तिजोरी में स्त्री
21/08/2021 / AISHWARYA MOHAN GAHRANA
जब तब सामाजिक माध्यमों पर विद्वतजन एक क़िस्सा रुपी आलेख प्रस्तुत करते हैं| किस्सा कुछ यूँ है, किसी “आधुनिका” विद्वान संत द्वारा आधुनिक स्त्रियों के बारे में, खासकर उनके कपड़ों के बारे में टिपण्णी करने पर कड़ी आपत्ति दर्ज की| ज्ञान पराक्रमी संत ने “आधुनिका” से प्रश्न किया, पुत्री, आप लोहे को तिजोरी में रखेंगी या हीरे को| “आधुनिका” ने उत्तर दिया, हीरे को ही तिजोरी में रखेंगे| तब विद्वत संत ने समझाया कि बेटियां अनमोल होती हैं, इसलिए उन्हें संभाल कर रखा जाता है, यह बार स्त्रियों को भी समझनी चाहिए| इस के बाद कुछ आलेख सा आता है| कुल जमा यह, आधुनिका जी समझ जाती हैं और किस्सा ख़त्म सा हो जाता है|
किस्से के बाद एक होड़ जाती हैं, इस किस्से और उसके निष्कर्ष का समर्थन करने वालों की होड़ सी लग जाती हैं| संत महोदय के कोई नहीं पूछता, स्त्रियों को कितनी हिफाजत में रखना है| कोई यह भी नहीं पूछता कि क्या स्त्रियों वस्तु हैं कि तिजोरी में रखा जाए| अब, स्त्री को लोहे की तिजोरी में तो बंद नहीं नहीं कर सकते| आखिर तमाम काम भी तो करने करवाने भी तो हैं| यहाँ दिखाई देता है, क्षमता, समझ और सामाजिक स्तर का खेल|
दूसरा किस्सा रुपी आलेख और भी है| एक देवी जी एक दिन विलायती घाघरे में कहीं जातीं हैं तो ऑटो वाला उन्हें मेडम कहकर बुलाता है| दूसरे दिन पंजाबी कपड़ों में तो उन्हें बहन जी कहता है| तीसरे दिन जब वह देवी जी साड़ी पहन कर जातीं हैं तो वह ऑटो वाला उन्हें माताजी कहता है|
यह किस्सा खास हमारे दिल को छू गया कि जिस दिन बाल रंग नहीं होते तो लोग अंकल कहते हैं, जिस दिन दाढ़ी भी बढ़ी हो बाबा, जिस दिन सफ़ाचट दाढ़ी और कालिख़ पुते बाल हो तो भैया| पर यहाँ तो कपड़ों की महिमा थी|
इस किस्से के एक प्रेषक एक दिन नई धज का सजधज कुर्ता पायजामा पहने हुए सूती साड़ी में लिपटी अपनी पत्नी के साथ नजर आए| हमने उन्हें भाईसाहब और उनकी पत्नी को माताजी कहकर सम्मान पूर्वक अभिवादन किया| माताजी चिढ़ कर बोली, अब यह क्या तरीका है? हमने कहा हमने एक संदेशा पढ़ा है कि साड़ी वाली कन्याएं माताजी नजर आती हैं, आप तो भरी-पूरी औरत है| इन किस्सेनुमा आलेखों के अग्रसारकों का पूरा दलबल मौजूद है|
भारत के सामाजिक संचार माध्यमों में एक मौन आम सहमति दिखाई देती है| स्त्री की सुरक्षा ढके शरीर और “पूरे” कपड़ों में है| ऐसा नहीं कि कोई लड़कों को नहीं समझाना चाहता, परन्तु हमारे पास वह भाषा और व्याकरण नहीं है जिस से लड़कों को समझाया जाए| हम स्त्री के सम्मान की बात करते है तो परन्तु सम्मान के इस व्याकरण में माता या बहन रूप में सम्मान है, स्त्री रूप में उसका कोई सम्मान नहीं| हमारा कोई व्याकरण नहीं जो कहे कि पत्नी, प्रेमिका, परस्त्री आदि का भी कोई सम्मान है| इस देश में स्त्रियाँ अपने पति की प्रसंशा में कहती है;” मेरे ‘ये’ तो मुझे पूरा सम्मान देते हैं, मेरी इच्छा-अनिच्छा का ख्याल रखते हैं”| जिस दिन यह सम्मान और इच्छा अनिच्छा के प्रश्न प्रसंशा के विषय नहीं रहेंगे तब पत्नी को सामाजिक स्तर पर सम्मान की बात कहिएगा|
हम चाहते हैं, स्त्रियां मोटे कपड़ों में सिर से पैर तक ढकी रहें| अगर ऐसा न हो पाए तो उनके सास ससुर माँ बाप कहें, हमारी बहु-बेटियाँ नौकरी करती है तो फलाना कपड़ा मजबूरन पहनती हैं, वर्ना तो सिर से पल्लू नीचे नहीं गिरातीं| सिर पर पल्लू रखने की तारीफ़ में लम्बे घूँघट की दिली इच्छा जोर मारती रहती है| अगर धर्म की घृणाएँ बाधाएं न बनतीं तो भारतीय औरतों को पर्दा, घूँघट, हिज़ाब और बुर्क़ा पहनाना ही सर्वधर्म समभाव कहलाता|
21/08/2021 / AISHWARYA MOHAN GAHRANA
जब तब सामाजिक माध्यमों पर विद्वतजन एक क़िस्सा रुपी आलेख प्रस्तुत करते हैं| किस्सा कुछ यूँ है, किसी “आधुनिका” विद्वान संत द्वारा आधुनिक स्त्रियों के बारे में, खासकर उनके कपड़ों के बारे में टिपण्णी करने पर कड़ी आपत्ति दर्ज की| ज्ञान पराक्रमी संत ने “आधुनिका” से प्रश्न किया, पुत्री, आप लोहे को तिजोरी में रखेंगी या हीरे को| “आधुनिका” ने उत्तर दिया, हीरे को ही तिजोरी में रखेंगे| तब विद्वत संत ने समझाया कि बेटियां अनमोल होती हैं, इसलिए उन्हें संभाल कर रखा जाता है, यह बार स्त्रियों को भी समझनी चाहिए| इस के बाद कुछ आलेख सा आता है| कुल जमा यह, आधुनिका जी समझ जाती हैं और किस्सा ख़त्म सा हो जाता है|
किस्से के बाद एक होड़ जाती हैं, इस किस्से और उसके निष्कर्ष का समर्थन करने वालों की होड़ सी लग जाती हैं| संत महोदय के कोई नहीं पूछता, स्त्रियों को कितनी हिफाजत में रखना है| कोई यह भी नहीं पूछता कि क्या स्त्रियों वस्तु हैं कि तिजोरी में रखा जाए| अब, स्त्री को लोहे की तिजोरी में तो बंद नहीं नहीं कर सकते| आखिर तमाम काम भी तो करने करवाने भी तो हैं| यहाँ दिखाई देता है, क्षमता, समझ और सामाजिक स्तर का खेल|
दूसरा किस्सा रुपी आलेख और भी है| एक देवी जी एक दिन विलायती घाघरे में कहीं जातीं हैं तो ऑटो वाला उन्हें मेडम कहकर बुलाता है| दूसरे दिन पंजाबी कपड़ों में तो उन्हें बहन जी कहता है| तीसरे दिन जब वह देवी जी साड़ी पहन कर जातीं हैं तो वह ऑटो वाला उन्हें माताजी कहता है|
यह किस्सा खास हमारे दिल को छू गया कि जिस दिन बाल रंग नहीं होते तो लोग अंकल कहते हैं, जिस दिन दाढ़ी भी बढ़ी हो बाबा, जिस दिन सफ़ाचट दाढ़ी और कालिख़ पुते बाल हो तो भैया| पर यहाँ तो कपड़ों की महिमा थी|
इस किस्से के एक प्रेषक एक दिन नई धज का सजधज कुर्ता पायजामा पहने हुए सूती साड़ी में लिपटी अपनी पत्नी के साथ नजर आए| हमने उन्हें भाईसाहब और उनकी पत्नी को माताजी कहकर सम्मान पूर्वक अभिवादन किया| माताजी चिढ़ कर बोली, अब यह क्या तरीका है? हमने कहा हमने एक संदेशा पढ़ा है कि साड़ी वाली कन्याएं माताजी नजर आती हैं, आप तो भरी-पूरी औरत है| इन किस्सेनुमा आलेखों के अग्रसारकों का पूरा दलबल मौजूद है|
भारत के सामाजिक संचार माध्यमों में एक मौन आम सहमति दिखाई देती है| स्त्री की सुरक्षा ढके शरीर और “पूरे” कपड़ों में है| ऐसा नहीं कि कोई लड़कों को नहीं समझाना चाहता, परन्तु हमारे पास वह भाषा और व्याकरण नहीं है जिस से लड़कों को समझाया जाए| हम स्त्री के सम्मान की बात करते है तो परन्तु सम्मान के इस व्याकरण में माता या बहन रूप में सम्मान है, स्त्री रूप में उसका कोई सम्मान नहीं| हमारा कोई व्याकरण नहीं जो कहे कि पत्नी, प्रेमिका, परस्त्री आदि का भी कोई सम्मान है| इस देश में स्त्रियाँ अपने पति की प्रसंशा में कहती है;” मेरे ‘ये’ तो मुझे पूरा सम्मान देते हैं, मेरी इच्छा-अनिच्छा का ख्याल रखते हैं”| जिस दिन यह सम्मान और इच्छा अनिच्छा के प्रश्न प्रसंशा के विषय नहीं रहेंगे तब पत्नी को सामाजिक स्तर पर सम्मान की बात कहिएगा|
हम चाहते हैं, स्त्रियां मोटे कपड़ों में सिर से पैर तक ढकी रहें| अगर ऐसा न हो पाए तो उनके सास ससुर माँ बाप कहें, हमारी बहु-बेटियाँ नौकरी करती है तो फलाना कपड़ा मजबूरन पहनती हैं, वर्ना तो सिर से पल्लू नीचे नहीं गिरातीं| सिर पर पल्लू रखने की तारीफ़ में लम्बे घूँघट की दिली इच्छा जोर मारती रहती है| अगर धर्म की घृणाएँ बाधाएं न बनतीं तो भारतीय औरतों को पर्दा, घूँघट, हिज़ाब और बुर्क़ा पहनाना ही सर्वधर्म समभाव कहलाता|
मैं और मिच्छामि दुक्कडम्
22/04/2017 / AISHWARYA MOHAN GAHRANA
सभी के जीवन में कष्ट, कठिनाई, दुःख, क्रोध, घृणा, अवसाद आते हैं| उनके आवृत्ति और अन्तराल भिन्न हो सकते हैं| मेरे और आपके जीवन में भी आये हैं| सबको अपने दुःख प्यारे होते हैं| मैं और आप – हम सब उनके साथ जीते हैं| मैं क्या जानूं, दुःख क्यों आये| जब सोचता हूँ, तो हर दुःख के पीछे कोई न कोई मिल जाता है – पड़ौसी, मित्र-शत्रु, नाते-रिश्तेदार, सगे-सम्बन्धी, देश-विदेश, नेता-अभिनेता, अपराधी-आतंकवादी| कई बार किसी संत-महात्मा, धर्म-गुरु या प्रेरक वक्ता को पढ़ता-सुनता हूँ, लगता हैं – दुःख का कारण तो मैं ही हूँ| ध्यान के प्रारंभ में लगता हैं – मैं स्वयं दुःख हूँ| मैं दुःखी नहीं हूँ – स्वयं दुःख हूँ| मैं दुःख हूँ – अपने पर भी क्रोध आता हैं|
उन दुःखों को कितना याद करूं, जो भुलाये नहीं जाते| मैं दुःख नहीं भूलता| दुःख हमारी वास्तविकता होते हैं – भोगा हुआ यथार्थ|
प्रकृति और परिस्तिथि तो कठिन बनीं हीं रहतीं हैं| जीवन में कोई न कोई हमें कष्ट देता रहता है| कुछ मित्र-नातेदार तो बड़े ही प्रेम से कष्ट दे देते हैं| घृणा आती हैं उनसे और उनकी कष्टकारी प्रकृति से| ईश्वर भी कष्ट देता है| ईश्वर के पास तो कष्ट देने के अनोखे कारण है – भक्ति करवाना और परीक्षा लेना| मैं ईश्वर पर भी क्रोधित होता रहा हूँ| मैं किसी को अब मुझे दुःख देने का मौका नहीं देता| मैं अब क्रोध नहीं करता| पड़ौसी, मित्र-शत्रु, नाते-रिश्तेदार, सगे-सम्बन्धी, और ईश्वर को मेरे क्रोध से कोई फर्क नहीं पड़ता| तनाव और अवसाद तो मुझे होता है, मुझे हुआ था|
एक सज्जन मिले थे, उन्हें नहीं जानता| उन्होंने कहा था, क्रोध दान कर दे| मैंने कहा, क्रोध वस्तु है क्या? उन्होंने कहा, हाँ| किसे दूं दान? उन्होंने पास पड़े पत्थर की ओर इशारा किया| वो पत्थर अब कभी कभी तीव्र क्रोध करता होगा|
मगर फिर भी, अवसाद भी हुआ| अवसाद, समाज इसे पागलपन की तरह देखता है| मगर मुझे पता था, क्या करना है| मेडिकल कॉलेज में प्रोफ़ेसर ने कहा, यहाँ आये तो तो पागल कैसे हो सकते हो? दवा दे सकता हूँ| मगर दवा नहीं दूंगा, इलाज करूँगा| छोटी मोटी मगर गंभीर बातें हैं, यहाँ नहीं बताऊंगा| लोग गंभीर चीजों को घरेलू नुस्खा बना लेते हैं| बहरहाल मुझे लाभ हुआ|
अब मैं क्रोध नहीं करता| क्रोध दान कर दिया तो उसे कैसे प्रयोग करूं| कभी कभी खीज आती है और क्षोभ भी होता है| दो एक साल में क्रोध आता है, तो मैं उसे पल दो पल में वापिस कर देता हूँ| कई बार गलत लोगों को, गलत बात तो तीव्रता और गंभीरता से गलत कहता हूँ, तो क्रोध पास आ जाता हैं| मैं क्रोध का निरादर नहीं करता, क्षमा मांग लेता हूँ – मिच्छामि दुक्कडम्|
खामेमी सव्व जीवे, (khāmemi savva jīve)
सव्वे जीवा खमंतु मे, (savve jīvā khamaṃtu me)
मित्ती मे सव्व भुएसु, (mittī me savva-bhūesu)
वेंर मज्झं न केणई, (veraṃ majjha na keṇa:i)
मिच्छामी दुक्कडम (micchāmi dukkaḍaṃ)
सब जीवों को मै क्षमा करता हूं, सब जीव मुझे क्षमा करे सब जीवो से मेरा मैत्री भाव रहे, किसी से वैर-भाव नही रहे| मैं जीवों से ही नहीं निर्जीव, मृत, साकार, निराकार, सापेक्ष, निरपेक्ष, भावना और विकार सबसे क्षमा मांगता हूँ|
मैं दिन नहीं देखता, जब मन आता है, स्वयं से क्षमा मांग लेता हूँ, क्षमा कर देता हूँ, | अपने कष्ट, कठिनाई, दुःख, क्रोध, घृणा, अवसाद के लिए मैं स्वयं को क्षमा कर देता हूँ| अगर मैं इन्हें ग्रहण नहीं करता तो यह मुझ तक नहीं आते|
मैं पड़ौसी, मित्र-शत्रु, नाते-रिश्तेदार, सगे-सम्बन्धी, और ईश्वर को, दिन नहीं देखता, क्षमा कर देता हूँ सबसे मन ही मन क्षमा मांग लेता हूँ| जैन नहीं हूँ, धार्मिक, आस्तिक, आसक्त और शायद निरासक्त भी नहीं हूँ| मगर संवत्सरी अवश्य मना लेता हूँ| भाद्प्रद माह की शुक्ल पक्ष चतुर्थी से प्रारंभ पर्युषण पर्व का अंतिम दिन – संवत्सरी| दसलाक्षाना का अंतिम दिन संवत्सरी| यह ही है क्षमावाणी का दिन| क्षमावाणी का यह दिन भारतीयता का जीवंत प्रमाण है|
पर्युषण पर्व के दौरान शाकाहार और जबरन शाकाहार का आजकल अधिक जोर हैं| मैं जीव-हत्या करने वाले मांसाहारी और कड़की खीरा कच्चा चबा जाने वाले शाकाहारी सबसे क्षमा मांग लेता हूँ|
मुझे संवत्सरी/क्षमावाणी आकर्षित करता है| भारतीय जैन ग्रंथों में, दिवाली और महावीर जयंती से अधिक महत्वपूर्ण जैन त्यौहार| अधिकतर भारतियों की तरह मुझे भी खान-पान से ही त्यौहार समझ आते हैं| परन्तु, मुझे यह त्यौहार भोजन से नहीं वचन से शक्ति देता है| मुझे दुःख, क्रोध, घृणा, तनाव और अवसाद से मुक्ति देता है| इस वर्ष २६ अगस्त २०१७ को क्षमावाणी है| [i]
अक्रोध और क्षमा ही तो भारतीय संस्कृति का मूल है| जुगाड़ और चलता है जैसी भारतीय भावनाओं के पीछे भी कहीं न कहीं यह ही है| ऐसा नहीं, हम भारतीय गलत को गलत नहीं मानते समझते और कहते| मगर अक्रोध और क्षमा
22/04/2017 / AISHWARYA MOHAN GAHRANA
सभी के जीवन में कष्ट, कठिनाई, दुःख, क्रोध, घृणा, अवसाद आते हैं| उनके आवृत्ति और अन्तराल भिन्न हो सकते हैं| मेरे और आपके जीवन में भी आये हैं| सबको अपने दुःख प्यारे होते हैं| मैं और आप – हम सब उनके साथ जीते हैं| मैं क्या जानूं, दुःख क्यों आये| जब सोचता हूँ, तो हर दुःख के पीछे कोई न कोई मिल जाता है – पड़ौसी, मित्र-शत्रु, नाते-रिश्तेदार, सगे-सम्बन्धी, देश-विदेश, नेता-अभिनेता, अपराधी-आतंकवादी| कई बार किसी संत-महात्मा, धर्म-गुरु या प्रेरक वक्ता को पढ़ता-सुनता हूँ, लगता हैं – दुःख का कारण तो मैं ही हूँ| ध्यान के प्रारंभ में लगता हैं – मैं स्वयं दुःख हूँ| मैं दुःखी नहीं हूँ – स्वयं दुःख हूँ| मैं दुःख हूँ – अपने पर भी क्रोध आता हैं|
उन दुःखों को कितना याद करूं, जो भुलाये नहीं जाते| मैं दुःख नहीं भूलता| दुःख हमारी वास्तविकता होते हैं – भोगा हुआ यथार्थ|
प्रकृति और परिस्तिथि तो कठिन बनीं हीं रहतीं हैं| जीवन में कोई न कोई हमें कष्ट देता रहता है| कुछ मित्र-नातेदार तो बड़े ही प्रेम से कष्ट दे देते हैं| घृणा आती हैं उनसे और उनकी कष्टकारी प्रकृति से| ईश्वर भी कष्ट देता है| ईश्वर के पास तो कष्ट देने के अनोखे कारण है – भक्ति करवाना और परीक्षा लेना| मैं ईश्वर पर भी क्रोधित होता रहा हूँ| मैं किसी को अब मुझे दुःख देने का मौका नहीं देता| मैं अब क्रोध नहीं करता| पड़ौसी, मित्र-शत्रु, नाते-रिश्तेदार, सगे-सम्बन्धी, और ईश्वर को मेरे क्रोध से कोई फर्क नहीं पड़ता| तनाव और अवसाद तो मुझे होता है, मुझे हुआ था|
एक सज्जन मिले थे, उन्हें नहीं जानता| उन्होंने कहा था, क्रोध दान कर दे| मैंने कहा, क्रोध वस्तु है क्या? उन्होंने कहा, हाँ| किसे दूं दान? उन्होंने पास पड़े पत्थर की ओर इशारा किया| वो पत्थर अब कभी कभी तीव्र क्रोध करता होगा|
मगर फिर भी, अवसाद भी हुआ| अवसाद, समाज इसे पागलपन की तरह देखता है| मगर मुझे पता था, क्या करना है| मेडिकल कॉलेज में प्रोफ़ेसर ने कहा, यहाँ आये तो तो पागल कैसे हो सकते हो? दवा दे सकता हूँ| मगर दवा नहीं दूंगा, इलाज करूँगा| छोटी मोटी मगर गंभीर बातें हैं, यहाँ नहीं बताऊंगा| लोग गंभीर चीजों को घरेलू नुस्खा बना लेते हैं| बहरहाल मुझे लाभ हुआ|
अब मैं क्रोध नहीं करता| क्रोध दान कर दिया तो उसे कैसे प्रयोग करूं| कभी कभी खीज आती है और क्षोभ भी होता है| दो एक साल में क्रोध आता है, तो मैं उसे पल दो पल में वापिस कर देता हूँ| कई बार गलत लोगों को, गलत बात तो तीव्रता और गंभीरता से गलत कहता हूँ, तो क्रोध पास आ जाता हैं| मैं क्रोध का निरादर नहीं करता, क्षमा मांग लेता हूँ – मिच्छामि दुक्कडम्|
खामेमी सव्व जीवे, (khāmemi savva jīve)
सव्वे जीवा खमंतु मे, (savve jīvā khamaṃtu me)
मित्ती मे सव्व भुएसु, (mittī me savva-bhūesu)
वेंर मज्झं न केणई, (veraṃ majjha na keṇa:i)
मिच्छामी दुक्कडम (micchāmi dukkaḍaṃ)
सब जीवों को मै क्षमा करता हूं, सब जीव मुझे क्षमा करे सब जीवो से मेरा मैत्री भाव रहे, किसी से वैर-भाव नही रहे| मैं जीवों से ही नहीं निर्जीव, मृत, साकार, निराकार, सापेक्ष, निरपेक्ष, भावना और विकार सबसे क्षमा मांगता हूँ|
मैं दिन नहीं देखता, जब मन आता है, स्वयं से क्षमा मांग लेता हूँ, क्षमा कर देता हूँ, | अपने कष्ट, कठिनाई, दुःख, क्रोध, घृणा, अवसाद के लिए मैं स्वयं को क्षमा कर देता हूँ| अगर मैं इन्हें ग्रहण नहीं करता तो यह मुझ तक नहीं आते|
मैं पड़ौसी, मित्र-शत्रु, नाते-रिश्तेदार, सगे-सम्बन्धी, और ईश्वर को, दिन नहीं देखता, क्षमा कर देता हूँ सबसे मन ही मन क्षमा मांग लेता हूँ| जैन नहीं हूँ, धार्मिक, आस्तिक, आसक्त और शायद निरासक्त भी नहीं हूँ| मगर संवत्सरी अवश्य मना लेता हूँ| भाद्प्रद माह की शुक्ल पक्ष चतुर्थी से प्रारंभ पर्युषण पर्व का अंतिम दिन – संवत्सरी| दसलाक्षाना का अंतिम दिन संवत्सरी| यह ही है क्षमावाणी का दिन| क्षमावाणी का यह दिन भारतीयता का जीवंत प्रमाण है|
पर्युषण पर्व के दौरान शाकाहार और जबरन शाकाहार का आजकल अधिक जोर हैं| मैं जीव-हत्या करने वाले मांसाहारी और कड़की खीरा कच्चा चबा जाने वाले शाकाहारी सबसे क्षमा मांग लेता हूँ|
मुझे संवत्सरी/क्षमावाणी आकर्षित करता है| भारतीय जैन ग्रंथों में, दिवाली और महावीर जयंती से अधिक महत्वपूर्ण जैन त्यौहार| अधिकतर भारतियों की तरह मुझे भी खान-पान से ही त्यौहार समझ आते हैं| परन्तु, मुझे यह त्यौहार भोजन से नहीं वचन से शक्ति देता है| मुझे दुःख, क्रोध, घृणा, तनाव और अवसाद से मुक्ति देता है| इस वर्ष २६ अगस्त २०१७ को क्षमावाणी है| [i]
अक्रोध और क्षमा ही तो भारतीय संस्कृति का मूल है| जुगाड़ और चलता है जैसी भारतीय भावनाओं के पीछे भी कहीं न कहीं यह ही है| ऐसा नहीं, हम भारतीय गलत को गलत नहीं मानते समझते और कहते| मगर अक्रोध और क्षमा
को अधिकतर अपने साथ रखते हैं| अक्रोध और क्षमा हमारी जड़ों में इतना गहरा है कि हम इसे कई बार स्वप्रद्दत (for granted) मान लेते हैं| गुण दोष होते रहते हैं| फिर भी, समग्र रूप में, मैं आज जितना भी सफल हूँ, उसमें अक्रोध और क्षमा का बड़ा योगदान है|
ऐसा नहीं है कि अक्रोध और क्षमा पर केवल भारतियों का अधिकार हैं| बहुत से अन्य लोग भारतियों सोच से अधिक भारतीय हो सकते हैं| हो सकता है, मानवता हमारी सोच से परे जाकर भारतीयता को अपना ले| भारतीय आदर-सत्कार, भोजन, योग, मनोरंजन, बोलीवुड, अक्रोध और क्षमा विश्व अपना रहा है|
मिच्छामी दुक्कडम|
[i] एक गैर भारतीय विदेशी संस्था इसी तर्ज पर सन १९९४ से अंतर्राष्ट्रीय क्षमा दिवस मनाती है|
ऐसा नहीं है कि अक्रोध और क्षमा पर केवल भारतियों का अधिकार हैं| बहुत से अन्य लोग भारतियों सोच से अधिक भारतीय हो सकते हैं| हो सकता है, मानवता हमारी सोच से परे जाकर भारतीयता को अपना ले| भारतीय आदर-सत्कार, भोजन, योग, मनोरंजन, बोलीवुड, अक्रोध और क्षमा विश्व अपना रहा है|
मिच्छामी दुक्कडम|
[i] एक गैर भारतीय विदेशी संस्था इसी तर्ज पर सन १९९४ से अंतर्राष्ट्रीय क्षमा दिवस मनाती है|
Bhagatsingh-sampooran.pdf
5.1 MB
भगत सिंह के जन्मदिन पर पढ़ें उनका सम्पूर्ण साहित्य; खासकर: मैं नास्तिक क्यों हूँ जो पृष्ठ 455 पर है|
https://thebookerprizes.com/the-booker-library/prize-years/international/2022
Congratulations
Translation of Hindi novel got this.
Congratulations
Translation of Hindi novel got this.
Thebookerprizes
The 2022 International Booker Prize | The Booker Prizes
Tomb of Sand, written by Geetanjali Shree and translated by Daisy Rockwell, has won the 2022 International Booker Prize for Translated Fiction.
🇮🇳 आप सब को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ 🇮🇳
*ऐश्वर्य मोहन गहराना*,
*कंपनी सचिव व दिवाला पेशेवर*
*ऐश्वर्य मोहन गहराना*,
*कंपनी सचिव व दिवाला पेशेवर*