Bastar Bhushan
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History, Tourism and Culture of Bastar..!
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बस्तर का भेड़ाघाट - सातधार जलप्रपात ......!

इंद्रावती बस्तर की प्राणदायिनी नदी है। यह नदी उड़िसा के कालाहांडी से निकलकर भोपालपटनम के आगे गोदावरी में विलीन हो जाती है। इस नदी में दो जलप्रपात निर्मित है पहला जगदलपुर के पास विश्वप्रसिद्ध चित्रकोट एवं दुसरा ऐतिहासिक नगरी बारसूर के पास सातधार जलप्रपात।

सातधार जलप्रपात इतिहास और प्रकृति की सुंदरता का अदभुत मेल है। इसी नदी के आगे नागो की राजधानी बारसूर है। जहां आज भी कई ऐतिहासिक महत्व के मंदिर है। इस जलप्रपात के पास ही नागों के किले के निशान बिखरे पड़े है।

यह जलप्रपात जिला दंतेवाडा के बारसूर से लगभग 04 किलोमीटर की दुरी सातधार गांव है। इस गांव के पास ही इंद्रावती नदी में अबूझमाड़ को जोड़ने के लिये पुल बना हुआ है। इस पुल से एक कच्चा मार्ग अबुझमाड़ के तुलार की तरफ जाता है। इस मार्ग में पुल से लगभग 01 किलोमीटर की दुरी पर इंद्रावती नदी में सातधार जलप्रपात बने हुये है।

कैसे पहुंचे - सड़क मार्ग से जगदलपुर से गीदम 70 किलोमीटर, गीदम से बारसूर 20 किलोमीटर, बारसूर से सातधार जलप्रपात 04 किलोमीटर। किसी भी मौसम में स्वयं के वाहन से जाया जा सकता है।

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भारतीय इतिहास में किसी राजा ने वीरता के कारण " विक्रमादित्य " और किसी ने शील के कारण " शिलादित्य " की उपाधि धारण की.....

लेकिन पाल नरेश धर्मपाल ( 770 - 810 ई. ) ने विक्रम और शील की ज्वाइंट उपाधि " विक्रमशील " धारण की...

विक्रमशील की इसी उपाधि के कारण उन्होंने " विक्रमशिला बौद्ध विहार " की स्थापना की थी....

निश्चित धर्मपाल वीर भी थे और शीलवान भी थे। तभी तो एक ओर मजूमदार ने उन्हें 100 युद्धों का नायक तो दूसरी ओर तारानाथ ने उन्हें 50 विद्यालयों का संस्थापक बताया है.....

अभिलेखों में धर्मपाल को " परम सौगत " कहा गया है....

परम सौगत क्या है?

बुद्ध का एक नाम सुगत है... जिस प्रकार बुद्ध से बौद्ध बना, उसी प्रकार सुगत से सौगत बना...

इस प्रकार परम सौगत का अर्थ " परम बौद्ध " हुआ....

धर्मपाल परम बौद्ध थे, बड़े उत्साही बौद्ध थे, 40 बरसों तक अकेले पूरबी भारत में धम्म - ध्वज फहराते रहे।
गोबरहीन के नलयुगीन शिवालय.....!

कोण्डागाँव जिले मे केशकाल के पास गोबरहीन नाम का छोटा सा गाँव है. इस गांव मे टीलो की खुदाई से अनेक प्राचीन मंदिर प्रकाश मे आये है. ईंटो से निर्मित इन मन्दिरो को तीन समूहो मे बांटा गया है जो कि विष्णु मन्दिर, बंजारिन मन्दिर और गोबराहीन मंदिर समूह मे विभक्त है. विष्णु मन्दिर समूह मे विष्णु और नरसिह मन्दिर सहित कुल दस मन्दिर, बंजारिन मंदिर समूह मे चार ध्वस्त मंदिर एवं गोबराहीन मंदिर समूह मे दो विशाल टीले है. जिसमे एक टीले की खुदाई से ईंटो से निर्मित शिव मंदिर सामने आया है.

यह मंदिर गर्भगृह और अन्तराल मे विभक्त है. गर्भगृह मे जलहरी युक्त विशाल शिवलिंग प्रतिष्ठापित है. यह मन्दिर धरातल से अधिक उंचाई पर स्थित है. मन्दिर मे प्रवेश करने के लिये उपर की ओर सीढियाँ बनी हुई थी. यह मंदिर सिरपुर के सुरंग टीले के समान रहा होगा. इसी तरह विष्णु मन्दिर समूह एवं गोबराहीन के एक अन्य टीले मे भी इसी प्रकार के विशाल और अधिक उंचाई वाले मन्दिरो के ध्वंसावशेष अवस्थित है. ये मन्दिर अपनी उंचाई और विशालता के कारण सिरपुर के सुरंग टीले मन्दिर के पूर्वगामी रहे होगे.

इन मंदिरो की अन्य विशेषता यह थी कि यहाँ स्थापित प्रतिमाये योनीपीठ मे प्रतिष्ठापित रही है. शिव मंदिर के शिवलिंग अचल शिवलिंग है जो कि धरती से बाहर तीन फ़ीट और धरती के अन्दर छ फ़ीट से अधिक लम्बाई के है. गोबराहीन के पास ही गढ धनोरा है जहां से इस प्रकार के अन्य टीले एवं प्राचीन प्रतिमाये प्राप्त हुये है.

गोबराहीन टीले मे ही भगवान भैरव की प्राचीन प्रतिमा भी स्थापित है. इतिहासकारो ने इन मंदिरो का निर्माण काल पांचवी से सातवी सदी के मध्य माना है.

प्राचीन बस्तर अर्थात महाकान्तार मे चौथी सदी से लेकर सातवी सदी तक नलवंश के शासको का शासन था. समुद्रगुप्त की प्रयागप्रशस्ति मे महाकान्तार के व्याघ्रराज को पराजित करने का उल्लेख मिलता है. व्याघ्रराज के बाद वराहराज महाकान्तार के नल शासक हुए. कोण्डागाँव के पास एडेगा से वराहराज की स्वर्ण मुद्राये प्राप्त हुई. वराह राज के बाद भवदत वर्मन शासक हुए. भवदत के बाद अर्थपति भट्टारक एवं स्कन्दवर्मन शासक बने.

स्कन्दवर्मन ने वाकाटको द्वारा नष्ट की गयी पुष्करी को पुन: बसाया. कुछ इतिहासकार ओडिसा के पोडागढ तो कुछ गढधनोरा को नलो की राजधानी पुष्करी मानते हैं. स्कन्दवर्मन के बाद बस्तर से नलो की सत्ता पतनोमुख हो गयी. आठवी सदी के मध्य राजिम मे नल शासक विलासतुंग द्वारा विष्णु मन्दिर (राजीव लोचन ) बनाये जाने का शिलालेख प्राप्त होता है. बस्तर मे नल राजाओ ने चार सौ वर्षो के शासन के दौरान ईंटो से निर्मित अनेको मंदिरो का निर्माण करवाया था. जिसके साक्ष्य आज भी टीलो में दबे हुए हैं.

ओम

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बस्तर का अनदेखा अनजाना - टोपर झरना....!

झरनो की दुनिया बस्तर मे जलप्रपातो की अपना एक खूबसूरत संसार है. यहाँ पर हर कुछ दुरी गुनगुनाते झरनो का सौन्दर्य बिखरा हुआ है. पचासो झरने खोजे जाने के बाद भी कई झरने आज भी आम लोगों के नजरो से ओझल है. ऐसा ही एक अनजाना और बेहद खूबसूरत झरना है टोपर झरना.

इस झरने को हाल ही मे जितेन्द्र नक्का भू विज्ञानी ने प्रकाश मे लाया है. तीरथगढ से कुछ पहले दरभा ब्लॉक के मावलीपदर के टोपर गांव में भी जलप्रपात मिला है।

लगभग 25 फीट की ऊंचाई से यह झरना बहता है। जलप्रपात तीनों तरफ से चट्‌टानों से घिरा है। अब तक यह जलप्रपात लोगों की पहुंच से दूर है और सिर्फ आस-पास के ग्रामीण ही इसके बारे में जानते हैं। टोपर गांव में होने के कारण इस जलप्रपात का नाम टोपर जलप्रपात रख दिया गया है।

जहां तक पहुंचने के लिए चट्‌टानों के रास्ते से करीब 70 फीट तक नीचे उतरना पड़ता है। इसके बाद 25 फीट ऊंचा यह जलप्रपात दिखता है। कोयर नाले पर बना यह जलप्रपात सितम्बर अक्टूबर मे अपने चरम पर होता है. यहाँ जाने का मार्ग भी ट्रेकिग के लिए बेहद उपयुक्त है.

ओम

छायाचित्र सौजन्य- मुन्ना बघेल
यह जानकर आश्चर्य होगा कि कर्नाटक राज्य के गुलबर्गा ज़िले में भारत के सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों में से एक स्थल है।

1993 के उत्तरार्द्ध में, कर्नाटक में भीम नदी पर एक बांध बनना था। पर्यावरण संबंधी मंज़ूरी के लिए पुरातत्वविदों की एक टीम को क्षेत्र के सर्वे के लिए भेजा गया। हैरानी की बात है कि सर्वे के दौरान टीम को कई ऐसे स्थान मिले जहां प्राचीन स्मारकों और कलाकृतियों के अवशेष थे। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण स्थान था कनगनहल्ली।
कनगनहल्ली नदी के बाएं तरफ़ स्थित था और खेतों में वृत्ताकार में बेतरतीब से रखे पत्थरों ने पुरातत्वविदों का ध्यान आकृष्ट किया। इस खोज के बाद 1994-95 में के.पी. पूनाचा की अगवाई में प्रयोग के रुप में खुदाई का आदेश दिया गया।

खुदाई में ईंटों का एक बड़ा स्तूप मिला जो नक़्क़ाशीदार पटियों से ढ़का हुआ था
ये पटिये सफ़ेद चूना-पत्थर के बने थे और संभवत: पहली और तीसरी शताब्दी के थे। खुदाई में लोहे की छड़ों की रैलिंग, खंबे और मूर्तियां मिलीं। इसके अलावा जस्ते के 60 सिक्के मिले जिन पर सातवाहन राजवंश के राजाओं के नाम लिखे हुए थे। ऐसा लगता है कि ये स्तूप सातवाहन राजवंश ने ही बनवाया होगा । सिक्कों के अलावा 200 शिला-लेख भी मिले हैं जिन पर व्यापारियों, बैंकर, बौद्ध भिक्षुओं तथा अन्य दान दाताओं के नाम लिखे हुए थे।

खुदाई के दौरान अचानक एक टीले के नीचे दो हज़ार साल पुराना बौद्ध केंद्र मिला। इसका ये मतलब हुआ कि कनगनहल्ली में शताब्दियों पहले लोग रहते थे। ये मठ संभवत: प्रमुख कारवां मार्ग पर स्थित होगा। ये मठ केंद्र मध्यप्रदेश के सांची और भरहूत बौद्ध-स्थलों की ही तरह है। बौद्ध-स्थल की खोज से ज़्यादा राजा और (संभवत:) रानी की टूटी मूर्ति ने विश्व का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा जिसमें वे महिला सहायिकाओं से घिरे नज़र आ रहे हैं। इस पर अंकित शिला-लेख पर ‘रानयो अशोक’ लिखा हुआ था। इसमें कोई शक़ नहीं कि ये मूर्ति मौर्य शासक अशोक (269-232 ई.पू.) की थी।
सम्राट अशोक की ये अब तक की एकमात्र प्रामाणिक मूर्ति मानी जाती है।
(कई सालों बाद सांची में एक पट्टिका मिली थी जिस पर अशोक का चित्र था लेकिन पहचान या प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए कोई शिला-लेख नहीं था।)

ये भी इत्तिफ़ाक़ है कि कर्नाटक के शहर मास्की में भी 1915 में पत्थर की अशोक-लाट मिली थी जिस पर अशोक का नाम लिखा हुआ था। इसके पहले सभी शिला-लेखों में अशोक को देवानामपिये पियादासी नाम से संबोधित किया गया है।

कनगनहल्ली स्तूप में अशोक के अलावा शाही परिवार के सदस्यों की कई आकृतियां मिली थीं। उदाहरण के लिए एक पैनल में सातवाहन राजा पुलुमावी को दूसरे राजवंश के राजा को उज्जैन शहर भेंट करते हुये दिखाया गया है। पुलुमावी को विजेता के हाथ पर पानी डालते दिखाया गया है। ये विजेता को उपहार देने का एक पारंपरिक तरीक़ा होता था। अन्य पैनलों पर बुद्ध के जीवन की घटनाओं और जातक कथाओं का वर्णन अंकित है।

कनगनहल्ली में प्रयोगात्मक खुदाई के बाद 1996-97 में और व्यवस्थित ढंग से खुदाई की गई। खुदाई में कई महत्वपूर्ण चीज़े मिली हैं जिससे हमें दक्षिण भारत में बौद्ध धर्म के बारे में काफ़ी जानकारी मिलती है।
अगर रिकॉर्ड को देखा जाए तो बौद्ध धर्म सबसे पहले मौर्यकाल में, कर्नाटक पहुंच गया था ..मौजूदा समय के कर्नाटक के कुछ हिस्से मौर्या साम्राज्य के अधीन थे। यहां मिले अशोक के फ़रमानों से पता चलता है कि साम्राज दक्षिण तक फैला हुआ था। कर्नाटक में बौद्ध धर्म के प्रचार का उल्लेख महावंशऔर दीपवंश ग्रंथों में मिलता है जो चौथी पांचवीं शताब्दी में लिखे गए थे। माना जाता है कि तीसरी शताब्दी ई.पू. में सम्राट अशोक के समय भिक्षु महादेव को महीषमंडल और दूसरे भिक्षु रुक्षिता को बनवासी भेजा गया था। मौजूदा समय में महीषमंडल और बनवासी कर्नाटक के हिस्से हैं।

कनगनहल्ली स्तूप दरअसल सन्नाती गांव में एक बड़े पुरातात्विक परिसर का हिस्सा हुआ करता था।ये स्थान 1986 में उस समय सुर्ख़ियों में आया जब चंद्रलंबा मंदिर परिसर में काली मंदिर की छत गिर गई थी, जो कनगनहल्ली से क़रीब 3 कि.मी. दूर है। इस दुर्घटना में मूर्ति तो नष्ट हो गई लेकिन ऐतिहासिक रुप से ये घटना बहुत लाभदायक साबित हुई। इस घटना के बाद पता चला कि मंदिर निर्माण में चार अशोक-लाट का इस्तेमाल किया गया था एक लाट का इस्तेमाल तो काली की मूर्ति की पीठिका की बुनियाद में किया गया था। इन लाटों पर पाली भाषा में ब्राह्मी लिपि में अशोक के निर्देश लिखे हुए हैं।

भारतीय पुरातत्व विभाग और राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा और खुदाई करने पर महा स्तूप के अवशेषों के साथ नक़्क़ाशीदार 60 छोटे गुंबद मिले।
कुछ ऐसी भी वस्तुएं मिली हैं जो पुरापाषाणयुग, मध्यपाषाण और नवपाषाण युग की हैं। इनमें मिट्टी के झुमके, काली पॉलिश वाले बर्तन, कांसे, हाथी दांत और लोहे के आभूषण, पक्के मार्ग वाला नगर, घर,तख़्तियां, मूर्तियां और टेराकोटा के सामान मिले
हैं।

Source
#Livehistoryindia
हल्दी: जिसके बगैर असंभव है शादी.....!

विवाह के बंधन में बंधकर दो आत्माएं एकाकार हो जाती हैं।हमारे देश में लगभग हर समुदाय के विवाह के अवसर पर दूल्हा-दूल्ही को हल्दी जरूर लगाई जाती है।इसके बगैर शादी होना असंभव ही है।हल्दी का उपयोग सौंदर्य प्रसाधन व औषधि के रूप में तो किया ही जाता है,साथ ही यह पवित्रता का प्रतीक भी है।विवाह दो व्यक्तियों के नव जीवन का आरंभ है।इस नए बंधन में बंधने से पहले उन्हें पवित्र होना ही पड़ता है।

इस तरह से विवाह से पहले लगाई गई हल्दी दोनों के शुद्धिकरण का कार्य करती है।हर घर में कभी न कभी शादी विवाह जरूर संपन्न होता है,उस समय हल्दी की आवश्यकता पड़ती है।इसीलिए बस्तर के हर घर में आपको हल्दी के लहलहाते हुए पौधे मिल ही जाएंगे।
यह कंद युक्त पौधा है।

तीखुर का पौधा भी ऐसा ही नज़र आता है मगर हल्दी के पत्ते का किनारा तोड़कर-मसलकर सूंघने पर हल्दी की गंध से आप उसकी अलग पहचान कर सकते हैं।स्थानीय भाषा में इसके लिए हरदी शब्द प्रयुक्त होता है।जबकि गोंडी भाषा में यह #कमका नाम से जाना जाता है।अपने आस पास पीले रंग को हरदी रंग कहा जाता है।

गांव शादी के मौके पर लगने वाली हल्दी घर की बाड़ियों से ही आरी है।हर घर में धान कुटाई के लिए कोटेन/बाहना व मूसल भी होता है।आदिम संस्कृति में स्त्रियों का स्थान सदैव सम्मानजनक रहा है।शादी के अवसर पर भी गांव के पुजारी या गाँयता परिवार की विवाहित महिला द्वारा मूसल से "हरदी कूटनी" की रस्म संपन्न होती है।कुटाई के दौरान मौजूद महिलाएं "हरदी कूटनी" गीत गाती हैं। हल्दी कूटने के दौरान मूसल के साम(नीचे का लौहयुक्त भाग)जमीन में न रखने का रिवाज़ है।

शाम के समय दुल्हन/दूल्हे को हल्दी व तेल चढ़ाया जाता है।सभी लोग एक दूसरे को भी हल्दी लगाते हुए परस्पर हंसी ठिठोली करते,रात भर नाचते व दूल्हा/दुल्हन को नचाते हैं।उम्मीद है आपने भी इस संस्कृति को अवश्य जीया होगा।

चलचित्र में संपन्न हो रही रस्म हरदी कूटनी की है।जिसमें एक महिला हल्दी कूट रही है व शेष री री लो यो का पारंपरिक हरदी कूटनी गीत में मग्न हैं।

आलेख , चलचित्र एवं छायाचित्र साभार @अशोक कुमार नेताम सर

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