🔴ऐसा पाया गया है कि विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयक को राज्यपाल नौ मास तक रोक लेते हैं । यह एक प्रकार का पॉकेट−वीटो है जो संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है और अलोकतान्त्रिक है क्योंकि विधायिका को विधान बनाने से कार्यपालिका रोक नहीं सकती । अतः इस पॉकेट−वीटो को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने तीन मास की समयसीमा का आदेश दिया ।
⚖️ किन्तु प्रश्न यह है — क्या सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति को आदेश दे सकता है?
राष्ट्रपति को ऐसा आदेश देने का न्यायपालिका को कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है । राष्ट्रपति कार्यपालिका के प्रमुख हैं,यद्यपि मनमाना निर्णय नहीं ले सकते और मन्त्रीमण्डल के अनुसार ही निर्णय ले सकते हैं । इस अर्थ में उपराष्ट्रपति का कथन सही है कि कार्यपालिका के कार्य में हस्तक्षेप करने का अधिकार न्यायपालिका को नहीं है ।
🔍किन्तु कार्यपालिका के कार्य में हस्तक्षेप करने का अधिकार न्यायपालिका को तब है जब संविधान की अवमानना हो रही हो । यदि राज्यपाल वा राष्ट्रपति के माध्यम से कार्यपालिका पॉकेट−वीटो का दुरुपयोग करती है,अर्थात् विधायिका को विधेयक बनाने से रोकने के उद्देश्य से बिना हस्ताक्षर किये विधेयक को दीर्घकाल तक लटकाती है तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने का अधिकार है,क्योंकि अनुच्छेद १११ स्पष्ट कहता है कि राष्ट्रपति को “as soon as possible” उपरोक्त विधेयक पर निर्णय लेना है । अनुच्छेद २०० में राज्यपाल के लिए समयसीमा का उल्लेख नहीं है किन्तु राज्यपाल को राष्ट्रपति से अधिक छूट नहीं दी जा सकती,अतः राज्यपाल को भी “as soon as possible” निर्णय लेना है ।
अतः बिना कारण बताये राज्यपाल अथवा राज्यपाल किसी विधेयक को दीर्घकाल तक रोकते हैं तो यह कार्यपालिका द्वारा विधायिका की सम्प्रभुता का स्पष्ट उल्लङ्घन है जिसे पॉकेट−वीटो कहते हैं ।
दूसरी ओर यदि सर्वोच्च न्यायालय यह निर्देश देती है कि तीन मास के अन्दर राज्यपाल अथवा राज्यपाल को उपरोक्त निर्णय लेना है तो इसके दो अर्थ हैं —
📛(१)
न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के प्रमुख को आदेश देना,जो कार्यपालिका की सम्प्रभुता का न्यायपालिका द्वारा अतिक्रमण है,
📛(२)
और बिना कारण बताये तीन मास तक विधेयक को लटकाने की छूट न्यायपालिका ने कार्यपालिका को दी,जो विधायिका की सम्प्रभुता का न्यायपालिका द्वारा अतिक्रमण है जिसपर उपराष्ट्रपति अथवा किसी का भी ध्यान नहीं गया । उचित समाधान किसी को नहीं सूझा,जो निम्न है=
✅ उचित समाधान :-
न्यायपालिका और कार्यपालिका के कार्य नियत सत्रों में नहीं होते,किन्तु विधायिका के समस्त कार्य सत्रों में नियत रहते हैं । जब भी राज्य वा केन्द्र की विधायिका किसी विधेयक को पारित करती है तो अगले सत्र तक उसे नहीं टालती । अतः उसी सत्र में कार्यपालिका को उस विधेयक पर निर्णय करना होगा,वरना विधायिका की कार्यप्रणाली को बाधित करने का असंवैधानिक दोष उपस्थित होगा । संविधान का स्पष्ट आदेश है — “as soon as possible” । इसका सीधा अर्थ है कि नौ अथवा तीन मास नहीं,बल्कि एक पल की भी अकारण छूट कार्यप्रणाली को नहीं दी जा सकती । एक पल की भी देरी हो तो उसका कारण स्पष्ट करना पड़ेगा — राज्यपाल अर्थवा राष्ट्रपति को उचित माध्यम द्वारा विधेयक भेजने में लगा समय,राष्ट्रपति के दैनिन्दिन कार्यसूची,आदि ।
🧨राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति तीन मास की देर क्यों करेंगे इसका स्पष्टीकरण सर्वोच्च न्यायालय को करना पड़ेगा,वरना सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विधायिका की सम्प्रभुता का और राष्ट्रपति को आदेश देकर कार्यपालिका की सम्प्रभुता का अतिक्रमण है । इस विषय पर जनहित याचिका और कार्यपालिका से जनसूचना अधिनियम के अन्तर्गत प्रश्न पूछा जा सकता है ।
🧨भारतीय संविधान ने कार्यपालिका,न्यायपालिका और विधायिका को अपने−अपने क्षेत्रों में सम्प्रभुता दी है,किन्तु पिछले तीन दशकों से यह प्रवृत्ति देखी जा रही है कि न्यायपालिका निरंकुश होती जा रही है और एक और कॉलेजियम बनाकर स्वयं अपनी नियुक्ति करती है तो दूसरी ओर कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करती है और अब तीन मास का पॉकेट वीटो देकर विधायिका का भी मजाक उड़ा रही है ।
⚖️ किन्तु प्रश्न यह है — क्या सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति को आदेश दे सकता है?
राष्ट्रपति को ऐसा आदेश देने का न्यायपालिका को कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है । राष्ट्रपति कार्यपालिका के प्रमुख हैं,यद्यपि मनमाना निर्णय नहीं ले सकते और मन्त्रीमण्डल के अनुसार ही निर्णय ले सकते हैं । इस अर्थ में उपराष्ट्रपति का कथन सही है कि कार्यपालिका के कार्य में हस्तक्षेप करने का अधिकार न्यायपालिका को नहीं है ।
🔍किन्तु कार्यपालिका के कार्य में हस्तक्षेप करने का अधिकार न्यायपालिका को तब है जब संविधान की अवमानना हो रही हो । यदि राज्यपाल वा राष्ट्रपति के माध्यम से कार्यपालिका पॉकेट−वीटो का दुरुपयोग करती है,अर्थात् विधायिका को विधेयक बनाने से रोकने के उद्देश्य से बिना हस्ताक्षर किये विधेयक को दीर्घकाल तक लटकाती है तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने का अधिकार है,क्योंकि अनुच्छेद १११ स्पष्ट कहता है कि राष्ट्रपति को “as soon as possible” उपरोक्त विधेयक पर निर्णय लेना है । अनुच्छेद २०० में राज्यपाल के लिए समयसीमा का उल्लेख नहीं है किन्तु राज्यपाल को राष्ट्रपति से अधिक छूट नहीं दी जा सकती,अतः राज्यपाल को भी “as soon as possible” निर्णय लेना है ।
अतः बिना कारण बताये राज्यपाल अथवा राज्यपाल किसी विधेयक को दीर्घकाल तक रोकते हैं तो यह कार्यपालिका द्वारा विधायिका की सम्प्रभुता का स्पष्ट उल्लङ्घन है जिसे पॉकेट−वीटो कहते हैं ।
दूसरी ओर यदि सर्वोच्च न्यायालय यह निर्देश देती है कि तीन मास के अन्दर राज्यपाल अथवा राज्यपाल को उपरोक्त निर्णय लेना है तो इसके दो अर्थ हैं —
📛(१)
न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के प्रमुख को आदेश देना,जो कार्यपालिका की सम्प्रभुता का न्यायपालिका द्वारा अतिक्रमण है,
📛(२)
और बिना कारण बताये तीन मास तक विधेयक को लटकाने की छूट न्यायपालिका ने कार्यपालिका को दी,जो विधायिका की सम्प्रभुता का न्यायपालिका द्वारा अतिक्रमण है जिसपर उपराष्ट्रपति अथवा किसी का भी ध्यान नहीं गया । उचित समाधान किसी को नहीं सूझा,जो निम्न है=
✅ उचित समाधान :-
न्यायपालिका और कार्यपालिका के कार्य नियत सत्रों में नहीं होते,किन्तु विधायिका के समस्त कार्य सत्रों में नियत रहते हैं । जब भी राज्य वा केन्द्र की विधायिका किसी विधेयक को पारित करती है तो अगले सत्र तक उसे नहीं टालती । अतः उसी सत्र में कार्यपालिका को उस विधेयक पर निर्णय करना होगा,वरना विधायिका की कार्यप्रणाली को बाधित करने का असंवैधानिक दोष उपस्थित होगा । संविधान का स्पष्ट आदेश है — “as soon as possible” । इसका सीधा अर्थ है कि नौ अथवा तीन मास नहीं,बल्कि एक पल की भी अकारण छूट कार्यप्रणाली को नहीं दी जा सकती । एक पल की भी देरी हो तो उसका कारण स्पष्ट करना पड़ेगा — राज्यपाल अर्थवा राष्ट्रपति को उचित माध्यम द्वारा विधेयक भेजने में लगा समय,राष्ट्रपति के दैनिन्दिन कार्यसूची,आदि ।
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🧾सबसे ताजा विषय है वक्फ एक्ट का,बिना पूरी बहस के ही सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दे दिया कि कोई नियुक्ति नहीं की जाय । अन्य संस्थाओं के बारे में न्यायालय ऐसा अन्तरिम निर्णय दे सकती है,किन्तु संसद द्वारा पारित और कार्यपालिका द्वारा स्वीकृत विधेयक पर बिना बहस के अन्तरिम आदेश देने का कोई अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को तबतक नहीं है जबतक सर्वोच्च न्यायालय यह स्पष्ट न कर दे कि उक्त विधेयक ने संविधान का उल्लङ्घन किया है । अतः वक्फ एक्ट पर अन्तरिम आदेश का अर्थ है कि विधायिका और कार्यपालिका को न्यायालय अपने अधीन मानती है और बिना बहस के कोई भी अन्तरिम आदेश दे सकती है । सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह संविधान और लोकतन्त्र का अपहरण है । स्वयं अपनी नियुक्ति करने वालों से लोकतन्त्र की आशा नहीं की जा सकती ।
📢 निष्कर्ष
भारतीय संविधान ने कार्यपालिका,न्यायपालिका और विधायिका को अपने−अपने क्षेत्रों में जो सम्प्रभुता दी है उसमें केवल संविधान का उल्लङ्घन होने पर ही न्यायपालिका शेष दो स्तम्भों के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती है,वरना न्यायपालिका को समझना चाहिए कि उक्त तीनों स्तम्भ बराबर नहीं हैं,संविधान का मुख्य स्तम्भ विधायिका है जो कार्यपालिका की नियुक्ति करती है और न्याय का विधान बनाती है जिसपर न्यायपालिका को चलना है । विधायिका लोकतन्त्र की प्राण है क्योंकि जनता द्वारा चुनी जाती है । विधायिका पर तीन मास का पॉकेट−वीटो लगाकर न्यायपालिका ने जघन्य अपराध किया है । इससे पहले राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति स्वीकृति देने में यदि देरी करते भी थे तो वह अपराध नहीं था क्योंकि न्यायपालिका की लापरवाही के कारण ही यह स्पष्ट नहीं था कि “as soon as possible” की समयसीमा क्या है ।
देश में न्यायविदों की भरमार है,किन्तु न्यायपालिका की उपरोक्त निंरकुशता पर सबकी बोलती बन्द है । उपराष्ट्रपति धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने न्यायपालिका को संवैधानिक सीमा के अन्दर रहने की राय दी है । किन्तु राय से कुछ नहीं होने वाला,ठोस उपाय की आवश्यकता है । सहस्र वर्ष की दासता से हम निकले हैं,असंवैधानिक दासता हमें स्वीकार्य नहीं । संविधान सर्वोपरि हो ।
कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी है,
विधायिका जनता के प्रति उत्तरदायी है,
किन्तु न्यायपालिका किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है —
ज्यूडिशियल अकाउण्टेबिलिटी एक अनसुलझा प्रश्न है क्योंकि न्यायपालिका इसे सुलझाना ही नहीं चाहती,अपराध स्पष्ट होने पर भी किसी न्यायाधीश को दण्ड नहीं दिया जा सकता । न्याय के मन्दिर में इससे बड़ा अन्याय क्या हो सकता है?हाल ही में एक न्यायाधीश के आवास से १२ करोड़ रूपये मिलने का समाचार आया और वह पूरा प्रकरण ही दबा दिया गया
https://t.me/pol_sci_with_devrajgaur
📢 निष्कर्ष
भारतीय संविधान ने कार्यपालिका,न्यायपालिका और विधायिका को अपने−अपने क्षेत्रों में जो सम्प्रभुता दी है उसमें केवल संविधान का उल्लङ्घन होने पर ही न्यायपालिका शेष दो स्तम्भों के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती है,वरना न्यायपालिका को समझना चाहिए कि उक्त तीनों स्तम्भ बराबर नहीं हैं,संविधान का मुख्य स्तम्भ विधायिका है जो कार्यपालिका की नियुक्ति करती है और न्याय का विधान बनाती है जिसपर न्यायपालिका को चलना है । विधायिका लोकतन्त्र की प्राण है क्योंकि जनता द्वारा चुनी जाती है । विधायिका पर तीन मास का पॉकेट−वीटो लगाकर न्यायपालिका ने जघन्य अपराध किया है । इससे पहले राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति स्वीकृति देने में यदि देरी करते भी थे तो वह अपराध नहीं था क्योंकि न्यायपालिका की लापरवाही के कारण ही यह स्पष्ट नहीं था कि “as soon as possible” की समयसीमा क्या है ।
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Forwarded from CHYAVAN PRAKASHAN™️📚
स्कूल व्याख्याता भर्ती परीक्षा की तैयारी अब होगी और भी आसान 📘📗📖
𝐂𝐡𝐲𝐚𝐯𝐚𝐧 𝐏𝐫𝐚𝐤𝐚𝐬𝐡𝐚𝐧 लेकर आया है आपके लिए स्कूल व्याख्याता भर्ती परीक्षा हेतु उपयोगी पुस्तकें 📚
इनसे करें स्मार्ट तैयारी और पाएँ अपनी मनचाही सरकारी नौकरी 👩🏫👨🏫
𝐅𝐨𝐥𝐥𝐨𝐰 𝐈𝐧𝐬𝐭𝐚𝐠𝐫𝐚𝐦
https://www.instagram.com/sugamrajasthan/
📞 +𝟗𝟏 𝟕𝟎𝟕𝟑𝟎𝟔𝟔𝟑𝟑𝟑
📩 Email: sugamrajasthan@yahoo.in
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Forwarded from PUSHPENDRA KASANA(RES) WRITER(JRF/NET) (Pushpendra Kasana)
✍🏻अपनी तैयारी को जांचने के लिए सोमवार से ये मॉडल पेपर बाजार में उपलब्ध हो जाएँगे एक बार अवलोकन अवश्य करें धन्यवाद 🙏🏻
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C946CEC1B40D4E398A4F9014E05079C0.pdf
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RPSC द्वारा असिस्टेंट प्रोफेसर ( राजनीति विज्ञान) 2023 का अंतिम परिणाम जारी
सभी चयनितों को बधाई और शुभकामनाएँ 🎊😊
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Political School
पोलिटिकल स्कूल द्वारा सहायक आचार्य राजनीति विज्ञान विषय के मॉक इंटरव्यू का आज अंतिम दिवस। कुल 60 अभ्यर्थियों को उनकी सुविधा, समय अनुसार न्यूनतम दो मॉक करवाए गये। साथ ही ऑनलाइन मोड में दो कार्यशाला आयोजित की गई दोनों विषय एक्सपर्ट के अलावा पैनल के रूप…
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UGC NET एग्जाम हेतु आवेदन की तिथि में वृद्धि अब 12 मई तक कर सकते है आवेदन
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नमस्कार साथियों
जून में होने वाले RPSC
स्कूल व्याख्याता (राजनीति विज्ञान) परीक्षा हेतु 12 प्रैक्टिस सेट ( वस्तुनिष्ठ प्रश्नों की व्याख्या सहित ) पुस्तक राजस्थान के विभिन्न बुक डिपो पर उपलब्ध है 📕✍️
पुस्तक को इस ऑनलाइन लिंक 🔗 के माध्यम से भी खरीदा जा सकता है
https://apnabookstore.in/index.php?route=product/search&search=sugam%20first%20grade%20practice%202025&sub_category=true&description=true
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SAMPLE PDF POLITICAL 12 SET BOOK.pdf
2.7 MB
कुछ इस प्रकार से प्रैक्टिस मॉक टेस्ट पुस्तिका को रूप दिया गया है ।
इसमें प्रत्येक पेपर में आरपीएससी पैटर्न पर आधारित सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को शामिल करते हुए राजनीति विज्ञान के 135 प्रश्नों और शिक्षाशास्त्र/ आईसीटी के 15 प्रश्नों का समुचित व्याख्या सहित कुल 12 पेपर का निर्माण किया गया है
स्कूल व्याख्याता ( राजनीति विज्ञान) के साथ ही यह पुस्तक नेट परीक्षा के गंभीर अभ्यर्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी ऐसी आशा है
पुस्तक को घर बैठे होम डिलीवरी के माध्यम से प्राप्त करने हेतु लिंक इस प्रकार है 👇
https://apnabookstore.in/index.php?route=product/search&search=sugam%20first%20grade%20practice%202025&sub_category=true&description=true
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Forwarded from PUSHPENDRA KASANA(RES) WRITER(JRF/NET) (Pushpendra Kasana)
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Forwarded from CHYAVAN PRAKASHAN™️📚
अरस्तू की रचनाएँ
📖 अरस्तू की अमर रचनाएँ — नगर राज्य से आदर्श राज्य तक की विचार यात्रा...
च्यवन प्रकाशन की बेहतरीन किताबों के साथ करें ग्रेड-𝟏 की पक्की तैयारी। ✅🎯
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📧 Email: sugamrajasthan@yahoo.in
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Current Affairs For School Lecturer By Ganpat Singh Rajpurohit Sir
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Forwarded from Dr Ganpat Singh Rajpurohit
स्कूल व्याख्यता करंट.pdf
2 MB
यह समसामयिक विशेषांक बुकलेट है। इसमें केवल वही टॉपिक कवर किए है जो व्याख्याता भर्ती परीक्षा 2025 में शामिल है। प्रिय विद्यार्थी खंगार सिंह का बहुत धन्यवाद की इसमें खूब सहयोग किया ।
उम्मीद है यह परीक्षा में आपके लिए लाभदायक सिद्ध होगी । काफ़ी मेहनत करके इसको तैयार किया है , आप इसे प्रिंट करके अच्छे से पढ़ लेना , जहाँ तक मेरा मानना है यह पर्याप्त रहेगी , बाक़ी Current Portion बेशुमार है , प्रयास किया है 7-8 सवाल इससे आ जाएँ । यह बिल्कुल निशुल्क है। केवल सॉफ्ट कॉपी के रूप में रहेगी। इसकी हार्डकॉपी नहीं रहेगी।
✍️ डॉ गणपत सिंह राजपुरोहित
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✍️ डॉ गणपत सिंह राजपुरोहित
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