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देह को छोटा जानना सीखो। देह को तुम जितना छोटा करते जाओगे, छोटा महत्व में, उतना वो फिर तुम्हारे लिए कम अर्थ रखेगी। जितना तुम देह को अपने लिए बड़ा करते जाओगे, महत्व में, उतना तुम्हें 'देह-देह-देह', यही लगता रहेगा। देह बोले 'सोना है', तुम जानते हो अभी उठना ज़रूरी है, उठ जाओ। देह बोले, 'मुझे सजाओ, सँवारो, ये करो', तुम बोलो, 'चुप!' मुँह धोओ, कंघी करो, आगे बढ़ो।
देह ललचा रही है किसी चीज़ के लिए, खाने के लिए, पीने के लिए, तुम्हारी उम्र में किसी विपरीत लिंगी के लिए। ठीक? देह ललचा रही होगी, हम नहीं ललच रहे। अपनेआप को देह से भिन्न घोषित करना शुरू करो। देह को सुनाओ, देह को जताओ — तू 'मैं' नहीं है, मैं तुझसे भिन्न हूँ। तू अलग, मैं अलग। हमारा तुम्हारा साथ है, एकत्व नहीं है।
~ आचार्य प्रशांत
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जब आप खुद के खिलाफ़ संघर्ष में होते हो, उस वक्त आपका जो चेहरा होता है, चेहरे पर खून दौड़ आया है, लाल हो गया है चेहरा बिलकुल और पसीना है — उस चेहरे को बोलते हैं खूबसूरती।
खूबसूरती इसमें थोड़े ही है कि बिस्तर पर पड़े हुए हैं। कभी देखा है नाली के किनारे सुअरों को लोटते हुए? अभी आजकल जाड़ा है तो धूप लेते हैं वो भी। उसमें थोड़े ही कोई खूबसूरती है? खूबसूरती है जब आप दाँत भींचकर कहते हो, ‘खुद को हरा दूँगी।’
आ रही है बात समझ में?
~ आचार्य प्रशांत
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खूबसूरती इसमें थोड़े ही है कि बिस्तर पर पड़े हुए हैं। कभी देखा है नाली के किनारे सुअरों को लोटते हुए? अभी आजकल जाड़ा है तो धूप लेते हैं वो भी। उसमें थोड़े ही कोई खूबसूरती है? खूबसूरती है जब आप दाँत भींचकर कहते हो, ‘खुद को हरा दूँगी।’
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जो ग़लत जीवन जितना ज़्यादा जी गया, उसके लिए वापस लौटना उतना मुश्किल होता जाता है। इसीलिए जिस क्षण जानो कि भूल हो रही है, तत्क्षण क़दम रोक दो। उसी समय वापस लौट पड़ो। जितनी देर तक अपनेआप को भ्रम में निवेशित रखोगे, उतना मुश्किल होता जाएगा भ्रम से वापस लौटना।
अध्यात्म कहता है — सही चुनाव कर लो! मान लो कि इस पूरे मेले में तुम्हारा प्रवेश ही तुम्हारे झूठ की वज़ह से हुआ है। मान लो, माफ़ी माँग लो। सज़ा भुगत लो और मुक्त हो जाओ।
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