संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
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माता बालकाभ्याम् आशीर्वादान् दातुमिच्छति।
बालकाभ्याम् अत्र का विभक्तिः किं च वचनम्।
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तृतीया द्विवचनम्
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पञ्चमी एकवचनम्
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चतुर्थी द्विवचनम्
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पञ्चमी द्विवचनम्
एक राजा था,जिसे चित्रकला से बहुत ही प्रेम था।एक बार उसने घोषणा की कि जो कोई भी चित्रकार उसे एक ऐसा चित्र बना कर देगा, जो शांति को दर्शाता हो तो वह उसे मुंहमांगा पुरस्कार देगा।निर्णय वाले दिन एक से बढ़कर एक चित्रकार पुरस्कार जीतने की लालसा से अपने-अपने चित्र लेकर राजा के महल पहुंचे।
•• एक: राजा आसीत् , यस्य चित्रकलायाम् अतीव स्नेह: आसीत्।एकदा स घोषणामकरोत् यत् य: कश्चनापि चित्रकार: तस्मै एकमेवं चित्रनिर्माणं कृत्वा दास्यति ,एवञ्च शान्तिप्रदर्शनं कुर्यात् चेत् स तस्मै अपेक्षितं पुरस्कारं दास्यति।निर्णयदिने चित्रकाराः पुरस्कारप्राप्तेर्लालसया स्वीयं स्वीयं चित्रम् आदाय अहमहमिकतया राजमहलं सम्प्राप्तवन्तः।

राजा ने एक-एक करके सभी चित्रों को देखा और उनमें से दो चित्रों को अलग रखवा दिया।अब इन्हीं दोनों में से एक को पुरस्कार के लिए चुना जाना था।पहला चित्र एक अति सुंदर शांत झील का था।
•• नृप: एकैकश: सर्वाणि चित्राणि अपश्यत् तेषु च चित्रद्वयं पृथक् स्थापितवान्।इदानीम् उभयो: मध्ये एक: पुरस्काराय चेतव्य: आसीत्। प्रथमचित्रम् एकस्य बहुरमणीयस्य शान्तमहाहृदस्य आसीत्।

उस झील का पानी इतना स्वच्छ था कि उसके अंदर की सतह तक दिखाई दे रही थी।और उसके आसपास विद्यमान हिमखंडों की छवि उस पर ऐसे उभर रही थी मानो कोई दर्पण रखा हो।ऊपर की ओर नीला आसमान था जिसमें रुई के गोलों के समान सफेद बादल तैर रहे थे।
•• तस्य महाहृदस्य जलम् एतावत् स्वच्छमासीत् यत् तस्य अन्त:तलं यावत् दृश्यते स्म।एवञ्च तस्य समीपे विद्यमानस्य हिमखण्डस्य सौन्दर्यम् एवं प्रतिबिम्बायते यथा तत्र कश्चन आदर्शः स्थापितः स्यात्।ऊपरि नीलगगनमासीत् यत्र कर्पासगोलकै: समं श्वेताब्दा: तरन्ति स्म।

जो कोई भी इस चित्र को देखता उसको यही लगता कि शांति को दर्शाने के लिए इससे अच्छा कोई चित्र हो ही नहीं सकता।वास्तव में यही शान्ति का एकमात्र प्रतीक था।दूसरे चित्र में भी पहाड़ थे।
•• य: कश्चनापि एतत् चित्रं पश्यति स्म , तेन इदमेव प्रतीयते यत् शान्तिप्रदर्शनाय एतस्मात् उत्तमं कञ्चनापि चित्रं भवितुमेव नार्हति।वस्तुत: एतदेव शान्ते: केवलं प्रतीकचिह्नमस्ति।अपरेस्मिन् चित्रे अपि पर्वता: आसन्।

परन्तु वे बिल्कुल सूखे,बेजान,वीरान थे और इन पहाड़ों के ऊपर घने गरजते बादल थे और इन पहाड़ों के ऊपर घने गरजते बादल थे, जिनमें बिजलियां चमक रही थीं । घनघोर वर्षा होने से नदी उफान पर थी।तेज हवाओं से पेड़ हिल रहे थे और पहाड़ी के एक ओर स्थित झरने ने रौद्र रूप धारण कर रखा था।जो कोई भी इस चित्र को देखता यही सोचता कि भला इसका शांति से क्या लेना देना, इसमें तो बस अशांति ही अशांति है।
•• परन्तु ते पूर्णतः शुष्का: निर्जीवा: च निर्जना: चासीत् तथा एतेषां पर्वतानाम् उपरि गर्जन्त: सघनमेघा: आसन् यस्मिन् विद्युत: दीव्यन्ति स्म । मूसलवृष्टिपात् नद्य: उत्सफयनमवस्थायां सन्ति।तीव्रवायुभ्य: वृक्षा: कम्पनं कुर्वन्ति स्म तथा पर्वतस्य एकत: स्थित: निर्झरो रौद्ररूपधारणं कृतवान् आसीत्।य: कश्चनापि एतत् चित्रं पश्यति स्म , चेत् इदमेव चिन्तयति स्म यत् कामम् अस्य शान्ते: किं तात्पर्यम् ? अस्मिन् तु केवलं अशान्ति: एव अशान्ति: अस्ति।

#vakyabhyas
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@samskrt_samvadah प्रारंभ करता है, संस्कृताश्रमः - संस्कृतशिक्षण की लघु कक्षाऐं

20 मिनट
🕚 09:00 PM 🇮🇳
🔰कर्मणिप्रयोगपरिचयः
🗓 07 दिसम्बर 2022, बुधवासरः


कृपया अलार्म लगा लें और विलंब से न आयें।
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🔴 कक्षाओं की प्रति हमारे युट्युब प्लेलिस्ट पर डाली जायेगी
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कश्चित् पोगण्डः तस्य अनुजेन अर्भकेन सह गृहाद्बहिः खेलति स्म । सहसा अर्भकः उच्चैः रोदितुं प्रारभत । तयोः पितामहः गृहाद्बहिरागत्य तं पोगण्डमवदत्, “ अर्भकं किमर्थं रोदयसि? सः यद्वाञ्छति तद्देहि” इति । पोगण्डः प्रत्यवदत्, “अर्भकः आतपे शोषणार्थं निवेशितं रक्तं मरिचं वाञ्छितवान् । तस्मै तमहं दत्तवान् । सः मरिचं वदने निक्षिप्य इदानीं रोदिति” इति ।

~ जी एस् एस् मूर्तिः

#hasya
अद्यतनी संलापशाला

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#samlapshala
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अद्यतनः संस्कृताश्रमः
🚩जय सत्य सनातन 🚩
🚩आज की हिन्दी तिथि 🚩

🌥 🚩यगाब्द - ५१२४
🌥 🚩शक संवत - १९४४
🌥 🚩विक्रम संवत - २०७९
⛅️ 🚩तिथि - पूर्णिमा सुबह 09:37 तक तत्पश्चात पौष कृष्ण प्रतिपदा

⛅️ दिनांक - 08 दिसम्बर 2022
⛅️ दिन - गुरुवार
⛅️ अयन - दक्षिणायन
⛅️ ऋतु - हेमंत
⛅️ मास - मार्गशीर्ष
⛅️ पक्ष - शुक्ल
⛅️ नक्षत्र - रोहिणी सुबह 12:33 तक तत्पश्चात मृगशिरा
⛅️ योग - साध्य 09 दिसम्बर प्रातः 03:12 तक तत्पश्चात शुभ
⛅️ राहु काल - दोपहर 01:52 से 03:13 तक
⛅️ सर्योदय - 07:08
⛅️ सर्यास्त - 05:55
⛅️ दिशा शूल - दक्षिण दिशा में
⛅️ बराह्ममुहूर्त - प्रातः 05:23 से 06:15 तक
🍃अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च।
वञ्चनं चाऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥

🔅मतिमान् अर्थनाशं, मनस्तापं, गृहे दुश्चरितानि च, वञ्चनं च, अपमानं च न प्रकाशयेत्।

बुद्धिमान पुरुष वही है, जो धन के नष्ट हो जाने को, मन की वेदना को, घर में बुरे आचरण को, ठगे जाने को और अपमान को दूसरों पर प्रकट नहीं करता। तात्पर्य यह है कि दूसरों से कहने पर सर्वत्र उपहास के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता है।

#Subhashitam
संस्कृत संवादः । Sanskrit Samvadah
एक राजा था,जिसे चित्रकला से बहुत ही प्रेम था।एक बार उसने घोषणा की कि जो कोई भी चित्रकार उसे एक ऐसा चित्र बना कर देगा, जो शांति को दर्शाता हो तो वह उसे मुंहमांगा पुरस्कार देगा।निर्णय वाले दिन एक से बढ़कर एक चित्रकार पुरस्कार जीतने की लालसा से अपने-अपने चित्र…
सभी आश्वस्त थे कि पहले चित्र बनाने वाले चित्रकार को ही पुरस्कार मिलेगा।तभी राजा अपने सिंहासन से उठे और घोषणा की कि दूसरा चित्र बनाने वाले चित्रकार को वह मुंहमांगा पुरस्कार देंगे।हर कोई आश्चर्य में था।
•• सर्वे आश्वस्ता: आसन् यत् प्रथमचित्रकारेण एव पुरस्कार: आप्स्यते।तदा राजा स्वसिंहासनात् उत्थाय घोषणामकरोत् यद् द्वितीयचित्रस्य निर्माणं कुर्वते चित्रकाराय अपेक्षितं पारितोषिकं मया दीयेत।सर्वे आश्चर्यचकिता: आसन्।

पहले चित्रकार से रहा नहीं गया , वह बोला , " लेकिन महाराज उस चित्र में ऐसा क्या है जो आपने उसे पुरस्कार देने का फैसला लिया जबकि हर कोई यही कह रहा है कि मेरा चित्र ही शांति को दर्शाने के लिए सर्वश्रेष्ठ है?
•• प्रथमचित्रकारेण सहनं नाभवत्, स: अवदत् , " परन्तु महाराज! तस्मिन् चित्रे वैशिष्ट्य किमस्ति यत् भवान् तस्मै पुरस्कारं दातुं निर्णयं कृतवान् ,यतोपि अन्ये कथयन्ति यत मम् चित्रमेव शान्तिं दर्शियतुं सर्वश्रेष्ठमस्ति।

"आओ मेरे साथ!" राजा ने पहले चित्रकार को अपने साथ चलने के लिए कहा।दूसरे चित्र के समक्ष पहुंच कर राजा बोले," झरने के बायीं ओर हवा से एक ओर झुके इस वृक्ष को देखो।उसकी डाली पर बने उस घोंसले को देखो।कैसे एक चिड़िया इतनी कोमलता से,इतने शान्त भाव से प्रेमपूर्वक अपने बच्चे को भोजन करा रही है।"
•• मया सह आगच्छतु!" नृप: प्रथमचित्रकारं स्वकीयेन सह चलितुं कथयितवान्।द्वितीयचित्रं निकषा प्राप्य राजा अवदत् ," निर्झरस्य वामत: वायो: एकत: नतं एनं वृक्षं पश्य।तस्यां शाखायां निर्मितं तं नीडं पश्य।कथम् एक: खग: एतावता कोमलतया शान्तभावेन च प्रेमपूर्वकं स्वशिशुं भोजनं करा खादयति।"

फिर राजा ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों को समझाया, “शांत होने का अर्थ यह नहीं है कि आप ऐसी स्थिति में हों जहाँ कोई शोर नहीं हो।कोई समस्या नहीं हो,जहाँ कड़ी मेहनत नहीं हो ,जहाँ आपकी परीक्षा नहीं हो।शांत होने का सही अर्थ है कि आप हर तरह की अव्यवस्था, अशांति, अराजकता के बीच हों और फिर भी आप शांत रहें, अपने काम पर केंद्रित रहें,अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहें।
•• तदा नृपो तत्र उपस्थितान् सर्वान् जनान् अवगामयत् , “शान्तभावस्य अर्थ: एष नास्ति यत् भवान् एतादृश्यां स्थित्याम् अस्तु यत्र कश्चन शब्द: नास्तु।काचन समस्या नास्तु,यत्र कठोर: परिश्रमो नास्तु ,यत्र भवत: परीक्षा नास्तु।शान्तभावस्य वास्तविक: अर्थ: अस्ति यत् भवान् प्रत्येकं परिस्थिति, अशांति:, अराजकत्वम् इत्यादीनां मध्ये उपस्थित: अस्तु ।तथापि भवान् शान्तं भवतु, स्वकार्ये केंद्रित: भवतु,स्वलक्ष्यं प्रति अग्रसर: भवतु।

अब सभी समझ चुके थे कि दूसरे चित्र को राजा ने क्यों चुना ?
•• इदानीं सर्वे अवगतवन्त: यत् राजा द्वितीयचित्रं किमर्थं चिनुतवान् ?

मित्रों, हर कोई अपने जीवन में शांति चाहता है। परंतु प्राय: हम ‘शांति’ को कोई बाहरी वस्तु समझ लेते हैं, और उसे दूरस्थ स्थलों में ढूँढते हैं, जबकि शांति पूरी तरह से हमारे मन की भीतरी चेतना है, और सत्य यही है कि सभी दुःख-दर्दों, कष्टों और कठिनाइयों के बीच भी शांत रहना ही वास्तव में शांति है।
•• मित्राणि, सर्वे जना: स्वजीवने शान्तिं वाञ्चछन्ति। परन्तु प्राय: वयं ‘शांतिं’ काञ्चन वाह्यवस्तुम् अवगम्य तं दूरस्थस्थलेषु अन्वेषयाम:, यद्यपि शांति: पूर्णत: अस्माकं मनस: आन्तरिकं चेतना अस्ति तथार सत्यम् इदमेव अस्ति यत् सर्वेषां दुःखाणां च वेदनानां च कष्टाणां च काठिन्यानां च मध्ये अपि शांतभावेन सह जीवनं वस्तुत: शांति: अस्ति।

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