कितना अजीब है न कि हम सब किसी न किसी के सपनों जैसी ज़िंदगी जी रहे होते हैं, फिर भी हमें अपनी खुद की ज़िंदगी में न जाने कितनी कमियाँ और अधूरापन नजर आता है। हम हमेशा सोचते हैं कि काश हमारे पास और बेहतर चीजें होतीं, काश हमारी परिस्थितियाँ थोड़ी और अच्छी होतीं, काश हम भी वैसी ज़िंदगी जी पाते जैसी हमने अपने सपनों में देखी थी। शायद यही इंसान होने की असली पहचान है। हमेशा कुछ नया पाने की चाह, हमेशा आगे बढ़ने की भूख, हमेशा उस मंजिल की तलाश जिसे पाते ही हम फिर कोई और नई मंजिल बना लेते हैं। यह बेचैनी, यह न खत्म होने वाली उम्मीदें ही हमें थकने नहीं देतीं, हमें रुकने नहीं देतीं।
कभी-कभी जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो समझ में आता है कि जो कुछ आज हमारे पास है, वह कभी न कभी हमारा भी सपना था। जिसे पाने के लिए हमने कितनी मेहनत की थी, कितनी रातें जागकर बिताई थीं, कितने आंसू चुपचाप बहाए थे। मगर जब वह सपना पूरा हुआ, तो वह भी साधारण लगने लगा। फिर हमने नए सपने देख लिए, नए लक्ष्य बना लिए। यही तो इंसान का स्वभाव है, कभी भी पूरी तरह संतुष्ट न होना।
यह असंतोष ही हमें हर दिन बेहतर बनने के लिए मजबूर करता है। अगर हम संतुष्ट हो जाएं तो शायद हमारे भीतर की आग बुझ जाए, हमारे सपने थम जाएं, हमारी उड़ान रुक जाए। इसलिए यह बेचैनी, यह असंतोष कहीं न कहीं हमारे लिए एक वरदान भी है। यह हमें मजबूत बनाता है, हमें सिखाता है कि ज़िंदगी रुकने का नहीं, आगे बढ़ते रहने का नाम है। पर वहीं यह बेचैनी कभी-कभी हमें हमारी खुशियों से दूर भी कर देती है। हम जो कुछ पा चुके होते हैं, उसकी कदर करना भूल जाते हैं। हमारे पास जो अनमोल पल होते हैं, उन्हें जीना भूल जाते हैं। हम भविष्य की चिंता में वर्तमान को खो देते हैं। शायद इसी कारण यह बेचैनी एक अभिशाप भी बन जाती है।
फिर भी, इसी संघर्ष, इसी अधूरेपन, इसी निरंतर चलती कोशिशों से ही तो ज़िंदगी में खूबसूरती आती है। अगर सब कुछ एक ही दिन में मिल जाए तो शायद ज़िंदगी का स्वाद ही खत्म हो जाए। इसलिए कभी-कभी रुककर, मुस्कुराकर, अपने सफर को देखने की जरूरत होती है। खुद को याद दिलाने की जरूरत होती है कि भले ही मंजिल अभी दूर हो, मगर हमने भी बहुत लंबा सफर तय किया है। और यही सफर, यही उतार-चढ़ाव, यही सपनों के पीछे दौड़ना ही शायद ज़िंदगी का असली मतलब है। है न?
कभी-कभी जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो समझ में आता है कि जो कुछ आज हमारे पास है, वह कभी न कभी हमारा भी सपना था। जिसे पाने के लिए हमने कितनी मेहनत की थी, कितनी रातें जागकर बिताई थीं, कितने आंसू चुपचाप बहाए थे। मगर जब वह सपना पूरा हुआ, तो वह भी साधारण लगने लगा। फिर हमने नए सपने देख लिए, नए लक्ष्य बना लिए। यही तो इंसान का स्वभाव है, कभी भी पूरी तरह संतुष्ट न होना।
यह असंतोष ही हमें हर दिन बेहतर बनने के लिए मजबूर करता है। अगर हम संतुष्ट हो जाएं तो शायद हमारे भीतर की आग बुझ जाए, हमारे सपने थम जाएं, हमारी उड़ान रुक जाए। इसलिए यह बेचैनी, यह असंतोष कहीं न कहीं हमारे लिए एक वरदान भी है। यह हमें मजबूत बनाता है, हमें सिखाता है कि ज़िंदगी रुकने का नहीं, आगे बढ़ते रहने का नाम है। पर वहीं यह बेचैनी कभी-कभी हमें हमारी खुशियों से दूर भी कर देती है। हम जो कुछ पा चुके होते हैं, उसकी कदर करना भूल जाते हैं। हमारे पास जो अनमोल पल होते हैं, उन्हें जीना भूल जाते हैं। हम भविष्य की चिंता में वर्तमान को खो देते हैं। शायद इसी कारण यह बेचैनी एक अभिशाप भी बन जाती है।
फिर भी, इसी संघर्ष, इसी अधूरेपन, इसी निरंतर चलती कोशिशों से ही तो ज़िंदगी में खूबसूरती आती है। अगर सब कुछ एक ही दिन में मिल जाए तो शायद ज़िंदगी का स्वाद ही खत्म हो जाए। इसलिए कभी-कभी रुककर, मुस्कुराकर, अपने सफर को देखने की जरूरत होती है। खुद को याद दिलाने की जरूरत होती है कि भले ही मंजिल अभी दूर हो, मगर हमने भी बहुत लंबा सफर तय किया है। और यही सफर, यही उतार-चढ़ाव, यही सपनों के पीछे दौड़ना ही शायद ज़िंदगी का असली मतलब है। है न?
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"The clearest way into the Universe is through a forest wilderness."
– John Muir
– John Muir
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राजरप्पा के माँ छिन्नमस्तिका मंदिर में आज भी जानवरों की बलि दी जाती है, जो सच में बहुत तकलीफ देने वाली बात है। आस्था का मतलब यह नहीं कि किसी निर्दोष जानवर की जान ली जाए। माँ का आशीर्वाद पाने के लिए बलिदान नहीं, सच्ची श्रद्धा चाहिए। ये परंपरा अब पुरानी हो चुकी है और समय के साथ हमें भी बदलना चाहिए। भक्ति को हिंसा से जोड़ना कहीं से भी सही नहीं है। अगर हम सच में माँ के भक्त हैं, तो हमें उनकी पूजा ऐसे तरीके से करनी चाहिए जिससे किसी को तकलीफ न हो, फिर चाहे वो इंसान हो या जानवर।
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