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"बाहरी प्रेरणा नहीं भीतर की ऊर्जा चाहिए"
दैनिक जागरण में प्रकाशित आचार्य प्रशांत का एक लेख।

पूरा लेख पढ़ने हेतु: https://cimg.acharyaprashant.org/images/img-d8828575-1ba3-48e9-9bd8-7578bd94d6ce/40/image.jpg
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🔸 प्रेम सीखना पड़ता है 199

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आचार्य प्रशान्त
ऋषिकेश में
25 और 26 फरवरी,'23
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आचार्य प्रशान्त
ऋषिकेश में
25 और 26 फरवरी,'23
जिन्हें हम कभी धन्यवाद नहीं दे पाए
*********

आज का ये संदेश हमारे लिए कठिन है।

24,25 दिसंबर को वे वेदान्त महोत्सव में उपस्थित थे। 26 तारीख को उनके जन्मदिवस पर हमने उन्हें बोधस्थल में आमंत्रित किया। सदा की तरह उस दिन भी वे मौन ही ज़्यादा रहे, बस कुछ आवश्यक प्रश्न हमसे पूछे। तब पता नहीं था कि उसके 3 दिन बाद ही उन्हें अस्पताल में एड्मिट होना पड़ेगा, जहाँ 35 दिन संघर्ष करने के बाद वे हमारे बीच वापस नहीं आएंगे।

कहाँ से शुरू करें बात? उनकी विशेषता थी उनकी मौन उपस्थिति, अपने होने का कम-से-कम एहसास कराना। घंटों चुप बैठकर बस देखना और सुनना। और कोई बात छेड़ दी जाए तो उसका संक्षिप्त-सा ऐसा उत्तर देना जिसमें ऋषि-सी गहराई भी होती, और बालक-समान भोलापन भी। उनका मौन देखकर कौन कहता कि यह वही प्रशासनिक अधिकारी है जो उत्तरप्रदेश व्यापार कर संघ के अध्यक्ष के तौर पर नारायण दत्त तिवारी से लेकर मुलायम सिंह यादव तक के सामने बेखौफ़ दहाड़ने के लिए प्रसिद्ध था, और राजनेताओं और नौकरशाही से तमाम तरह की मुठभेड़ों की कीमत भी जिसने निडरता से चुकाई थी। नेताओं और विभाग ने बार-बार उनकी प्रोन्नति रोकी, और वे हर बार कई साल तक हाईकोर्ट में मुकदमा लड़कर अपनी सत्यनिष्ठा का दाम चुकाते रहे। पर गरजना नहीं छोड़ा – गलत बात के सामने चुप रह जाने की सलाह उन्हें खूब दी गई, पर सांसारिक व्यवहारिकता की अपेक्षा उन्होनें कष्टप्रद विद्रोह को ही चुना। हम संस्था के सदस्यों ने तो उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद ही देखा, और बड़ा शांत और मौन ही देखा। हाँ, मज़ाक में उन्हें रस आता था, और बीच-बीच में वो हमसे चुटकियाँ लेते रहते थे। हम लोग उम्र और हर तरीके से एकदम छोटे थे उनके सामने, पर कैंप इत्यादि में रोल-प्ले या खेल में वो बिल्कुल ही बच्चे बन जाते हमारे साथ।

प्रशासनिक सेवा में उन्हें कभी आना नहीं था। बतौर छात्र, उनका दिल था फिज़िक्स और कविता में। नेतृत्व क्षमता दर्शाते हुए प्रदेश की छात्र राजनीति में भी बड़ा नाम और पद रखते थे।बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से शीर्ष अंकों से स्नातकोत्तर करने के बाद वे एक महत्वपूर्ण विषय पर (Behavior of Radio Waves in Ionosphere) पर पीचडी कर रहे थे। अकस्मात उनके विद्वान गाइड की मृत्यु हो गई। प्रोजेक्ट संवेदनशील था, फंडिंग आदि में अड़चन आने लगी। आप अतिसाधारण आर्थिक पृष्ठभूमि से थे, और स्वाभिमान ने बहुत दिन तक दूसरों से माँगना स्वीकार नहीं किया। हारकर प्रशासनिक सेवा स्वीकार कर ली। पर जीवन भर वे अपने विभाग में एक आउटसाइडर (बाहरवाले) की तरह ही रहे। एक अकेला मिसफ़िट, एक संवेदनशील कवि, एक गहन विचारक, जो किसी और दुनिया के लिए आया था, जिसे कुछ और होना था, पर सांसारिक व्यवस्था में फँस गया। जो बाहर से सबके साथ होकर भी भीतर से एकदम एकांत में ही रहा, और ये एकांत ही उनकी विशिष्टता थी।

लोग पूछते हैं आचार्य जी के गुरु कौन हैं? आप लोग आज तक अनुमान नहीं लगा पाए? आचार्य जी को शिक्षा में विशिष्टता, गणित और भौतिकी से लगाव कहाँ से मिले हैं? आचार्य जी को कविता किसने दी? बालक प्रशांत अपनी आरंभिक कविताएं लेकर किसके पास जाता था, कौन उनका शिल्प निखारता था? प्रशांत को दुनिया भर का साहित्य किसने लाकर दिया, 8 वर्ष की उम्र में ही “फ्रीडम एट मिडनाइट” और “द वंडर दैट वाज़ इंडिया” उसे कौन पढ़ा रहा था? 10 की उम्र में किसी बच्चे को उपनिषद कैसे मिल सकते हैं? दो टूक सच कहने की आदत प्रशांत ने किससे सीखी? यहाँ तक कि बैडमिंटन में भी उसका एकमात्र कोच कौन था? संस्कृत किससे सीखी? हिन्दी इतनी शुद्ध कैसे बोलने लगा प्रशांत? आचार्य जी को नाम ज्ञानू किसने दिया और क्यों? क्योंकि पिताजी कबीर साहब को बहुत आदर देते थे, और उन्हें बनारस में ज्ञानी नाम से संबोधित किया जाता था। तो संत कबीर के नाम पर बालक प्रशांत का नामकरण किया गया। और हम कभी समझ नहीं पाए कि आचार्य जी को कबीर साहब विशेषतया प्रिय क्यों हैं! आचार्य प्रशांत के सृजन में श्री अवधेश नारायण त्रिपाठी को सदा याद रखा जाएगा।

ज़िंदगी भर अपने पिता को नौकरी को ठोकर पर रखते देखा। यही कारण था कि प्रशांत भी से प्रशासनिक सेवा में चयनित होने के बाद भी नौकरी को अस्वीकार कर पाया। एक बात और सुनिए – सरकारी नौकरी छोड़ूँ या करूँ – ये सलाह लेने भी युवा प्रशांत पिता के पास ही गया था। दुनिया भर के माँ-बाप आतुर रहते हैं कि उनकी औलाद यूपीएससी पार कर ले, पर इस पिता ने पुत्र का चेहरा देखा, और बस दो शब्द कहे, “छोड़ दो”। उनका ही बेटा था, उसकी धड़कन से परिचित थे, जानते थे कि वो किसी और दुनिया में प्राण भरने के लिए पैदा हुआ है, अपने ही अनुभव से ये भी जानते थे कि सरकारी नौकरी की अर्थहीनता और बंधनों को उनका विद्रोही बेटा झेल नहीं पाएगा।
दो शब्द ही कहना, और अपने आप को मौन पृष्ठभूमि में अदृश्य रखना – ये उनका तरीका था। वो अपने आप को इतना पीछे रखते थे कि उनके होने का पता ही नहीं चलता था। आप प्रश्न करते हैं – आचार्य जी ने विवाह नहीं किया, उनके घरवालों ने कुछ नहीं कहा? बात उल्टी है शायद – पिता ने औलाद को बड़ा ही इस तरह करा था कि वो दुनियादारी और परंपराओं को मानने वाली थी नहीं। जब औलाद ने विवाह को “ना” कहा, पिता चुपचाप मुस्कुरा दिए होंगे – पिता की परवरिश सफल हुई। परंपराओं की बात चली है तो बताते हैं – वे संस्कृत और शास्त्रों के गूढ ज्ञाता थे। इसलिए शुद्ध अध्यात्म की भी परख रखते थे, और मूढ़ रूढ़ियों का झूठ भी जानते थे। जहाँ कहीं कर्मकांड चल रहा होता, वहाँ पंडित की खिंचाई करने में उन्हें विशेष आनंद आता था। कथा, हवन, पाठ आदि के बीच में पंडितों को रोककर बोलते, “पंडित जी, श्लोक का उच्चारण गलत कर रहे हो”, या “पंडित जी, लोगों को हिन्दी में भी अर्थ समझाते चलो”। जब पंडित महाराज न समझा पाएं, तो मुसकुराते हुए फिर संस्कृत से हिन्दी में मौलिक अनुवाद करके वे स्वयं ही समझा देते। उपनिषदों को बहुत मान देते थे, और अंधी परंपरा और पाखंड को एक कौड़ी का महत्व नहीं देते थे। उनको जानने वाले पंडितजी - जो आचार्य जी के सत्रों में भी आते रहते हैं - ने साफ़ कह दिया है कि उनकी अन्त्येष्टि पर गरुड़ पुराण का नहीं, अपितु श्रीमद्भगवद्गीता का ही पाठ होगा। अब हमें शायद स्पष्ट हो कि बालक प्रशांत में सत्य के प्रति श्रद्धा और अंधविश्वास के प्रति आक्रोश की नींव कहाँ से पड़ी।

3 फरवरी को विदा हुए। आचार्य जी ने हमें लिखा,

“मैं जैसा भी हूँ, मुझे वैसा होने देने में उनका बड़ा योगदान रहा। बेख़ौफ़ उन्मुक्त आज़ादी - उन्हीं से सीखी। कविता भी उनसे मिली, कबीर साहब भी, और ऋचाएँ भी। एथलीट थे, बैडमिंटन भी उन्हीं से सीखा। हिंदी, अंग्रेज़ी, गणित, संस्कृत, इतिहास... । 'पिता' जैसा अधिकारपूर्ण व्यवहार उन्होनें कभी किया नहीं। मुझपर पितृसत्ता का दबाव कभी पड़ने नहीं दिया। अफ़सर रहे, गृहस्थ भी, पर एकदम स्पष्ट था कि दुनियादारी में उनका जी बहुत लगता नहीं था। दुनिया से उनका छत्तीस का ही आँकड़ा रहा। उनका होना प्रमाण था कि अपनी अक्खड़ अनाड़ी शर्तों पर जीना संभव है, दुनिया को सर चढ़ाए बिना। संसार से डरते सहमते उन्हें पाया नहीं। शायद मेरी चेतना के निर्बाध बढ़ने में यही उनका आशीर्वाद था।

स्वतंत्र जीने का ठेठ बनारसी अंदाज़ रहा। दो दिन पहले तक ठीक हो रहे थे, लग रहा था जल्दी डिस्चार्ज भी हो जाएँगे। पर हो भी जाते तो अब शरीर पर बंधन और बढ़ गए थे। हार्ट, लंग्स, किडनी, सब सहारे पर ही चलते। खाने का शौक था, वो कब का बंद हो चुका था। अब पानी भी बंद कर दिया गया। वाणी ओजस्वी थी, पर गले में ट्यूब डल गई, तो बोल भी नहीं सकते थे। इशारे से पानी माँगते थे। डिस्चार्ज होने वाले थे - जैसे निर्णय किया कि डिस्चार्ज होकर और बीमार जीना स्वीकार नहीं। हृदय की स्थिति अचानक से गिरी। दो हार्टअटैक।

शाम 5 बजे विदा हुए। जो विदा नहीं हो सकता शायद वो मुझमें शेष छोड़ गए।"

आपकी संस्था को उनका योगदान बहुत आधारभूत रहा। सबसे पहले तो यही कि उन्होनें संस्था को आचार्य प्रशांत दिए। संस्था के आरंभिक वर्षों में जब सत्र होते थे, उनमें वे नियमित रूप से उपस्थित रहकर चर्चा को दिशा दिया करते थे। आचार्य जी ने उनसे कम ही सलाह माँगी, पर जब माँगी तब बहुत गंभीर और नाज़ुक मुद्दों पर माँगी। उनका मार्गदर्शन अमूल्य रहा। संस्था के पास कोई जगह नहीं थी, तो पहले तो उन्होनें अपने मकान में संस्था को आश्रय दिया, फिर चुपचाप उन्होंने हमें वर्तमान बोधस्थल ही भेंट कर दिया। अपने संसाधनों पर तो संस्था इतनी समर्थ न हो पाती कि काम करने के लिए समुचित जगह की व्यवस्था कर पाती। स्वयं वे एक आधे आकार के घर में परिवारसहित रहे, और अपना बड़ा प्लॉट उन्होंने संस्था को भेंट कर दिया। पर न कभी उन्होंने देना प्रदर्शित किया, और हमारा दुर्भाग्य ये रहा कि उनके तमाम उपकारों के लिए हम कभी उन्हें धन्यवाद न दे पाए।

अब जब पार्थिव रूप से वे नहीं हैं, उन्हें कैसे याद करें? एक विचारक, एक विद्रोही, एक पिता, एक कवि, कैसे? हमने आचार्य जी से पूछा। वे बोले – एक प्रेमी। उनकी सबसे मूल बात थी उनका मौन, संवेदनशील प्रेम। एकदम चुप प्रेम। इतना नाज़ुक प्रेम जो थोड़े भी शब्दों का आघात सहन न कर पाए। उन्होंने 200 से अधिक कविताएं, कहानियाँ और लेख लिखे। कविताएं सर्वोच्च कोटि के साहित्य की श्रेणी की हैं। पर ये सारा कृतित्व उन्होंने बहुत कम लोगों को दिखाया। प्रकाशित करना तो कभी चाहा ही नहीं। उनकी कविताएं उनके मूक प्रेम का गीत हैं।

उन्हीं की एक कविता की उनको श्रद्धांजलि। हमें आश्चर्य होता है कि युवा प्रशांत कालेज के दिनों में भी इतनी गहरी कविता कैसे कर लेता था। तो ये प्रस्तुत कविता पिताजी ने 16 वर्ष की आयु में लिखी थी। आचार्य जी पर अपनी विरासत का बड़ा ऋण है।
पीड़ा का परिचय

पीड़ा का परिचय मुसकानों से मत पूछो,
पूछो उससे जो पीड़ा में मुसकाता है।

हँसते होंठों के पीछे जो घटा घिरी है
बरसेगी पर रजनी के अंतिम प्रहरों में 
करुणा का संगीत न कोई सुन पाएगा
खो जाएगा सागर की चंचल लहरों में।

मिटने का इतिहास न पूछो अरमानों से
पूछो उससे जो मिटने में सुख पाता है।

तुम चाहे जितना बदनाम करो छलना को,
जीवन उसके बिना नहीं चलने वाला है।
अंधकार भी प्रिय है उसके बिना हमारे
विश्वासों का दिया नहीं जलने वाला है।

ज्वाला की शीतलता मत पूछो लपटों से
पूछो उससे जो हँस हँसकर जल जाता है।

ढूँढ रहे इस युग में निश्छल स्नेह हृदय का,
तो पागल ही भटकोगे, बस, पछताओगे,
जो प्रिय से मिल जाए समझो प्यार वही है,
उपालंभ देकर भी बोलो क्या पाओगे?

मिलने का उल्लास न पूछो तुम निष्ठुर से
पूछो उससे जो तारे गिनता सो जाता है।

(2.1.1967)

नीचे संलग्न कुछ चित्रों के संदर्भ:
1. आचार्य जी के साथ, 1999
2. तत्कालीन प्रधानमंत्री के साथ, 1974
3. प्रशासनिक अधिकारी, 1980
4. मुख्यमंत्री के साथ, 1989
5. पुत्र के साथ, 1989
6. अद्वैत शिविर में, 2017
7. बोधस्थल उद्घाटन, 2017
8. कर्म पुस्तक के साथ, 2021
9. वेदांत महोत्सव, 2022
10. पोर्ट्रेट