संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ षोडशः अध्याय

♦️श्लोक :- २

जल्पन्ति सार्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः।
हृदये चिन्तयन्त्यन्यं न स्त्रीणामेकतो रतिः ॥

♦️भावार्थ - स्त्री (यहाँ लम्पट स्त्री या पुरुष अभिप्रेत है) का ह्रदय पूर्ण नहीं है वह बटा हुआ है। जब वह एक आदमी से बात करती है तो दुसरे की ओर वासना से देखती है और मन में तीसरे को चाहती है।



♦️श्लोक :- ३

यो मोहान्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।
स तस्या वशगो भूत्वा नृत्येत् क्रीडाशकुन्तवत् ॥

♦️भावार्थ - मुर्ख को लगता है कि वह हसीन लड़की उसे प्यार करती है। वह उसका गुलाम बन जाता है और उसके इशारो पर नाचता है।



♦️श्लोक :- ४

कोऽर्थान्प्राप्य न गर्वितो विषयिणः कस्यापदोऽस्तं गताः
स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः को नाम राजप्रियः ।
कः कालस्य न गोचरत्वमगमत् कोऽर्थी गतो गौरवं
को वा दुर्जनदुर्गमेषु पतितः क्षेमेण यातः पथि ।।४।।

♦️भावार्थ - इस संसार में कोई ऐसा मनुष्य नहीं हुआ जो धन-ऐश्वर्य पाकर अहंकार ग्रस्त न हुआ हो। विषय भोगी ऐसा कोई नहीं जिसे संकटों का सामना न करना पड़ा हो। ऐसा कोई प्राणी नहीं हुआ जिसे रूपवतियों ने अपने वश में न किया हो। ऐसा कोई प्राणी नहीं जो राजा द्वारा सदा ही सम्मानित किया गया हो। ऐसा कोई प्राणी नहीं जो पैदा तो हुआ हो, किन्तु मृत्यु को प्राप्त न हुआ हो। ऐसा कोई प्राणी नहीं हुआ जो कभी याचक न बना हो। ऐसा कोई प्राणी नहीं जो दुर्जनों द्वारा सताया न गया हो अथवा जिसने दुर्गुण न अपनाए हो।

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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ षोडशः अध्याय

♦️श्लोक :- ५

न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरंगी।।
तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ।।५।।

♦️भावार्थ - स्वर्ण का मृग (हिरन) न तो किसी के द्वारा निर्मित हुआ , न पहले कभी देखा गया और न किसी से सुना ही गया। फिर भी श्री रामचन्द्र जी की कामना उसे पाने की हुई। ठीक ही है, विनाश का समय आने पर मनुष्य की बुद्धि विपरीत हो जाती हैं। (ये प्रभु की एक सीख थी संसार को)


♦️श्लोक :- ६

गुणैरुत्तमतां यान्ति नोच्चैरासनसंस्थितैः।
प्रसादशिखरस्थोऽपि किं काको गरुडायते ।।६।।

♦️भावार्थ - ऊँचे स्थान पर बैठने से कोई ऊँचा नही हो जाता। गुणवान ही ऊँचा माना जाता हैं। महल की अटारी पर बैठने से कौआ, गरुड़ नही कहलाने लगता।



♦️श्लोक :- ७

गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योऽपि सम्पदः ।
पूर्णेन्दु किं तथा वन्द्यो निष्कलङ्को यथा कुशः ।।७।।

♦️भावार्थ - सभी स्थानों पर व्यक्ति के गुणों की पूजा होती है, गुणों का आदर सम्मान होता है। संपत्ति होने पर भी गुणहीन व्यक्ति का सत्कार नहीं होता। पूर्ण चन्द्र (पूर्णिमा को) क्या वैसा दिखाई देता है, जैसा बहुत मामूली प्रकाश वाला किंतु धब्बो से रहित द्वितीया का चंद्रमा? आचार्य चाणक्य कहते है कि कभी नहीं, ऐसा कभी नहीं होता।

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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ षोडशः अध्याय

♦️श्लोक :- ८

परैरुक्तगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत् ।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः ।।८।।

♦️भावार्थ - जिसके गुणों की प्रशंसा दूसरे लोग करते हैं, वह अल्पगुणी होने पर भी गुणवान माना जाएगा । किंतु पूर्णगुणी होने पर भी जो स्वयं अपने गुणों की चर्चा करता है वह गुणहीन ही माना जाएगा , चाहे वह साक्षात इंद्र ही क्यों ना हो।



♦️श्लोक :- ९

विवेकिनमनुप्राप्तो गुणो याति मनोज्ञताम् । सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम्।। ।।९।।

♦️भावार्थ - यदि एक विवेक संपन्न व्यक्ति अच्छे गुणों का परिचय देता है तो उसके गुणों की आभा को रत्न जैसी मान्यता मिलती है। एक ऐसा रत्न जो प्रज्वलित है और सोने के अलंकर में मढ़ने पर और चमकता है।


♦️श्लोक :- १०

गुणं सर्वत्र तुल्योऽपि सीदत्येको निराश्रयः।
अनर्घ्यमपि मणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षते।।१०।।

♦️भावार्थ -- गुणों से सर्वज्ञ ईश्वर के समान होता हुआ भी आश्रयहीन अकेला व्यक्ति दुख उठाता है। अत्यन्त मुल्यवान माणिक्य भी स्वर्ण में जड़े जाने की अपेक्षा रखता है।

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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ षोडशः अध्याय

♦️श्लोक :- ११

अतिक्लेशेन ये चार्थाः धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रुणां प्रणिपातेन ते ह्यर्थाः न भवन्तु मे ।।११।।

♦️भावार्थ - जो धन अन्यों को हानि तथा पीड़ा पहुँचाकर, धर्म का उल्लंघन करके और शत्रु के सामने झुकने से प्राप्त होता है, ऐसा धन मुझे नही चाहिए।


♦️श्लोक :- १२

किं तया क्रियते लक्षम्या या वधूरिव केवला।
या तु वेश्यैव सामान्यपथिकैरपि भुज्यते।।१२।।

♦️भावार्थ -- उस धन-सम्पत्ति से क्या लाभ है जो घर की वधू के समान एक के उपयोग के लिए है। जो सम्पत्ति वेश्या के समान न केवल नागरिकों बल्कि पथिकों द्वारा भी भोगी जाती है, उसी धन-सम्पत्ति को श्रेष्ठ माना गया है।


♦️श्लोक :- १३

धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मषु।
अतृप्ता प्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च।।13।।

♦️भावार्थ - आचार्य चाणक्य कहते हैं, इस संसार में मनुष्य की धन, जीवन, भोजन और स्त्री की चाह कभी ख़त्म नहीं होती। कितने ही प्राणी आये और इस संसार को भोगे लेकिन अतृप्त होकर ही मरे कभी संतुष्ट नहीं हुए।


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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ षोडशः अध्याय

♦️श्लोक :- १४

क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञहोमबलिक्रियाः।
न क्षीयते पात्रदानमभयं सर्वदेहिनाम्।।14।।

♦️भावार्थ - योग्य तथा जरूरतमंद (सुपात्र) को ही दान देना चाहिए। अन्य दान, यज्ञ आदि नष्ट हो जाते हैं। किन्तु योग्य जरूरतमंद को दिया गया दान तथा किसी के जीवन की रक्षा के लिए दिये गये अभयदान का फल कभी नष्ट नहीं होता।


♦️श्लोक :- १५

तृणं लघु तृणात्तूलं तूलादपि च याचकः।
वायुना किं न नीतोऽसौ मामयं याचयिष्यति।।15।।

♦️भावार्थ - आचार्य चाणक्य मांगने को मरने के समान मानते हुए कहते हैं कि तिनका हलका होता है, तिनके से हलकी रूई होती है और याचक रूई से भी हलका होता है। तब इसे वायु उड़ाकर क्यों नहीं ले जाती? इसलिए कि वायु सोचती है कि कहीं यह मुझसे भी कुछ मांग न बैठे। भीख मांगना सबसे घटिया काम है। भिखारी की कोई इज्जत नहीं होती।


♦️श्लोक :- १६

वरं  प्राणपरित्यागो   मानभङ्गेन   जीवनात्   |
प्राणत्यागे  क्षणं दुःखं   मानभङ्गे  दिने  दिने  ।।16।।

♦️भावार्थ - मानभङ्ग्  (अपमानित ) होने पर भी जीवित रहने  से तो
प्राण त्याग देना ही श्रेयस्कर है,  क्यों कि प्राण त्यागने में तो क्षण भर 
के लिये दुःख  होता  है परन्तु अपमानित होने पर दिन प्रति दिन दुःख 
भोगना  पडता है |

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✒️ षोडशः अध्याय

♦️श्लोक :- १७

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।१७।।

♦️भावार्थ - मधुर वचन बोलने से सब जन्तु प्रसन्न और सन्तुष्ट होते हैं। अतः मधुर वचन ही बोलना चाहिए, क्यों कि वचनों में क्या दरिद्रता?


♦️श्लोक :- १८

संसारविषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे ।
सुभाषितं च सुस्वादु सङ्गतिः सज्जने जने।।18।।

♦️भावार्थ - संसार एक कड़वा वृक्ष है, इसके दो फल ही अमृत जैसे मीठे होते हैं, एक मधुर वाणी और दूसरी सज्जनों की संगति।

जो व्यक्ति मधुर वाणी का प्रयोग करता है वह शत्रुओं को भी जीत लेता है और दूसरी है मधुर संगति, सज्जनों की संगति अर्थात् मनुष्यों को मधुर प्रिय वचन बोलने और सज्जनों की संगति करने में कभी हिचकिचाना नहीं चाहिए। संसार में शेष सब तो कड़वा ही है।


♦️श्लोक :- १९

जन्म जन्म यदभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः ।
तेनैवाभ्यासयोगेन देही चाभ्यस्यते पुनः ।।19।।

♦️भावार्थ - अनेक जन्मों में मनुष्य ने दान, अध्ययन और तप आदि जिन बातों का अभ्यास किया, उसी अभ्यास के कारण वह उन्हें बार बार दोहराता है।

इस श्लोक का भाव यह है कि मनुष्य को अपना भावी जीवन सुधारने के लिए इस जन्म में अच्छे कार्य करने का अभ्यास करना चाहिए। पहले के अभ्यास का ही परिणाम है हमारा आज और भविष्य में जो हम होंगे वह होगा आज के अभ्यास का प्रतिफल।


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✒️ षोडशः अध्याय

♦️श्लोक :- २०

पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम् ।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम् २०

षोडश अध्यायः समाप्तः

भावार्थ - जो विद्या पुस्तकों तक ही सीमित है और जो धन दूसरों के पास पड़ा है, आवश्यकता पड़ने पर न तो वह विद्या काम आती है और न ही वह धन उपयोगी हो पाता है।

आचार्य कहना चाहते हैं कि विद्या कण्ठाग्र होनी चाहिए तथा धन सदैव अपने हाथ में होना चाहिए, तभी इनकी सार्थकता है।

सोलहवां अध्याय‌ समाप्त हुआ।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०१

पुस्तकं प्रत्याधीतं नाधीतं गुरुसन्निधौ ।
सभामध्ये न शोभन्ते जारगर्भा इव स्त्रियः ॥ १ ॥

♦️भावार्थ - जिन व्यक्तियों ने गुरु के पास बैठकर विद्या का अध्ययन नहीं किया वरन् पुस्तकों से ही ज्ञान प्राप्त किया है, वह विद्वान लोगों की सभा में उसी तरह सम्मान प्राप्त नहीं करते, जिस प्रकार दुष्कर्म से गर्भ धारण करने वाली स्त्री का समाज में सम्मान नहीं होता।

इस श्लोक का भाव यह है कि गुरु के पास बैठकर ही सही अर्थों में विद्या का अध्ययन किया जा सकता है। गुरु से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। मनुष्य अपने प्रयत्न से जो ज्ञान प्राप्त करता है, वह कई प्रकार से अधूरा रहता है, इसलिए ऐसा व्यक्ति विद्वानों की सभा में उपहास का पात्र होता है जिसने गुरुमुख से विद्या प्राप्त नहीं की है।

गुरु से विद्या प्राप्त करने का महत्त्व इसलिए है कि गुरु ग्रहण करने योग्य सब बातें शिष्य पर प्रकट कर देता है। ज्ञान के सब रहस्य उसके समक्ष खुल जाते हैं। अपने प्रयत्न से विद्या प्राप्त करने पर कुछ न कुछ अनजाना रह ही जाता है। ऐसी स्थिति में क्या करना चहिए , इसकी जानकारी भी गुरुमुख से ही प्राप्त होती है। तभी तो व्यक्ति प्रत्येक स्थिति का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार कर पाता है।

इस श्लोक से चाणक्य का भाव गुरु के महत्व को प्रकट करना है।

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✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०२

कृते प्रतिकृतिं कुर्यात् हिंसेन प्रतिहिंसनम् ।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दौष्ट्यं समाचरेत् || २ ||

♦️भावार्थ - जो जैसा करे, उससे वैसा बरतें। कृतज्ञ के प्रति कृतज्ञता भरा, हिंसक (दुष्ट) के साथ हिंसायुक्त और दुष्ट से दुष्टताभरा व्यवहार करने में किसी प्रकार का पाप (पातक) नहीं है || २ ||


♦️श्लोक :- ०३

यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् ।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ||

♦️भावार्थ - जो वस्तु अत्यंत दूर है, जिसकी आराधना करना अत्यंत कठिन है और जो अत्यंत ऊँचे स्थान पर स्थित है, ऐसी चींजों को तपद्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। सिद्धि का प्रयोग यह प्राप्त करना भी है || 3 ||

जो चीज जितनी दूर दिखाई देती है, ऐसा प्रतीत होता है कि उसको पाना भी असंभव है, उसे भी प्रयत्नरूपी तपस्या द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। तप अथवा परिश्रम द्वारा असंभव कार्यों को भी सम्भव बनाया जा सकता है। तप से ही मनुष्यों को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती है।

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चाणक्य नीति ⚔️

✒️ सप्तदशः अध्याय:

♦️श्लोक :- ०५

पिता रत्नाकरो यस्य लक्ष्मीर्यस्य सहोदरी ।
शंखो भिक्षाटनं कुर्यान्नऽदत्तमुपतिष्ठति ॥


♦️भावार्थ - समुद्र शंख का पिता है। लक्ष्मी का जन्म भी समुद्र में हुआ है अर्थात् वह शंख की बहन है। शंख चन्द्रमा के समान चमकता है, इतने पर भी यदि कोई शंख बजाकर भीख माँगता है तो यही समझना चाहिए कि दान दिए बिना मान सम्मान नहीं होता || ५ ||

बहुत से साधु लोग शंख बजाते हुए भिक्षा माँगते फिरते हैं, इससे यही प्रतीत होता है कि शंख ने दान देने जैसा सत्कर्म नहीं किया अर्थात् व्यक्ति अच्छे कुल में उत्पन्न होने और अनेक गुणों से सम्पन्न होने पर भी दान आदि अच्छे कर्म यदि नहीं करता, तो उसे भी यश और सुख की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अच्छे कुल में उत्पन्न होने पर भी दान आदि शुभकर्म करता रहे।

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