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श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.67
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥६७॥


इदम् - यह; ते - तुम्हारे द्वारा; न - कभी नहीं; अतपस्काय - असंयमी के लिए; न - कभी नहीं; अभक्ताय - अभक्त के लिए;कदाचन - किसी समय; न - कभी नहीं; च - भी; अशुश्रूष्वे - जो भक्ति में रत नहीं है; वाच्यम् - कहने के लिए; न - कभी नहीं; च - भी; माम् - मेरे प्रति; यः - जो; अभ्यसूयति - द्वेष करता है |

भावार्थ
यह गुह्यज्ञान उनको कभी भी न बताया जाय जो न तो संयमी हैं, न एकनिष्ठ, न भक्ति में रत हैं, न ही उसे जो मुझसे द्वेष करता हो |

तात्पर्य
जिन लोगों ने तपस्यामय धार्मिक अनुष्ठान नहीं किये, जिन्होंने कृष्णभावनामृत में भक्ति का कभी प्रयत्न नहीं किया, जिन्होंने किसी शुद्धभक्त की सेवा नहीं की तथा विशेषतया जो लोग कृष्ण को केवल ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं, या जो कृष्ण की महानता से द्वेष रखते हैं, उन्हें यह परम गुह्यज्ञान नहीं बताना चाहिए | लेकिन कभी-कभी यह देखा जाता है कि कृष्ण से द्वेष रखने वाले आसुरी पुरुष भीकृष्ण की पूजा भिन्न प्रकार से करते हैं और व्यवसाय चलाने के लिए भगवद्गीता का प्रवचन करने का धंधा अपना लेते हैं |लेकिन जो सचमुच कृष्ण को जानने का इच्छुक हो उसे भगवद्गीता के ऐसे भाष्यों से बचना चाहिए | वास्तव में कामी लोग भगवद्गीता के प्रयोजन को नहीं समझ पाते | यदि कोई कामी भी न हो और वैदिक शास्त्रों द्वारा आदिष्ट नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करता हो, लेकिन यदि वह भक्त नहीं है, तो वह कृष्ण को नहीं समझ सकता | और यदि वह अपने को कृष्णभक्त बताता है, लेकिन कृष्णभावनाभावित कार्यकलापों में रत नहीं रहता, तब भी वह कृष्ण को नहीं समझ पाता | ऐसे बहुत से लोग हैं, जो भगवान् से इसलिए द्वेष रखते हैं, क्योंकि उन्होंनेभगवद्गीता में कहा है कि वे परम हैं और कोई न तो उनसे बढ़कर, न उनके समान है | ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं, जो कृष्ण से द्वेषरखते हैं | ऐसे लोगों को भगवद्गीता नहीं सुनाना चाहिए, क्योंकि वे उसे समझ नहीं पाते | श्रद्धाविहीन लोग भगवद्गीतातथा कृष्ण को नहीं समझ पाएँगे | शुद्धभक्त से कृष्ण को समझे बिना किसी को भगवद्गीता की टीका करने का साहस नहीं करना चाहिए |
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.68
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥६८॥


यः - जो; इदम् - इस; परमम् - अत्यन्त; गुह्यम् - रहस्य को; मत् - मेरे; भक्तेषु - भक्तों में से; अभिधास्यति - कहता है; भक्तिम् - भक्ति को; मयि - मुझको; पराम् - दिव्य; कृत्वा - करके; माम् - मुझको; एव - निश्चय ही; एष्यति - प्राप्त होता है;असंशय - इसमें कोई सन्देह नहीं |

भावार्थ
जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्ध भक्ति को प्राप्त करेगा और अन्त में वह मेरे पास वापस आएगा |

तात्पर्य
सामान्यतः यह उपदेश दिया जाता है कि केवल भक्तों के बीच में भगवद्गीता की विवेचना की जाय, क्योंकि जो लोग भक्त नहीं हैं, वे न तो कृष्ण को समझेंगे, न ही भगवद्गीता को | जो लोग कृष्ण को तथा भगवद्गीता को यथारूप में स्वीकार नहीं करते,उन्हें मनमाने ढंग से भगवद्गीता की व्याख्या करने का प्रयत्न करने का अपराध मोल नहीं लेना चाहिए | भगवद्गीता की विवेचना उन्हीं से की जाय, जो कृष्ण को भगवान् के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हों | यह एकमात्र भक्तों का विषय है, दार्शनिक चिन्तकों का नहीं, लेकिन जो कोई भगवद्गीता को यथारूप में प्रस्तुत करने का सच्चे मन से प्रयास करता है, वह भक्ति के कार्यकलापों में प्रगति करता है और शुद्ध भक्तिमय जीवन को प्राप्त होता है | ऐसी शुद्धभक्ति के फलस्वरूप उसका भगवद्धाम जानाध्रुव है |
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.69
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥६९॥

न - कभी नहीं; च - तथा; तस्मात् - उसकी अपेक्षा; मनुष्येषु - मनुष्यों में; कश्र्चित् - कोई; मे - मुझको; प्रिय-कृत्-तमः - अत्यन्त प्रिय;भविता - होगा; न - न तो; च - तथा; मे - मुझको; तस्मात् - उसकी अपेक्षा उससे; अन्यः - कोई; प्रिय-तरः - अधिक प्रिय; भुवि - इस संसार में |

भावार्थ
इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय है और न कभी होगा |
हरे कृष्ण
इस्कॉन अलीगढ़ की तरफ से रविवारीय प्रीतिभोज कार्यक्रम के शुभ अवसर पर आयोजित हरिकथा एवं हरिनाम संकीर्तन में आपको सादर आमंत्रित करते है |
दिनांक :- 19 जनवरी 2020 , रविवार
समय :- सुबह 11 बजे से दोपहर 2 बजे तक
कथा व्यास :- श्रीश्रीमान रसराज दास प्रभु जी
महाप्रसाद भंडारा: दोपहर 1.30 बजे
स्थान:- गीता ज्ञान मंदिर, 11 कि. मि. रामघाट रोड, हरदुआगंज, अलीगढ़

संपर्क सूत्र :- 7017128209, 8134960793
समय का विशेष ध्यान रखे|
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.70
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥७०॥


अध्येष्यते– अध्ययन या पाठ करेगा; च– भी; यः– जो; इमम्– इस; धर्मम्– पवित्र; संवादम्– वार्तालाप या संवाद को; आवयोः– हम दोनों के; ज्ञान– ज्ञान रूपी; यज्ञेन– यग्य से; तेन– उसके द्वारा; अहम्– मैं; इष्टः– पूजित; स्याम्– होऊँगा; इति– इस प्रकार; मे– मेरा;मतिः– मत |

भावार्थ
और मैं घोषित करता हूँ कि जो हमारे इस पवित्र संवाद का अध्ययन करता है, वह अपनी बुद्धि से मेरी पूजा करता है |
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श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.71
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥७१॥

श्रद्धा-वान्– श्रद्धालु; अनसूयः– द्वेषरहित; च– तथा; शृणुयात्– सुनता है; अपि– निश्चय ही; यः– जो; नरः– मनुष्य; सः– वह; अपि– भी; मुक्तः– मुक्त होकर; शुभान्– शुभ; लोकान्– लोकों को; प्राप्नुयात्– प्राप्त करता है; पुण्य-कर्मणाम्– पुण्यात्माओं का |

भावार्थ
और जो श्रद्धा समेत और द्वेषरहित होकर इसे सुनता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है और उन शुभ लोकों को प्राप्त होता है, जहाँ पुण्यात्माएँ निवास करती हैं |


तात्पर्य
इस अध्याय के ६७वें श्लोक में भगवान् ने स्पष्टतः मना किया है कि जो लोग उनसे द्वेष रखते हैं उन्हें गीता न सुनाई जाए | भगवद्गीता केवल भक्तों के लिए है | लेकिन ऐसा होता है कि कभी-कभी भगवद्भक्त आम कक्षा में प्रवचन करता है और उस कक्षा में सारे छात्रों के भक्त होने की अपेक्षा नहीं की जाती | तो फिर ऐसे लोग खुली कक्षा क्यों चलाते हैं ? यहाँ यह बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति भक्त नहीं होता, फिर भी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो कृष्ण से द्वेष नहीं रखते | उन्हें कृष्ण पर परमेश्र्वर रूप में श्रद्धा रहती है | यदि ऐसे लोग भगवान् के बारे में किसी प्रामाणिक भक्त से सुनते हैं, तो वे अपने पापों से तुरन्त मुक्त हो जाते हैं और ऐसे लोक को प्राप्त होते हैं, जहाँ पुण्यात्माएँ वास करती हैं | अतएव भगवद्गीता के श्रवण मात्र से ऐसे व्यक्ति को भी पुण्यकर्मों का फल प्राप्त हो जाता है, जो अपने को शुद्ध भक्त बनाने का प्रयत्न नहीं करता | इस प्रकार भगवद्भक्त हर एक व्यक्ति के लिए अवसर प्रदान करता है कि वह समस्त पापों से मुक्त होकर भगवान् का भक्त बने |
सामान्यतया जो लोग पापों से मुक्त हैं, जो पुण्यात्मा हैं, वे अत्यन्त सरलता से कृष्णभावनामृत को ग्रहण कर लेते हैं | यहाँ पर पुण्यकर्मणाम् शब्द अत्यन्त सार्थक है | यह वैदिक साहित्य में वर्णित अश्र्वमेव यज्ञ जैसे महान यज्ञों का सूचक है | जो भक्ति का आचरण करने वाले पुण्यात्मा हैं, किन्तु शुद्ध नहीं होते, वे ध्रुवलोक को प्राप्त होते हैं, जहाँ ध्रुव महाराज की अध्यक्षता है | वे भगवान् के महान भक्त हैं और उनका अपना विशेष लोक है, जो ध्रुव तारा या ध्रुवलोक कहलाता है |
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.72
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय ॥७२॥

कच्चित्– क्या; एतत्– यह; श्रुतम्– सुना गया; पार्थ– हे पृथापुत्र; त्वया– तुम्हारे द्वारा; एक-अग्रेण– एकाग्र; चेतसा– मन से; कञ्चित्– क्या; अज्ञान– अज्ञान का; सम्मोहः– मोह, भ्रम; प्रणष्टः– दूर हो गया; ते– तुम्हारा; धनञ्जय– हे सम्पत्ति के विजेता (अर्जुन) |

भावार्थ
हे पृथापुत्र! हे धनञ्जय! क्या तुमने इसे (इस शास्त्र को) एकाग्र चित्त होकर सुना? और क्या अब तुम्हारा अज्ञान तथा मोह दूर हो गया है ?

तात्पर्य
भगवान् अर्जुन के गुरु का काम कर रहे थे | अतएव यह उनका धर्म था कि अर्जुन से पूछते कि उसने पूरी भगवद्गीता ढंग से समझ ली है या नहीं | यदि नहीं समझी है, तो भगवान् उसे फिर से किसी अंश विशेष या पूरी भगवद्गीता बताने को तैयार हैं | वस्तुतः जो भी व्यक्ति कृष्ण जैसे प्रामाणिक गुरु या उनके प्रतिनिधि से भगवद्गीता सुनता है, उसका सारा अज्ञान दूर हो जाता है | भगवद्गीता कोई सामान्य ग्रंथ नहीं, जिसे किसी कवि या उपन्यासकार ने लिखा हो, इसे साक्षात् भगवान् ने कहा है | जो भाग्यशाली व्यक्ति इन उपदेशों को कृष्ण से या उनके किसी प्रामाणिक आध्यात्मिक प्रतिनिधि से सुनता है, वह अवश्य ही मुक्त पुरुष बनकर अज्ञान के अंधकार को पार कर लेता है |
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.73
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥७३॥


अर्जुनःउवाच– अर्जुन ने कहा; नष्टः– दूर हुआ; मोहः– मोह; स्मृति– स्मरण शक्ति; लब्धा– पुनः प्राप्त हुई; त्वत्-प्रसादात्– आपकी कृपा से; मया– मेरे द्वारा; अच्युत– हे अच्युत कृष्ण; स्थितः– स्थित; अस्मि– हूँ; गत– दूर हुए; सन्देहः– सारे संशय; करिष्ये– पूरा करूँगा; वचनम्– आदेश को; तव– तुम्हारे |

भावार्थ
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ ।

तात्पर्य
जीव जिसका प्रतिनिधित्व अर्जुन कर रहा है, उसका स्वरूप यह है कि वह परमेश्र्वर के आदेशानुसार कर्म करे | वह आत्मानुशासन (संयम) के लिए बना है | श्रीचैतन्य महाप्रभु का कहना है कि जीव का स्वरूप परमेश्र्वर के नित्य दास के रूप में है | इस नियम को भूल जाने के कारण जीव प्रकृति द्वारा बद्ध हो जाता है | लेकिन परमेश्र्वर की सेवा करने से वह ईश्र्वर का मुक्त दास बनता है | जीव का स्वरूप सेवक के रूप में हैं | उसे माया या परमेश्र्वर में से किसी एक की सेवा करनी होती है | यदि वह परमेश्र्वर की सेवा करता है, तो वह अपनी सामान्य स्थिति में रहता है | लेकिन यदि वह बाह्यशक्ति माया की सेवा करना पसन्द करता है, तो वह निश्चित रूप से बन्धन में पड़ जाता है | इस भौतिक जगत् में जीव मोहवश सेवा कर रहा है | वह काम तथा इच्छाओं से बँधा हुआ है, फिर भी वह अपने को जगत् का स्वामी मानता है | यही मोह कहलाता है | मुक्त होने पर पुरुष का मोह दूर हो जाता है और वह स्वेच्छा से भगवान् की इच्छानुसार कर्म करने के लिए परमेश्र्वर की शरण ग्रहण करता है | जीव को फाँसने का माया का अन्तिम पाश यह धारणा है कि वह ईश्र्वर है | जीव सोचता है कि अब वह बद्धजीव नहीं रहा, अब तो वह ईश्र्वर है | वह इतना मुर्ख होता है कि वह यह नहीं सोच पाता कि यदि वह ईश्र्वर होता तो इतना संशयग्रस्त क्यों रहता | वह इस पर विचार नहीं करता | इसलिए यही माया का अन्तिम पाश होता है | वस्तुतः माया से मुक्त होना भगवान् श्रीकृष्ण को समझना है और उनके आदेशानुसार कर्म करने के लिए सहमत होना है |
इस श्लोक में मोह शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है | मोह ज्ञान का विरोधी होता है | वास्तविक ज्ञान तो यह समझना है कि प्रत्येक जीव भगवान् का शाश्र्वत सेवक है | लेकिन जीव अपने को इस स्थिति में न समझकर सोचता है कि वह सेवक नहीं, अपितु इस जगत् का स्वामी है , क्योंकि वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताना चाहता है | यह मोह भगवत्कृपा से या शुद्ध भक्त की कृपा से जीता जा सकता है | इस मोह के दूर होने पर मनुष्य कृष्णभावनामृत में कर्म करने के लिए राजी हो जाता है |
कृष्ण के आदेशानुसार कर्म करना कृष्णभावनामृत है | बद्धजीव माया द्वारा मोहित होने के कारण यह नहीं जान पाता कि परमेश्र्वर स्वामी हैं, जो ज्ञानमय हैं और सर्वसम्पत्तिवान हैं | वे अपने भक्तों को जो कुछ चाहे दे सकते हैं | वे सब के मित्र हैं और भक्तों पर विशेष कृपालु रहते हैं | वे प्रकृति तथा समस्त जीवों के अधीक्षक हैं | वे अक्षय काल के नियन्त्रक हैं और समस्त ऐश्र्वर्यों एवं शक्तियों से पूर्ण हैं | भगवान् भक्त को आत्मसमर्पण भी कर सकते हैं | जो उन्हें नहीं जानता वह मोह के वश में है, वह भक्त नहीं बल्कि माया का सेवक बन जाता है | लेकिन अर्जुन भगवान् से भगवद्गीता सुनकर समस्त मोह से मुक्त हो गया | वह यह समझ गया कि कृष्ण केवल उसके मित्र ही नहीं बल्कि भगवान् हैं और वह कृष्ण को वास्तव में समझ गया | अतएव भगवद्गीता का पाठ करने का अर्थ है कृष्ण को वास्तविकता के साथ जानना | जब व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान होता है , तो वह स्वभावतः कृष्ण को आत्मसमर्पण करता है | जब अर्जुन समझ गया कि यह तो जनसंख्या की अनावश्यक वृद्धि को कम करने के लिए कृष्ण की योजना थी, तो उसने कृष्ण की इच्छानुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया | उसने पुनः भगवान् के आदेशानुसार युद्ध करने के लिए अपना धनुष-बाण ग्रहण कर लिया |
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.74
संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥७४॥

सञ्जय उवाच - संजय से कहा; इति– इस प्रकार; अहम्– मैं; वासुदेवस्य– कृष्ण का; पार्थस्य– अर्जुन का; च– भी; महा-आत्मनः– महात्माओं का; संवादम्– वार्ता; इमम्– यह; अश्रोषम्– सुनी है; अद्भुतम्– अद्भुत; रोम-हर्षणम्– रोंगटे खड़े करने वाली |

भावार्थ
संजय ने कहा – इस प्रकार मैंने कृष्ण तथा अर्जुन इन दोनों महापुरुषों की वार्ता सुनी | और यह सन्देश इतना अद्भुत है कि मेरे शरीर में रोमाञ्च हो रहा है |

तात्पर्य
भगवद्गीता के प्रारम्भ में धृतराष्ट्र ने अपने मन्त्री संजय से पूछा था “कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में क्या हुआ?” गुरु व्यासदेव की कृपा से संजय के हृदय में सारी घटना स्फुरित हुई थी | इस प्रकार उसने युद्धस्थल की विषय वस्तु कह सुनाई थी | यह वार्ता आश्चर्यप्रद थी, क्योंकि इसके पूर्व दो महापुरुषों के बीच ऐसी महत्त्वपूर्ण वार्ता कभी नहीं हुई थी और न भविष्य में पुनः होगी | यह वार्ता इसलिए आश्चर्यप्रद थी, क्योंकि भगवान् भी अपने तथा अपनी शक्तियों के विषय में जीवात्मा अर्जुन से वर्णन कर रहे थे, जो परम भगवद्भक्त था | यदि हम कृष्ण को समझने के लिए अर्जुन का अनुसरण करें तो हमारा जीवन सुखी तथा सफल हो जाए | संजय ने इसका अनुभव किया और जैसे-जैसे उसकी समझ में आता गया उसने यह वार्ता धृतराष्ट्र से कह सुनाई | अब यह निष्कर्ष निकला कि जहाँ-जहाँ कृष्ण तथा अर्जुन हैं, वहीं-वहीं विजय होती है |
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.75
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥७५॥

व्यास-प्रसादात् - व्यासदेव की कृपा से;श्रुतवान् - सुना है; एतत् - इस; गुह्यम् - गोपनीय; अहम् - मैंने; परम् - परम; योगम् - योग को; योग-इश्र्वरात् - योग के स्वामी; कृष्णात् - कृष्ण से; साक्षात् - साक्षात्;कथयतः - कहते हुए; स्वयम् - स्वयं ।

भावार्थ
व्यास की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें साक्षात् योगेश्वर कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनीं ।

तात्पर्य :
व्यास संजय के गुरु थे और संजय स्वीकार करते हैं कि व्यास की कृपा से ही वे भगवान् को समझ सके । इसका अर्थ यह हुआ कि गुरु के माध्यम से ही कृपा को समझना चाहिए, प्रत्यक्ष रूप से नहीं । गुरु स्वच्छ माध्यम है, यद्यपि अनुभव फिर भी प्रत्यक्ष ही होता है । गुरु-परम्परा का यही रहस्य है । जब गुरु प्रामाणिक हो तो भगवद्गीता का प्रत्यक्ष श्रवण किया जा सकता है,जैसा अर्जुन ने किया । संसार भर में अनेक योगी हैं, लेकिन कृष्ण योगेश्र्वर हैं | उन्होंने भगवद्गीता में स्पष्ट उपदेश दिया है, “मेरी शरण में आओ | जो ऐसा करता है वह सर्वोच्च योगी है |” छठे अध्याय के अन्तिम श्लोक में इसकी पुष्टि हुई है – योगिनाम् अपि सर्वेषाम् |
नारद कृष्ण के शिष्य हैं और व्यास के गुरु | अतएव व्यास अर्जुन के ही समान प्रामाणिक हैं, क्योंकि वे गुरु-परम्परा में आते हैं और संजय व्यासदेव के शिष्य हैं | अतएव व्यास की कृपा से संजय की इन्द्रियाँ विमल हो सकीं और वे कृष्ण का साक्षात् दर्शन कर सके तथा उनकी वार्ता सुन सके | जो व्यक्ति कृष्ण का प्रत्यक्ष दर्शन करता है, वह इस गुह्यज्ञान को समझ सकता है | यदि वह गुरु-परम्परा में नहीं होता तो वह कृष्ण की वार्ता नहीं सुन सकता | अतएव उसका ज्ञान सदैव अधुरा रहता है, विशेषतया जहाँ तक भगवद्गीता समझने का प्रश्न है |
भगवद्गीता में योग की समस्त पद्धतियों का – कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का वर्णन हुआ है | श्रीकृष्ण इन समस्त योगों के स्वामी हैं | लेकिन यह समझ लेना चाहिए कि जिस तरह अर्जुन कृष्ण को प्रत्यक्षतः समझ सकने के लिए भाग्यशाली था, उसी प्रकार व्यासदेव की कृपा से संजय भी कृष्ण को साक्षात् सुनने में समर्थ हो सका | वस्तुतः कृष्ण से प्रत्यक्षतः सुनने एवं व्यास जैसे गुरु के माध्यम से प्रत्यक्ष सुनने में कोई अन्तर नहीं है | गुरु भी व्यासदेव का प्रतिनिधि होता है | अतएव वैदिक पद्धति के अनुसार अपने गुरु के जन्मदिन पर शिष्यगण व्यास पूजा नामक उत्सव रचाते हैं |
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.76
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥७६॥

राजन्– हे राजा; संस्मृत्य– स्मरण करके; संस्मृत्य– स्मरण करके; संवादम्– वार्ता को; इमाम्– इस; अद्भुतम्– आश्चर्यजनक; केशव– भगवान् कृष्ण; अर्जुनयोः– तथा अर्जुन की; पुण्यम्– पवित्र; हृष्यामि– हर्षित होता हूँ; च– भी; मुहुःमुहुः– बारम्बार |

भावार्थ
हे राजन्! जब मैं कृष्ण तथा अर्जुन के मध्य हुई इस आश्चर्यजनक तथा पवित्र वार्ता का बारम्बार स्मरण करता हूँ, तो प्रति क्षण आह्लाद से गद्गद् हो उठता हूँ |

तात्पर्य
भगवद्गीता का ज्ञान इतना दिव्य है कि जो भी अर्जुन तथा कृष्ण के संवाद को जान लेता है, वह पुण्यत्मा बन जाता है और इस वार्तालाप को भूल नहीं सकता | आध्यात्मिक जीवन की यह दिव्य स्थिति है | दूसरे शब्दों में, जब कोई गीता को सही स्त्रोत से अर्थात् प्रत्यक्षतः कृष्ण से सुनता है, तो उसे पूर्ण कृष्णभावनामृत प्राप्त होता है | कृष्णभावनामृत का फल यह होता है कि वह अत्यधिक प्रबद्ध हो उठता है और जीवन का भोग आनन्द सहित कुछ काल तक नहीं, अपितु प्रत्येक क्षण करता है |
हरे कृष्ण
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श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.77
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥७७॥

तत्– उस; च– भी; संसृत्य– स्मरण करके; संसृत्य– स्मरण करके; रूपम्– स्वरूप को; अति– अत्यधिक; अद्भुतम्– अद्भुत; हरेः– भगवान् कृष्ण के; विस्मयः– आश्चर्य; मे– मेरा; महान– महान; राजन्– हे राजा; हृष्यामि– हर्षित हो रहा हूँ; च– भी; पुनःपुनः– फिर-फिर, बारम्बार |

भावार्थ
हे राजन्! भगवान् कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मैं अधिकाधिक आश्चर्यचकित होता हूँ और पुनःपुनः हर्षित होता हूँ |

तात्पर्य
ऐसा प्रतीत होता है कि व्यास की कृपा से संजय ने भी अर्जुन को दिखाये गये कृष्ण के विराट रूप को देखा था | निस्सन्देह यह कहा जाता है कि इसके पूर्व भगवान् कृष्ण ने कभी ऐसा रूप प्रकट नहीं किया था | यह केवल अर्जुन को दिखाया गया था, लेकिन उस समय कुछ महान भक्त भी उसे देख सके तथा व्यास उनमें से एक थे | वे भगवान् के परम भक्तों में से हैं और कृष्ण के शक्त्यावेश अवतार माने जाते हैं | व्यास ने इसे अपने शिष्य संजय के समक्ष प्रकट किया जिन्होंने अर्जुन को प्रदर्शित किये गये कृष्ण के उस अद्भुत रूप को स्मरण रखा और वे बारम्बार उसका आनन्द उठा रहे थे |
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 18: उपसंहार-संन्यास की सिद्धि

श्लोक 18.78
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥७८॥

यत्र– जहाँ; योग-ईश्र्वरः– योग के स्वामी; कृष्णः– भगवान् कृष्ण;यत्र– जहाँ; पार्थः– पृथापुत्र; धनुः–धरः– धनुषधारी; तत्र– वहाँ; श्रीः– ऐश्र्वर्य; विजयः– जीत;भूतिः– विलक्षण शक्ति; ध्रुवा– निश्चित; नीतिः– नीति; मतिः मम– मेरा मत |

भावार्थ
जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |

तात्पर्य :
भगवद्गीता का शुभारम्भ धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से हुआ | वह भीष्म, द्रोण तथा कर्ण जैसे महारथियों की सहायता से अपने पुत्रों की विजय के प्रति आशावान था | उसे आशा थी कि विजय उसके पक्ष में होगी | लेकिन युद्धक्षेत्र के दृश्य का वर्णन करने के बाद संजय ने राजा से कहा “आप अपनी विजय की बात सोच रहें हैं, लेकिन मेरा मत है कि जहाँ कृष्ण तथा अर्जुन उपस्थित हैं, वहीँ सम्पूर्ण श्री होगी |” उसने प्रत्यक्ष पुष्टि की कि धृतराष्ट्र को अपने पक्ष की विजय की आशा नहीं रखनी चाहिए | विजय तो अर्जुन के पक्ष की निश्चित है, क्योंकि उसमें कृष्ण हैं | श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के सारथी का पद स्वीकार करना एक ऐश्र्वर्य का प्रदर्शन था | कृष्ण समस्त ऐश्र्वर्यों से पूर्ण हैं और इनमें से वैराग्य एक है | ऐसे वैराग्य के भी अनेक उदाहरण हैं, क्योंकि कृष्ण वैराग्य के भी ईश्र्वर हैं |
युद्ध तो वास्तव में दुर्योधन तथा युधिष्ठिर के बीच था | अर्जुन अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर की ओर से लड़ रहा था | चूँकि कृष्ण तथा अर्जुन युधिष्ठिर की ओर थे अतएव युधिष्ठिर की विजय ध्रुव थी | युद्ध को यह निर्णय करना था कि संसार पर शासन कौन करेगा | संजय ने भविष्यवाणी की कि सत्ता युधिष्ठिर के हाथ में चली जाएगी | यहाँ पर इसकी भी भविष्यवाणी हुई है कि इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद युधिष्ठिर उत्तरोत्तर समृद्धि करेंगे, क्योंकि वे न केवल पुण्यात्मा तथा पवित्रात्मा थे, अपितु वे कठोर नीतिवादी थे | उन्होंने जीवन भर कभी असत्य भाषण नहीं किया था |
ऐसे अनेक अल्पज्ञ व्यक्ति हैं, जो भगवद्गीता को युद्धस्थल में दो मित्रों की वार्ता के रूप में ग्रहण करते हैं | लेकिन इससे ऐसा ग्रंथ कभी शास्त्र नहीं बन सकता | कुछ लोग विरोध कर सकते हैं कि कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए उकसाया, जो अनैतिक है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भगवद्गीता नीति का परम आदेश है | यह नीति विषयक आदेश नवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में है – मन्मना भव मद्भक्तः| मनुष्य को कृष्ण का भक्त बनना चाहिए और सारे धर्मों का सार है – कृष्ण की शरणागति (सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज) | भगवद्गीता का आदेश धर्म तथा नीति की परम विधि है | अन्य सारी विधियाँ भले ही शुद्ध करने वाली तथा इस विधि तक ले जाने वाली हों, लेकिन गीता का अन्तिम सन्देश समस्त नीतियों तथा धर्मों का सार वचन है – कृष्ण की शरण ग्रहण करो या कृष्ण को आत्मसमर्पण करो | यह अठारहवें अध्याय का मत है |
भगवद्गीता से हम यह समझ सकते हैं कि ज्ञान तथा ध्यान द्वारा अपनी अनुभूति एक विधि है, लेकिन कृष्ण की शरणागति सर्वोच्च सिद्धि है | यह भगवद्गीता के उपदेशों का सार है | वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अनुष्ठानों (कर्मकाण्ड) का मार्ग, ज्ञान का गुह्य मार्ग हो सकता है | लेकिन धर्म के अनुष्ठान के गुह्य होने पर भी ध्यान तथा ज्ञान गुह्यतर हैं तथा पूर्ण कृष्णभावनाभावित होकर भक्ति में कृष्ण की शरणागति गुह्यतम उपदेश है | यही अठारहवें अध्याय का सार है |
भगवद्गीता की अन्य विशेषता यह है कि वास्तविक सत्य भगवान् कृष्ण हैं | परम सत्य की अनुभूति तीन रूपों में होती है – निर्गुण ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान् श्रीकृष्ण | परम सत्य के पूर्ण ज्ञान का अर्थ है, कृष्ण का पूर्ण ज्ञान | यदि कोई कृष्ण को जान लेता है तो ज्ञान के सारे विभाग इसी ज्ञान के अंश हैं | कृष्ण दिव्य हैं क्योंकि वे अपनी नित्य अन्तरंगा शक्ति में स्थित रहते हैं | जीव उनकी शक्ति से प्रकट हैं और दो श्रेणी के होते हैं – नित्यबद्ध तथा नित्यमुक्त | ऐसे जीवों की संख्या असंख्य है और वे सब कृष्ण के मूल अंश माने जाते हैं | भौतिक शक्ति २४ प्रकार से प्रकट होती है | सृष्टि शाश्र्वत काल द्वारा प्रभावित है और बहिरंगाशक्ति द्वारा इसका सृजन तथा संहार होता है | यह दृश्य जगत पुनःपुनः प्रकट तथा अप्रकट होता रहता है |
भगवद्गीता में पाँच प्रमुख विषयों की व्याख्या की गई है – भगवान्, भौतिक प्रकृति, जीव, शाश्र्वतकाल तथा सभी प्रकार के कर्म | सब कुछ भगवान् कृष्ण पर आश्रित है | परमसत्यत की सभी धारणाएँ – निराकार ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा अन्य दिव्य अनुभूतियाँ – भगवान् के ज्ञान की कोटि में सन्निहित हैं | यद्यपि ऊपर से भगवान्, जीव, प्रकृति तथा काल भिन्न प्रतीत होते हैं, लेकिन ब्रह्म से कुछ भी भिन्न नहीं है | लेकिन ब्रह्म सदैव समस्त वस्तुओं से भिन्न है | भगवान् चैतन्य का दर्शन है “अचिन्त्यभेदाभेद” | यह दर्शन पद्धति परमसत्य के पूर्णज्ञान से युक्त है |
जीव अपने मूलरूप में शुद्ध आत्मा है | वह परमात्मा का एक परमाणु मात्र है | इस प्रकार भगवान् कृष्ण की उपमा सूर्य से दी जा सकती है और जीवों की सूर्यप्रकाश से | चूँकि सारे जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति हैं, अतएव उनका संसर्ग भौतिक शक्ति (अपरा) या आध्यात्मिक शक्ति (परा) से होता है | दूसरे शब्दों में, जीव भगवान् की पराशक्ति से है, अतएव उसमें किंचित् स्वतन्त्रता रहती है | इस स्वतन्त्रता के सदुपयोग से ही वह कृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश के अन्तर्गत आता है | इस प्रकार वह ह्लादिनी शक्ति की अपनी सामान्य दशा को प्राप्त होता है |
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय “उपसंहार-संन्यास की सिद्धि” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ |
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1.01
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥१॥

धृतराष्ट्र: उवाच - राजा धृतराष्ट्र ने कहा; धर्म-क्षेत्रे - धर्मभूमि (तीर्थस्थल) में; कुरु-क्षेत्रे -कुरुक्षेत्र नामक स्थान में; समवेता: - एकत्र ; युयुत्सवः - युद्ध करने की इच्छा से; मामकाः -मेरे पक्ष (पुत्रों); पाण्डवा: - पाण्डु के पुत्रों ने; च - तथा; एव - निश्चय ही; किम - क्या;अकुर्वत -किया; सञ्जय - हे संजय ।

भावार्थ
धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?

तात्पर्य
भगवद्गीता एक बहुपठित आस्तिक विज्ञान है जो गीता - महात्मय में सार रूप में दिया हुआ है । इसमें यह उल्लेख है कि मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीकृष्ण के भक्त की सहायता से संवीक्षण करते हुए भगवद्गीता का अध्ययन करे और स्वार्थ प्रेरित व्याख्याओं के बिना उसे समझने का प्रयास करे । अर्जुन ने जिस प्रकार से साक्षात् भगवान् कृष्ण से गीता सुनी और उसका उपदेश ग्रहण किया, इस प्रकार की स्पष्ट अनुभूति का उदाहरण भगवद्गीता में ही है । यदि उसी गुरु-परम्परा से, निजी स्वार्थ से प्रेरित हुए बिना, किसी को भगवद्गीता समझने का सौभाग्य प्राप्त हो तो वह समस्त वैदिक ज्ञान तथा विश्र्व के समस्त शास्त्रों के अध्ययन को पीछे छोड़ देता है । पाठक को भगवद्गीता में न केवल अन्य शास्त्रों की सारी बातें मिलेंगी अपितु ऐसी बातें भी मिलेंगी जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हैं । यही गीता का विशिष्ट मानदण्ड है । स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा साक्षात् उच्चरित होने के कारण यह पूर्ण आस्तिक विज्ञान है ।
महाभारत में वर्णित धृतराष्ट्र तथा संजय की वार्ताएँ इस महान दर्शन के मूल सिद्धान्त का कार्य करती हैं । माना जाता है कि इस दर्शन की प्रस्तुति कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में हुई जो वैदिक युग से पवित्र तीर्थस्थल रहा है । इसका प्रवचन भगवान् द्वारा मानव जाति के पथ-प्रदर्शन हेतु तब किया गया जब वे इस लोक में स्वयं उपस्थित थे ।
धर्मक्षेत्र शब्द सार्थक है, क्योंकि कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन के पक्ष में श्री भगवान् स्वयं उपस्थित थे । कौरवों का पिता धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की विजय की सम्भावना के विषय में अत्यधिक संधिग्ध था । अतः इसी सन्देह के कारण उसने अपने सचिव से पूछा, " उन्होंने क्या किया ?" वह आश्र्वस्थ था कि उसके पुत्र तथा उसके छोटे भाई पाण्डु के पुत्र कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में निर्णयात्मक संग्राम के लिए एकत्र हुए हैं । फिर भी उसकी जिज्ञासा सार्थक है । वह नहीं चाहता था की भाइयों में कोई समझौता हो, अतः वह युद्धभूमि में अपने पुत्रों की नियति (भाग्य, भावी) के विषय में आश्र्वस्थ होना चाह रहा था । चूँकि इस युद्ध को कुरुक्षेत्र में लड़ा जाना था, जिसका उल्लेख वेदों में स्वर्ग के निवासियों के लिए भी तीर्थस्थल के रूप में हुआ है अतः धृतराष्ट्र अत्यन्त भयभीत था कि इस पवित्र स्थल का युद्ध के परिणाम पर न जाने कैसा प्रभाव पड़े । उसे भली भाँति ज्ञात था कि इसका प्रभाव अर्जुन तथा पाण्डु के अन्य पुत्रों पर अत्यन्त अनुकूल पड़ेगा क्योंकि स्वभाव से वे सभी पुण्यात्मा थे । संजय श्री व्यास का शिष्य था, अतः उनकी कृपा से संजय धृतराष्ट्र ने उससे युद्धस्थल की स्थिति के विषय में पूछा ।
पाण्डव तथा धृतराष्ट्र के पुत्र, दोनों ही एक वंश से सम्बन्धित हैं, किन्तु यहाँ पर धृतराष्ट्र के वाक्य से उसके मनोभाव प्रकट होते हैं । उसने जान-बूझ कर अपने पुत्रों पर धृतराष्ट्र के वाक्य से उसके मनोभाव प्रकट होते हैं । उसने जान-बूझ कर अपने पुत्रों को कुरु कहा और पाण्डु के पुत्रों को वंश के उत्तराधिकार से विलग कर दिया । इस तरह पाण्डु के पुत्रों अर्थात् अपने भतीजों के साथ धृतराष्ट्र की विशिष्ट मनःस्थिति समझी जा सकती है । जिस प्रकार धान के खेत से अवांछित पोधों को उखाड़ दिया जाता है उसी प्रकार इस कथा के आरम्भ से ही ऐसी आशा की जाती है कि जहाँ धर्म के पिता श्रीकृष्ण उपस्थित हों वहाँ कुरुक्षेत्र रूपी खेत में दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्र रूपी अवांछित पौधों को समूल नष्ट करके युधिष्ठिर आदि नितान्त धार्मिक पुरुषों की स्थापना की जायेगी । यहाँ धर्मक्षेत्रे तथा कुरुक्षेत्रे शब्दों की, उनकी एतिहासिक तथा वैदिक महत्ता के अतिरिक्त, यही सार्थकता है ।
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1.02
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥२॥

सञ्जयः उवाच - संजय ने कहा; दृष्ट्वा - देखकर; तु - लेकिन; पाण्डव-अनीकम् - पाण्डवों की सेना को; व्यूढम् - व्यूहरचना को; दुर्योधनः - राजा दुर्योधन ने; तदा - उस समय; आचार्यम् - शिक्षक, गुरु के; उपसङ्गम्य - पास जाकर; राजा - राजा ; वचनम् - शब्द; अब्रवीत् - कहा; 

भावार्थ
संजय ने कहा - हे राजन! पाण्डुपुत्रों द्वारा सेना की व्यूहरचना देखकर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे ।

तात्पर्य
धृतराष्ट्र जन्म से अन्धा था । दुर्भाग्यवश वह आध्यात्मिक दृष्टि से भी वंचित था । वह यह भी जानता था की उसी के समान उसके पुत्र भी धर्म के मामले में अंधे हैं और उसे विश्र्वास था कि वे पाण्डवों के साथ कभी भी समझौता नहीं कर पायेंगें क्योंकि पाँचो पाण्डव जन्म से ही पवित्र थे । फिर भी उसे तीर्थस्थल के प्रभाव के विषय में सन्देह था । इसीलिए संजय युद्धभूमि की स्थिति के विषय में उसके प्रश्न के मंतव्य को समझ गया । अतः वह निराश राजा को प्रॊत्साहित करना चाह रहा था । उसने उसे विश्र्वास दिलाया कि उसके पुत्र पवित्र स्थान के प्रभाव में आकर किसी प्रकार का समझौता करने नहीं जा रहे हैं । उसने राजा को बताया कि उसका पुत्र दुर्योधन पाण्डवों की सेना को देखकर तुरन्त अपने सेनापति द्रोणाचार्य को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने गया । यद्यपि दुर्योधन को राजा कह कर सम्बोधित किया गया है तो भी स्थिति की गम्भीरता के कारण उसे सेनापति के पास जाना पड़ा । अतएव दुर्योधन राजनीतिज्ञ बनने के लिए सर्वथा उपयुक्त था । किन्तु जब उसने पाण्डवों की व्यूहरचना देखी तो उसका यह कूटनीतिक व्यवहार उसके भय को छिपा न पाया ।
श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप
अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण

श्लोक 1.03
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३॥

पश्य - देखिये; एतम् - इस; पाण्डु-पुत्राणाम् - पाण्डु के पुत्रों की; आचार्य -हे आचार्य (गुरु); महतीम् - विशाल; चमूम् - सेना को; व्यूढाम् - व्यवस्थित; द्रुपद-पुत्रेण - द्रुपद के पुत्र द्वारा; तव - तुम्हारे; शिष्येण - शिष्य द्वारा; धी-मता - अत्यन्त बुद्धिमान ।

भावार्थ
हे आचार्य! पाण्डुपुत्रों की विशाल सेना को देखें, जिसे आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपद के पुत्र ने इतने कौशल से व्यवस्थित किया है ।

तात्पर्य
परम राजनीतिज्ञ दुर्योधन महान ब्राह्मण सेनापति द्रोणाचार्य के दोषों को इंगित करना चाहता था । अर्जुन की पत्नी द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद के साथ द्रोणाचार्य का कुछ राजनीतिक झगड़ा था । इस झगड़े के फलस्वरूप द्रुपद ने एक महान यज्ञ सम्पन्न किया जिससे उसे एक ऐसा पुत्र प्राप्त होने का वरदान मिला जो द्रोणाचार्य का वध कर सके । द्रोणाचार्य इसे भलीभाँति जानता था किन्तु जब द्रुपद का पुत्र धृष्ट द्युम्न युद्ध-शिक्षा के लिए उसको सौंपा गया तो द्रोणाचार्य को उसे अपने सारे सैनिक रहस्य प्रदान करने में कोई झिझक नहीं हुई । अब धृष्टद्युम्न कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में पाण्डवों का पक्ष ले रहा था और उसने द्रोणाचार्य से जो कला सीखी थी उसी के आधार पर उसने यह व्यूहरचना की थी । दुर्योधन ने द्रोणाचार्य की इस दुर्बलता की ओर इंगित किया जिससे वह युद्ध में सजग रहे और समझौता न करे । इसके द्वारा वह द्रोणाचार्य को यह भी बताना चाह रहा था की कहीं वह अपने प्रिय शिष्य पाण्डवों के प्रति युद्ध में उदारता न दिखा बैठे । विशेष रूप से अर्जुन उसका अत्यन्त प्रिय एवं तेजस्वी शिष्य था । दुर्योधन ने यह भी चेतावनी दी कि युद्ध में इस प्रकार की उदारता से हार ह सकती है ।