनेक प्रणाम ।

गुरुपूर्णिमा-पर्वणः सर्वेभ्यः मङ्गलकामनाः
= गुरुपूर्णिमा पर्व की सभी को मंगलकामनाएँ

#Vakyabhyas
अद्य तस्याः पुण्यतिथि🙏🏼💐

झांसीराणीलक्ष्मीवर्यायाः (हिन्दी: झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, आङ्ग्ल: Rani of jhansi) (१८३५-१८५८) जन्म १८३५तमे संवत्सरे नवेम्बरमासस्य १९ तमे दिनाङ्के अभवत् । सा १८५८ तमे वर्षे जूनमासस्य १७ दिनाङ्के दिवङ्गता। लक्ष्मीबायी वारणास्याम् अजायत। सा 'झान्सी की राणी' इति नाम्ना ख्यातम् अगात । भारतस्य प्रथमे स्वातन्त्र्यसङ्ग्रामे तस्याः प्रमुखं योगदानम् आसीत्। सा आङ्लविरोधनीतेः प्रतीका आसीत्। लक्ष्मीबायी उत्तरभारतस्थितस्य झान्सीराज्यस्य राज्ञी आसीत्। सा आङ्लेयान् विरुद्ध्य भारतस्य स्वातन्त्र्यसङ्ग्रामम् आरब्धवती।


महाराज्ञी लक्ष्मीः इत्यस्याः वीरांगनायाः जन्म महाराष्ट्रे राज्ये कृष्णानद्यास्तटे एकस्मिन् ग्रामे पञ्चत्रिंशदधिके अष्टादशशततमे वर्षे (१८३५) समभूत् । शैशवे अस्याः नाम् 'मनुबाई' इति अभूत् । अस्याः जनकः मोरोपन्तः तदानीं पेशवा बाजीरावस्य सेवायामसीत् । अस्याः जननी 'भागीरथी बाई' साध्वी ईशभक्ता च नारी आसीत् । उभावपि तां प्रियां सुतां मनुदेवीं स्नेहेन अपालयताम् । तदा बाजीरावः कानपुर नगरस्य समीपस्थे बिठूरनामके स्थाने न्यवसत्, मनुदेव्याः शिक्षणं तत्र अभवत् । तत्र सा अचिरं शास्त्रविद्यां शस्त्रविद्यां च अलभत । सा तत्र नैपुण्यम् अवाप्नोत् । अश्वारोहणेऽपि मनुवाई अतीव कुशलिनी अभवत् ।

अनन्तरं झांसीजनपदस्य नरेशः गंगाधरः मनुदेव्याः पाणिग्रहणम् अकरोत् । ततः परं मनुबाई, 'रानी लक्ष्मीबाई' इति नाम्ना प्रसिद्धा अभवत् । उद्वाहाद् अनन्तरम् अपि सा अश्वारोहणं शस्त्राभ्यासञ्च नात्यजत् । एतस्मिन्नेव काले आंग्लजनाः भारते स्व प्रभुत्वस्थापनाय यत्नशीलाः अभवन् । कूटनीतिप्रयोगेण दिने दिने तेषां प्रभुत्वम् अवर्धत । तदैव दैवयोगात् गंगाधरस्य एकलः पुत्रः स्वर्गं गतः । पुत्रवियोगसंतप्तो गंगाधरः दामोदरनामकं शिशुमेकं दत्तकपुत्ररूपेण स्वीचकार । किञ्चित् कालानन्तरं गंगाधरोऽपि स्वयमेव् पञ्चत्वं गतः ।

अथ पतिपुत्रवियोगेन नितरां संतप्ताऽपि राज्ञी सधैर्यं राज्यस्य शासनसूत्रम् अधारयत् । अस्याः शासनकाले प्रजाः सर्वथा सुखम् अभजन्, किन्तु एतत् वैदेशिकानां कृते असहनीयम् जातम् । ते अस्याः राज्यम् उत्तराधिकारिहीनम् उद्घोष्य हस्तगतम् अकुर्वन्, राज्ञ्यै लक्ष्म्यै च स्वल्पां मासिकवृत्तिं प्रादुः । आंग्लजनाः न केवलं राज्ञ्यां ;लक्ष्म्याम् अपि तु अन्येष्वपि जनेषु अत्याचारान् अकुर्वन् । अतः सम्पूर्णे भारते यत्र तत्र स्वातन्त्र्यस्य अग्नेः स्फुलिंगाः प्रकटिताः ।

अद्य सङ्घस्य तृतीयसरसङ्घचालकः मधुकरदत्तात्रेयदेवरसस्यापि पुण्यतिथि🙏🏼💐