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जैन धर्म के साथ जुड़े ऐतिहासिक पात्रों की कथा श्रेणी ....
श्री बप्पभट्टिसूरि
जैन साधु के निष्कलंक ब्रहृचर्य के उत्कृष्ट दृष्टांत स्वरुप बप्पभट्टिसूरि शास्त्रार्थ में अति प्रवीण थे । क्षत्रिय वंश में श्री बप्पभट्टि का जन्म वीर निर्वाण संवत् 1270 ( विक्रम संवत् 800 ) की भादों महीने की तृतीया को गुजरात में विद्यमान डुम्बाउधि गाँव में हुआ था । आज यह गाँव बनासकांठा में धानेरा-थराद के निकट आये हुए डुवा गाँव के रुप में पहचाना जाता हैं । उनका बचपन का नाम सूरपाल था । एक बार मोढ़ेरा में बिराजमान आचार्यश्री सिद्धसेनसूरि ने स्वप्न में बाल केसरीसिंह को चैत्य पर छलाँग मारते देखा ।
प्रात:काल में आचार्यश्री सिद्धसेनसूरि जिनालय में गये और इनकी दृष्टि इस छ: वर्ष के बालक पर पड़ी । आचार्यश्री को इस तेजस्वी बालक को देखते ही स्वप्न का स्मरण हुआ और उन्होंने बालक सूरपाल के पिता बप्प तथा माता भट्टि को बुलाया । माता-पिता ने बालक की तेजस्विता तथा दृढ़ता जानकर उसे शासन को समर्पित किया । माता-पिता की मंगल स्मृति में इस बालक का नाम बप्पभट्टि रखा गया । दीक्षा लेने के बाद बप्पभट्टि ने तर्कप्रधान ग्रंथों एवं बहत्तर कलाओं का शिक्षण प्राप्त किया ।
कान्यकुब्ज देश के आम राजा ने बप्पभट्टिसूरि से प्रतिबोध ( ज्ञान,उपदेश ) प्राप्त किया । राजा ने अपना आधा राज्य देने की बिनती की , परन्तु बप्पभट्टिसूरि ने अपरिग्रही जैन साधु का ख्याल दिया । बप्पभट्टिसूरि की काव्यरचना से कान्यकुब्ज का राजा अत्यंत प्रभावित हुआ । यह राजा बप्पभट्टिसूरि की बार-बार कसौटी करते थे ।कभी -कभी उनकी साधुता की अग्निपरीक्षा करते, तो कभी उनकी विद्वता की परीक्षा करते ।
जवान सूरिजी को देखकर ब्रहृचर्यव्रत की परीक्षा करने के लिए आम राजा ने एक गणिका को पुरुषवेश में सूरिजी के पास भेजा । गणिका चुपचाप सोते हुए सूरिजी की सेवा करने लगी । नारी का कोमल स्पर्श होते ही बप्पभट्टिसूरि जाग उठे , चौंक उठे । जवानी , रात का नीरव समय और बिलकुल एकांत में चलायमान करने का राजा आम के मनोभाव को सूरिवर परख गये । उन्होंने गणिका को वापस चले जाने को कहा । इस कामविजेता युवक के आगे गणिका झुक गई । अडिग मन के इस सूरिवर को स्वर्गलोक की अप्सरा भी चलायमान कर सके ऐसा नही था । अपने गुरु की गौरवगाथा सुनकर राजा आम हर्षविभोर हो उठे ।
एक बार धर्म राजा के निमंत्रण पर आम राजा की ओर से बप्पभट्टि एवं धर्म राजा की ओर से विद्वान वर्धनकुंजर का छ: मास तक शास्त्रार्थ चला । इस शास्त्रार्थ में बप्पभट्टिसूरि की विजय होने पर उन्हें "वादिकुंजर केसरी " की पदवी प्राप्त हुई । मत एवं वाद की विजय को इस सूरिराज ने संवाद में पलट डाला । आम राजा तथा धर्म राजा के बीच वर्षो पुराने वैरभाव की बोआई हुई थी । सूरिराज ने उन दोनों को क्षमाधर्म का माहात्म्य समझाया । इसके कारण जैन धर्म की बहुत महिमा हुई ।
इस समय मथुरा में वाकपति नामक योगी को भी बप्पभट्टिसूरि ने प्रभावित किया । ऐसे सूरिराज से उपदेश प्राप्त करके राजा ने जीवन के सांध्यकाल में दीक्षा ग्रहण की । ऐसे बप्पभट्टिसूरि ने अपने तपोमय तथा त्यागमय जीवन से जनसमूह को प्रभावित किया । उन्होंने लगभग बावन प्रबंधों की रचना की । उनमें से ' चतुर्विशति जिनस्तुति ' और ' सरस्वतीस्तोत्र ' जैसे प्रबंध आज भी उपलब्ध हैं ।
धर्म और ध्यान ,तप और त्याग जिनके जीवन की रगरग में बहता है ऐसे सूरिराज ने कलाकारों को प्रोत्साहन दिया । एक चित्रकार को उसने चित्रित किये चित्र के लिए उसे एक लाख टका दिलवाये ।
कनौज, मथुरा ,अणहिलपुर जैसे शहरों में विधिपूर्वक वीतराग परमात्मा का चित्र स्थापित किया । अनेक जैनमंदिरों के लिए भी सूरिराज ने जनसमूह को प्रेरणा दी ।
साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा
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जैन साधु के निष्कलंक ब्रहृचर्य के उत्कृष्ट दृष्टांत स्वरुप बप्पभट्टिसूरि शास्त्रार्थ में अति प्रवीण थे । क्षत्रिय वंश में श्री बप्पभट्टि का जन्म वीर निर्वाण संवत् 1270 ( विक्रम संवत् 800 ) की भादों महीने की तृतीया को गुजरात में विद्यमान डुम्बाउधि गाँव में हुआ था । आज यह गाँव बनासकांठा में धानेरा-थराद के निकट आये हुए डुवा गाँव के रुप में पहचाना जाता हैं । उनका बचपन का नाम सूरपाल था । एक बार मोढ़ेरा में बिराजमान आचार्यश्री सिद्धसेनसूरि ने स्वप्न में बाल केसरीसिंह को चैत्य पर छलाँग मारते देखा ।
प्रात:काल में आचार्यश्री सिद्धसेनसूरि जिनालय में गये और इनकी दृष्टि इस छ: वर्ष के बालक पर पड़ी । आचार्यश्री को इस तेजस्वी बालक को देखते ही स्वप्न का स्मरण हुआ और उन्होंने बालक सूरपाल के पिता बप्प तथा माता भट्टि को बुलाया । माता-पिता ने बालक की तेजस्विता तथा दृढ़ता जानकर उसे शासन को समर्पित किया । माता-पिता की मंगल स्मृति में इस बालक का नाम बप्पभट्टि रखा गया । दीक्षा लेने के बाद बप्पभट्टि ने तर्कप्रधान ग्रंथों एवं बहत्तर कलाओं का शिक्षण प्राप्त किया ।
कान्यकुब्ज देश के आम राजा ने बप्पभट्टिसूरि से प्रतिबोध ( ज्ञान,उपदेश ) प्राप्त किया । राजा ने अपना आधा राज्य देने की बिनती की , परन्तु बप्पभट्टिसूरि ने अपरिग्रही जैन साधु का ख्याल दिया । बप्पभट्टिसूरि की काव्यरचना से कान्यकुब्ज का राजा अत्यंत प्रभावित हुआ । यह राजा बप्पभट्टिसूरि की बार-बार कसौटी करते थे ।कभी -कभी उनकी साधुता की अग्निपरीक्षा करते, तो कभी उनकी विद्वता की परीक्षा करते ।
जवान सूरिजी को देखकर ब्रहृचर्यव्रत की परीक्षा करने के लिए आम राजा ने एक गणिका को पुरुषवेश में सूरिजी के पास भेजा । गणिका चुपचाप सोते हुए सूरिजी की सेवा करने लगी । नारी का कोमल स्पर्श होते ही बप्पभट्टिसूरि जाग उठे , चौंक उठे । जवानी , रात का नीरव समय और बिलकुल एकांत में चलायमान करने का राजा आम के मनोभाव को सूरिवर परख गये । उन्होंने गणिका को वापस चले जाने को कहा । इस कामविजेता युवक के आगे गणिका झुक गई । अडिग मन के इस सूरिवर को स्वर्गलोक की अप्सरा भी चलायमान कर सके ऐसा नही था । अपने गुरु की गौरवगाथा सुनकर राजा आम हर्षविभोर हो उठे ।
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साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा
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प पू सिद्धांत दिवाकर सुविशाल गच्छाधिपति आचार्य देव भवोदधि तारक श्रीमद् विजय जयघोष सूरीश्वरजी महाराजा के ८५ वे जन्मोत्सव के प्रसंग पर सुश्रावक श्री उर्विलभाइ वखारिया का विवेचन ज़रूर से सुने
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प पू सिद्धांत दिवाकर सुविशाल गच्छाधिपति आचार्य देव भवोदधि तारक श्रीमद् विजय जयघोष सूरीश्वरजी महाराजा के ८५ वे जन्मोत्सव पर 11 वर्षीय श्री आरव केतन झवेरी मुंबई निवासी आज देवलोक जिनालय पालीताणा फ़ेस बुक पर रात्री 9:30 बजे लाइव आकर पूज्य श्री को भावाजंली अर्पण करने वाला है देखना न भुले ।
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श्री सूराचार्य
सूराचार्य की विद्वता गहन थी तथा उनकी काव्य-सृजन की कल्पनाशक्ति अनुपम थी । जब वे शिष्यों को स्वाध्याय करवाते ,तब अभ्यास के विषय में जरा भी कमी रहने नही देते । पढ़ाई के समय यदि शिष्यों को पाठ ठीक तरह से न आये , तो अपने चँवर ( ओघा ) की छड़ी से उन्हें फटकारते थे । बार-बार पीटने से लकड़े की छड़ी टूट जाती थी , अत: उन्होंने लोहे की छड़ी रखने के विषय में सोचा । जब उनके गुरु को यह ज्ञात हुआ , तब गुरु ने उन्हें रोका और उलाहना देते हुए कहा , " यदि ज्ञान का इतना अधिक गर्व हो तो राजा भोज की एक से बढ़कर एक विद्वानों की सभा में जाकर विजय प्राप्त करों । वहाँ जाकर जिनशासन की विजयपताका फहराओ तो जानें । वर्ना इस तरह लोह-दण्ड तो यमराज का हथियार कहलायेगा । भय का प्रतीक हैं । अभय के आराधक साधु के लिए यह शोभास्पद नही हैं । "
गुरु के इन वचनों ने सूराचार्य की कठोरता दूर कर दी । योगानुयोग ऐसा हुआ कि उन दिनों मालवा के भोज ने गुर्जरपति भीमदेव की सभा में विद्वता और संस्कारिता की कसौटी करनेवाली श्लोक स्वरुप एक मार्मिक समस्या भेजी थी । राजा ने गहन चिंतन किया । सोलंकी राजा भीमदेव ने राज्य के विद्वान पंडितों से मालवा की इस चुनौती की बात कही । राजमंत्री और अन्य पंडितों ने कहा कि कार्य तो मात्र सूराचार्य ही कर सकते है । राजा ने सादर सूराचार्य को राजसभा में निमंत्रित किया और उनसे राजा भोज के भेजे हुए श्लोक के उत्तर की बात कही ।
हाल ही उच्चरित गुरु-वचन सूराचार्य के कान में गूँज रहे थे । सूराचार्य ने आते ही राजा भोज की समस्या का हल बताते हुए काव्य-संदेश की सृष्टि की । उनकी विद्वता और सर्जन-शक्ति देखकर संपूर्ण सभा डोल उठी । राजा भोज की सभा में यह काव्य-संदेश कहा गया , तब समस्त सभा दंग रह गई । किसी को कल्पना भी न थी कि गुजरात में ऐसी अनुपम काव्य-शक्ति वाला कोई सर्जक साधु हो सकता हैं । तत्पश्चात् तो गुजरात और मालवा के बीच काव्य -रचनाओं का आदान-प्रदान होता रहा और दोनों प्रदेशों में काव्य-रस की वृष्टि होने लगी ।
चैत्य में धर्मनृत्य-नाटिका से श्रमित नर्तकी बारबार खंभे की ओट में जाकर अपने ताल से ही पसीना पोंछती थी । इस प्रसंग पर राजा भोज ने काव्य-रचना की थी । उसके प्रति उत्तर श्लोक रचनेवाले सूराचार्य की सर्ग-शक्ति पर राजा भोज प्रसन्न हुए । मालवा में पधारकर सूराचार्य ने अपनी प्रतिभा से राजा भोज की विद्वद्सभा को चकित कर दिया । इस प्रसंग में पंडितों ने एक छोटे बालक को तोते की तरह रटाकर शास्त्रार्थ के लिए प्रस्तुत किया । महाविद्वान सूराचार्य समझ गये कि यह बालक विद्वान नहीं है , परन्तु भोज के दरबार के पंडितों ने उनके साथ युक्ति की है । विद्वता के साधक श्री सूराचार्य यों ही हार मान लेते ? उन्होंने बालक को लाड़-प्यार किया । तुतली वाणी में उसके साथ बातचीत करने लगे। उस समय तोते की तरह रटनेवाले बालक की भूल सूराचार्य ने बताई , तब उस बालक ने साहजिकता से कहा , " मैं तो अपनी पाटी में लिखा हुआ बोल रहा हूँ । मुझे जो रटाया गया है वही बोल रहा हूँ । "
इस प्रकार पंडितों की पोल खुल गई । अन्त में भोज के दरबार के पंडित श्री सूराचार्य से वादविवाद करने लगे, परन्तु सूराचार्य ने सबका पराभव किया । इससे क्रोधित पंडितों ने सूराचार्य पर हमला करने की सोची , परन्तु महाकवि धनपाल की सहायता से सूराचार्य मालवा में से विहार करके गुजरात में आ पहुँचे । मालवा की सभा में सूराचार्य ने विद्वता का डंका बजाया था । आचार्यश्री सूराचार्य सोलंकी समय की राजधानी पाटण पहुँचे , तब पाटण के राजा भीमदेव और नगरजनों ने उनका भव्य सन्मान किया ।
उन्होंने भगवान ऋषभदेव और भगवान नेमिनाथ इन दोनों के चरित-काव्यग्रंथ की रचना की थी । विक्रम संवत् 1090 में उन्होंने पद्य-गद्य में नेमि चरित्र महाकाव्य की रचना की । शब्दशास्त्र, प्रमाणशास्त्र और साहित्यशास्त्र इस प्रकार तीनों शास्त्रों में श्री सूराचार्य की विद्वता समान रुप से प्रकट हुई ।
साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा
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श्री सूराचार्य
सूराचार्य की विद्वता गहन थी तथा उनकी काव्य-सृजन की कल्पनाशक्ति अनुपम थी । जब वे शिष्यों को स्वाध्याय करवाते ,तब अभ्यास के विषय में जरा भी कमी रहने नही देते । पढ़ाई के समय यदि शिष्यों को पाठ ठीक तरह से न आये , तो अपने चँवर ( ओघा ) की छड़ी से उन्हें फटकारते थे । बार-बार पीटने से लकड़े की छड़ी टूट जाती थी , अत: उन्होंने लोहे की छड़ी रखने के विषय में सोचा । जब उनके गुरु को यह ज्ञात हुआ , तब गुरु ने उन्हें रोका और उलाहना देते हुए कहा , " यदि ज्ञान का इतना अधिक गर्व हो तो राजा भोज की एक से बढ़कर एक विद्वानों की सभा में जाकर विजय प्राप्त करों । वहाँ जाकर जिनशासन की विजयपताका फहराओ तो जानें । वर्ना इस तरह लोह-दण्ड तो यमराज का हथियार कहलायेगा । भय का प्रतीक हैं । अभय के आराधक साधु के लिए यह शोभास्पद नही हैं । "
गुरु के इन वचनों ने सूराचार्य की कठोरता दूर कर दी । योगानुयोग ऐसा हुआ कि उन दिनों मालवा के भोज ने गुर्जरपति भीमदेव की सभा में विद्वता और संस्कारिता की कसौटी करनेवाली श्लोक स्वरुप एक मार्मिक समस्या भेजी थी । राजा ने गहन चिंतन किया । सोलंकी राजा भीमदेव ने राज्य के विद्वान पंडितों से मालवा की इस चुनौती की बात कही । राजमंत्री और अन्य पंडितों ने कहा कि कार्य तो मात्र सूराचार्य ही कर सकते है । राजा ने सादर सूराचार्य को राजसभा में निमंत्रित किया और उनसे राजा भोज के भेजे हुए श्लोक के उत्तर की बात कही ।
हाल ही उच्चरित गुरु-वचन सूराचार्य के कान में गूँज रहे थे । सूराचार्य ने आते ही राजा भोज की समस्या का हल बताते हुए काव्य-संदेश की सृष्टि की । उनकी विद्वता और सर्जन-शक्ति देखकर संपूर्ण सभा डोल उठी । राजा भोज की सभा में यह काव्य-संदेश कहा गया , तब समस्त सभा दंग रह गई । किसी को कल्पना भी न थी कि गुजरात में ऐसी अनुपम काव्य-शक्ति वाला कोई सर्जक साधु हो सकता हैं । तत्पश्चात् तो गुजरात और मालवा के बीच काव्य -रचनाओं का आदान-प्रदान होता रहा और दोनों प्रदेशों में काव्य-रस की वृष्टि होने लगी ।
चैत्य में धर्मनृत्य-नाटिका से श्रमित नर्तकी बारबार खंभे की ओट में जाकर अपने ताल से ही पसीना पोंछती थी । इस प्रसंग पर राजा भोज ने काव्य-रचना की थी । उसके प्रति उत्तर श्लोक रचनेवाले सूराचार्य की सर्ग-शक्ति पर राजा भोज प्रसन्न हुए । मालवा में पधारकर सूराचार्य ने अपनी प्रतिभा से राजा भोज की विद्वद्सभा को चकित कर दिया । इस प्रसंग में पंडितों ने एक छोटे बालक को तोते की तरह रटाकर शास्त्रार्थ के लिए प्रस्तुत किया । महाविद्वान सूराचार्य समझ गये कि यह बालक विद्वान नहीं है , परन्तु भोज के दरबार के पंडितों ने उनके साथ युक्ति की है । विद्वता के साधक श्री सूराचार्य यों ही हार मान लेते ? उन्होंने बालक को लाड़-प्यार किया । तुतली वाणी में उसके साथ बातचीत करने लगे। उस समय तोते की तरह रटनेवाले बालक की भूल सूराचार्य ने बताई , तब उस बालक ने साहजिकता से कहा , " मैं तो अपनी पाटी में लिखा हुआ बोल रहा हूँ । मुझे जो रटाया गया है वही बोल रहा हूँ । "
इस प्रकार पंडितों की पोल खुल गई । अन्त में भोज के दरबार के पंडित श्री सूराचार्य से वादविवाद करने लगे, परन्तु सूराचार्य ने सबका पराभव किया । इससे क्रोधित पंडितों ने सूराचार्य पर हमला करने की सोची , परन्तु महाकवि धनपाल की सहायता से सूराचार्य मालवा में से विहार करके गुजरात में आ पहुँचे । मालवा की सभा में सूराचार्य ने विद्वता का डंका बजाया था । आचार्यश्री सूराचार्य सोलंकी समय की राजधानी पाटण पहुँचे , तब पाटण के राजा भीमदेव और नगरजनों ने उनका भव्य सन्मान किया ।
उन्होंने भगवान ऋषभदेव और भगवान नेमिनाथ इन दोनों के चरित-काव्यग्रंथ की रचना की थी । विक्रम संवत् 1090 में उन्होंने पद्य-गद्य में नेमि चरित्र महाकाव्य की रचना की । शब्दशास्त्र, प्रमाणशास्त्र और साहित्यशास्त्र इस प्रकार तीनों शास्त्रों में श्री सूराचार्य की विद्वता समान रुप से प्रकट हुई ।
साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा
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|| सिंहपुरी तीर्थाधिपति श्री श्रेयांसनाथया नमः||
प्रभु विचरण करते हुए समेतशिखर पधारते है। वहाँ मासक्षमण का तप करके कार्योत्सर्ग मुद्रा में एक हज़ार के साथ अषाढ़ वद तीज के दिन पूर्वाह्नकाल कुंभ राशि और धनिष्ठा नक्षत्र में मोक्ष में गये। तब प्रभु का चारित्र पर्याय इक्कीस लाख वर्ष का और चौरासी लाख वर्ष का आयुष्य पूर्ण हुआ था। प्रभु का प्राय: शासन चौवन सागरोपम छियासठ लाख छब्बीस हज़ार वर्ष तक चला था। प्रभु के शासन में एक दिन के बाद मोक्ष मार्ग शुरु हुआ था वह संख्यात पुरुष पाटपरंपरा तक चला था। प्रभु के शासन में उत्तम पुरुष पहले त्रिपुष्ट वासुदेव , पहले अचल बलदेव , पहले नारद और पांचवें सुप्रतिष्ठ रुद्र हुए। प्रभु के भक्त राजा त्रिपुष्ट वासुदेव थे। प्रभु के माता पिता सनत देवलोक में गये थे।
।। थोय।।
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करी क्रमनो घात, पामिया मोक्ष शात ।
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देवलोक जिनालय पालिताणा प्रस्तुत जैन ज्ञान भंडार प्रश्नोत्तरी क्रमांक 4 मे क़रीब 7,100 लोगो ने हिस्सा लेकर अपना जवाब कमेंट बाक्स मे लिखा । क्या आपने लिखा ? यह पोस्ट क़रीब 1,20,000 लोगों तक पहुँची है,हम आप सभी का आभार मानते हुए आप की बहुत बहुत अनुमोदना करते है । पोस्ट की लिंक -
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जैन धर्म के साथ जुड़े ऐतिहासिक पात्रों की कथा श्रेणी ....
श्री अभयदेवसूरि
जैन आगमों में से नौ आगमों पर संस्कृत टीकाओं की रचना करके नवांगी वृतिकार के रुप में प्रसिद्ध श्री अभयदेवसूरि जी ने अनेक ग्रंथों की रचना की । उन्होंने
'ज्ञाता धर्मकथा ' , ' स्थानांग ' , ' समवायांग ' , 'भगवती' , ' उपाशकदशा' , 'अंतकृद् दशा ' , ' प्रश्नव्याकरण ' जैसे आगम के नौ अंगों पर टीका की रचना की । जैन आगमसाहित्य के गूढ़ार्थ को समझने के लिए श्री अभयदेवसूरि की टीकाएँ चाभी स्वरुप है । ये टीकाएँ संक्षिप्त एवं शब्दार्थप्रधान होने के साथ उनमें अनेक विषयों का निरुपण है । इस प्रकार जिनआगमों की शुद्ध परम्परा चिरकाल तक अखंड रहे , इसलिए ग्रंथरचनाकार आचार्यो में अभयदेवसूरिजी का नाम प्रथम पंक्ति में बिराजित है ।
आचार्यश्री अभयदेवसूरि का जन्म वैश्य परिवार में वीर निर्वाण संवत् 1542 ( विक्रम संवत् 1072 ) में हुआ । मालवदेश की विख्यात धारानगरी में महिधर सेठ और धनदेवी माता की कोख से जन्मे हुए इस बालक का नाम अभयकुमार रखा गया । धारानगरी में एक बार श्री जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि पधारे थे , तब उनका व्याख्यान सुनते ही अभयकुमार को वैराग्य का रंग लग गया । माता-पिता की आज्ञा लेकर उन्होंने श्री जिनेश्वरसूरि से दीक्षा ग्रहण की । छोटी उम्र में ही उन्होंने आगम साहित्य का अभ्यास शुरु किया और समय बीतने पर वे आचार्य पदवी से अलंकृत हुए ।
ऐसा कहा जाता है कि एक रात को आचार्य अभयदेवसूरि ध्यान में लीन थे , तब शासन देवी उनके समक्ष प्रकट हुई । शासनदेवी ने कहा कि ' आचारांग ' और ' सूत्रकृतांग ' आगमों की टीकाएँ सुरक्षित हैं , परन्तु अन्य टीकाएँ काल के प्रवाह में लुप्त हो गई है । इस क्षति को दूर करने के लिए आप श्रीसंघ के हितार्थ प्रयत्नशील बनिए ।
आचार्य अभयदेवसूरि ने यह महान कार्य स्वीकारा । निरंतर आयंबिल तप करके ग्रंथरचना का प्रारंभ किया । दीर्घकालिन परिश्रम के बाद उन्होंने अंग-आगम पर टीकाग्रंथ रचे । सतत आयंबिल तप करने तथा रात-रात भर जागते रहे होने से उन्हें कोई कोढ़ जैसा रोग उत्पन्न हुआ । इसके फलस्वरुप उनके विरोधियों ने ऐसी बात प्रसारित की कि शास्त्रों का गलत अर्थघटन करने के लिए यानी कि उत्सूत्र-प्ररुपणा के कारण शासनदेवी ने दंड के रुप में उन्हें यह रोगफल दिया है ।
आचार्य अभयदेवसूरि ने रात्रि के समय शासनरक्षक धरणेन्द्र का स्मरण किया और जागृत आचार्य ने प्रकट हुए धरणेन्द्र से कहा , " हे देवराज ! मुझे मृत्यु का लेशमात्र भय नहीं है , परन्तु मेरे रोग को कारणरुप बनाकर निंदक लोग द्वारा प्रसारित की जाती संघ की निंदा मुझसे सही नहीं जाती ।अतः मैंने अनशन करके देहत्याग करने का विचार किया है ।
शासनरक्षक धरणेन्द्र ने उनके निर्दोष होने का विश्वास दिलाकर आवश्यक मार्गदर्शन दिया । अभयदेवसूरि धरणेन्द्र के कथनानुसार श्रावकसंघ के साथ स्थंभन गाँव में सेढ़ी नदी के तट पर आये । यहाँ एक ग्वाले की गाय का दूध अपने आप ही एक ही स्थान पर बहता था । उस स्थान को आचार्यश्री ने खोज निकाला और ' जयतिहुअण ' नामक बत्तीस श्लोंको का स्तोत्र रचा । इस स्तोत्ररचना से श्री स्थंभन पार्श्र्वनाथ की नीलरत्नमय प्राचीन प्रतिमा धरती में से प्रकट हुई । श्रीसंघ ने विधिपूर्वक उसका स्नात्र किया और वह स्नात्रजल अभयदेवसूरिजी के अंग पर लगाते ही उनका रोग नष्ट हो गया । आचार्यश्री पुनः स्वस्थ्य हो गये । आज भी खंभात के जिनालय में श्री स्थंभन पार्श्वनाथ की वह प्रतिमा बिराजमान है ।
इसके पश्चात् आचार्यश्री ने नवांगी टीका की रचना का कार्य पूर्ण किया । गहन आगम ग्रंथों की सुगम व्याख्याएँ और सरल समझ उपलब्ध हुई । श्रीसंघ पर आचार्यश्री ने महान उपकार किया । ऐसी कथा है कि शासनदेव ने आचार्य अभयदेवसूरि को एक दिव्य आभूषण दिया था ।उसके प्राप्त मूल्य की रकम में से यह नवांगी टीका की प्रतिलिपियाँ लिखवाने का काम किया । टीका साहित्य की ये प्रतिलिपियाँ समकालीन मुख्य मुख्य आचार्यो को पहुँचाई गई । गुजरात के कपड़वंज गाँव में आचार्य कालधर्म को प्राप्त हुए । आज भी कपड़वंज के तपागच्छ उपाश्रय में नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि की समाधि मौजूद हैं ।
साभार:जिनशासन की कीर्तिगाथा
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जैन आगमों में से नौ आगमों पर संस्कृत टीकाओं की रचना करके नवांगी वृतिकार के रुप में प्रसिद्ध श्री अभयदेवसूरि जी ने अनेक ग्रंथों की रचना की । उन्होंने
'ज्ञाता धर्मकथा ' , ' स्थानांग ' , ' समवायांग ' , 'भगवती' , ' उपाशकदशा' , 'अंतकृद् दशा ' , ' प्रश्नव्याकरण ' जैसे आगम के नौ अंगों पर टीका की रचना की । जैन आगमसाहित्य के गूढ़ार्थ को समझने के लिए श्री अभयदेवसूरि की टीकाएँ चाभी स्वरुप है । ये टीकाएँ संक्षिप्त एवं शब्दार्थप्रधान होने के साथ उनमें अनेक विषयों का निरुपण है । इस प्रकार जिनआगमों की शुद्ध परम्परा चिरकाल तक अखंड रहे , इसलिए ग्रंथरचनाकार आचार्यो में अभयदेवसूरिजी का नाम प्रथम पंक्ति में बिराजित है ।
आचार्यश्री अभयदेवसूरि का जन्म वैश्य परिवार में वीर निर्वाण संवत् 1542 ( विक्रम संवत् 1072 ) में हुआ । मालवदेश की विख्यात धारानगरी में महिधर सेठ और धनदेवी माता की कोख से जन्मे हुए इस बालक का नाम अभयकुमार रखा गया । धारानगरी में एक बार श्री जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि पधारे थे , तब उनका व्याख्यान सुनते ही अभयकुमार को वैराग्य का रंग लग गया । माता-पिता की आज्ञा लेकर उन्होंने श्री जिनेश्वरसूरि से दीक्षा ग्रहण की । छोटी उम्र में ही उन्होंने आगम साहित्य का अभ्यास शुरु किया और समय बीतने पर वे आचार्य पदवी से अलंकृत हुए ।
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आचार्य अभयदेवसूरि ने यह महान कार्य स्वीकारा । निरंतर आयंबिल तप करके ग्रंथरचना का प्रारंभ किया । दीर्घकालिन परिश्रम के बाद उन्होंने अंग-आगम पर टीकाग्रंथ रचे । सतत आयंबिल तप करने तथा रात-रात भर जागते रहे होने से उन्हें कोई कोढ़ जैसा रोग उत्पन्न हुआ । इसके फलस्वरुप उनके विरोधियों ने ऐसी बात प्रसारित की कि शास्त्रों का गलत अर्थघटन करने के लिए यानी कि उत्सूत्र-प्ररुपणा के कारण शासनदेवी ने दंड के रुप में उन्हें यह रोगफल दिया है ।
आचार्य अभयदेवसूरि ने रात्रि के समय शासनरक्षक धरणेन्द्र का स्मरण किया और जागृत आचार्य ने प्रकट हुए धरणेन्द्र से कहा , " हे देवराज ! मुझे मृत्यु का लेशमात्र भय नहीं है , परन्तु मेरे रोग को कारणरुप बनाकर निंदक लोग द्वारा प्रसारित की जाती संघ की निंदा मुझसे सही नहीं जाती ।अतः मैंने अनशन करके देहत्याग करने का विचार किया है ।
शासनरक्षक धरणेन्द्र ने उनके निर्दोष होने का विश्वास दिलाकर आवश्यक मार्गदर्शन दिया । अभयदेवसूरि धरणेन्द्र के कथनानुसार श्रावकसंघ के साथ स्थंभन गाँव में सेढ़ी नदी के तट पर आये । यहाँ एक ग्वाले की गाय का दूध अपने आप ही एक ही स्थान पर बहता था । उस स्थान को आचार्यश्री ने खोज निकाला और ' जयतिहुअण ' नामक बत्तीस श्लोंको का स्तोत्र रचा । इस स्तोत्ररचना से श्री स्थंभन पार्श्र्वनाथ की नीलरत्नमय प्राचीन प्रतिमा धरती में से प्रकट हुई । श्रीसंघ ने विधिपूर्वक उसका स्नात्र किया और वह स्नात्रजल अभयदेवसूरिजी के अंग पर लगाते ही उनका रोग नष्ट हो गया । आचार्यश्री पुनः स्वस्थ्य हो गये । आज भी खंभात के जिनालय में श्री स्थंभन पार्श्वनाथ की वह प्रतिमा बिराजमान है ।
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जैन धर्म के साथ जुड़े ऐतिहासिक पात्रों की कथा श्रेणी ....
श्री हेमचंद्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य ने कविता और व्याकरण, इतिहास और पुराण , योग और अध्यात्म , कोश और अंलकार , त्याग और तपश्चर्या , संयम और सदाचार , राजकल्याण और लोक कल्याण इत्यादि अनेकविध क्षेत्रों में सात दशक के दीर्घकाल तक अभूतपूर्व कार्य किया । साधुता और साहित्य के क्षेत्र में पिछले करीब हजार वर्ष तक उनके समकक्ष का महान व्यक्तित्व दृष्टिगत नहीं होता ।
धंधुका नगर में मोढ़ वणिक जाति के चाचिंग और पाहिणी के पुत्र के लक्षण पालने में से ही प्रकट हुए । शास्त्रों के ज्ञाता , सामुद्रिक लक्षणविद्या के जानकार और अनेक ग्रंथों के रचयिता आचार्यश्री देवेन्द्रसूरि उस समय धंधुका में बिराजमान थे । पाँच वर्ष के बालक चांग को लेकर माता पाहिणी श्री देवचंद्रसूरिजी को प्रणाम करने आई , तब श्री देवचंद्रसूरिजी दर्शनार्थ जिनालय की ओर गये थे । चांग स्वयं गुरु महाराज के पाट पर बैठ गया । दर्शन करके वापस आये श्री देवचंद्रसूरिजी ने यह दृश्य देखा । बालक की मुखाकृति तथा साहजिक अभिरुचि देखकर उन्होंने पाहिणी से कहा , " तेरा पुत्र भविष्य में महान साधु बनकर अनेक लोगों का कल्याण करेगा । "
श्री देवचंद्रसूरि संघ के अग्रणियों को लेकर पाहिणी के घर पधारें । पाहिणी ने अपना महाभाग्य समझकर आनंदपूर्वक चांग को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया । उन्हें मुनि सोमचंद्र नाम दिया गया । मुनि सोमचंद्र को किस प्रकार आचार्य हेमचंद्र नाम दिया गया इस विषय में एक दंतकथा प्रचलित है । पाटण के श्रीमंत श्रेष्ठी धनद सेठ ने मुनि को अपने यहाँ गोचरी के लिए पधारने की प्रार्थना की । मुनि सोमचंद्र वृद्ध मुनि वीरचंद्र सहित धनद सेठ के वहाँ गये , तब धनद सेठ की दरिद्रता देखकर सोमचंद्र को मुनि वीरचंद्र ने कहा कि इनके पास बहुत सुवर्ण मुद्राएँ है , परन्तु वे कोयले की तरह काली होने से उनको इसकी खबर नहीं हैं । इसीका नाम है कर्म की प्रबलता ।
धनद सेठ के कानों तक यह बात पहुँची , उन्होंने सोमचंद्र मुनि को उस ढेर पर बिठा दिया । कोयले जैसी काली सुवर्ण मुद्राएँ अचानक सोने की तरह जगमगाने लगी । तब धनद सेठ ने मुनि का आचार्य के रुप में 'हेमचंद्र ' नाम देने के लिए उनके गुरुदेव से कहा । हेमचंद्राचार्य की कीर्ति-कथाएँ गुजरात के राजा सिद्धराज तक पहुँची । एक बार सिद्धराज हाथी पर सवार होकर पाटण के बड़े बाजार से गुजर रहे थे , तब उनकी प्रार्थना के कारण हेमचंद्राचार्य ने एक श्लोक कहा। यह श्लोक सुनकर सिद्धराज प्रभावित हुए । मालवा-विजय के पश्चात् सिद्धराज समक्ष विद्वानों ने भोज के संस्कृत व्याकरण की प्रशंसा की । शत्रु राजा की प्रशंसा सिद्धराज को अच्छी नही लगी , किन्तु जाँच करने पर उसे पता चला कि उसके राज्य में सर्वत्र अभ्यासी भोज के व्याकरण का अध्ययन करते हैं । भोज के व्याकरण से बढ़कर व्याकरण लिखने की सिद्धराज की चुनौती उनके राज्य में एक भी पंडित या विद्वान स्वीकार नहीं पाये , परिणामतः सिद्धराज ने हेमचंद्राचार्य को बिनती की । उन्होंने लगभग एक वर्ष में सवा लाख श्लोक सहित प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के व्याकरण को भी समाविष्ट करते हुए ' सिद्धहेमचंद्रशब्दानुशासन ' नामक व्याकरण तैयार किया । हाथी पर अंबारी ( हौदा ) में उसकी एक प्रत रखकर भारी धूमधामपूर्वक पाटण में शोभायात्रा निकाली गई । गुजरात में पहली बार सरस्वती का इतना विराट सम्मान हुआ । ' सिद्धहेम ' के संक्षिप्त नाम से परिचित यह व्याकरण राजदरबार में पढ़ा गया और भारत उपरांत नेपाल ,श्रीलंका और ईरान जैसे सुदूर के देशों में उसे भेजा गया । तत्पश्चात् आज तक की लगभग आठ सौ वर्ष की अवधि में किसी भी विद्वान ने इस प्रकार के व्याकरण की रचना नहीं की । कुमारपाल गादीपति होगें ऐसी भविष्यवाणी हेमचंद्राचार्य ने की थी , परन्तु कुमारपाल के प्रति वैरभाव के कारण सिद्धराज ने उन्हें मरवा देने के अनेक प्रयत्न किये । एक बार खंभात में गुप्त वेश में कुमारपाल हेमचंद्राचार्य से मिलने गये थे । सिपाहियों के आने पर कुमारपाल को छुपा दिया गया था । गुरु की भावनानुसार हेमचंद्राचार्य ने अनेक ग्रंथों की रचना की । सम्राट कुमारपाल के समय में अमारि घोषणा करके अहिंसा का प्रवर्तन किया । 84 वर्ष की सुदीर्घ जीवन यात्रा के पश्चात् विक्रम संवत् 1229 में पाटण में हेमचंद्राचार्य का कालधर्म ( स्वर्गारोहण ) हुआ ।
साभार:जिनशासन की कीर्तिगाथा
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श्री हेमचंद्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य ने कविता और व्याकरण, इतिहास और पुराण , योग और अध्यात्म , कोश और अंलकार , त्याग और तपश्चर्या , संयम और सदाचार , राजकल्याण और लोक कल्याण इत्यादि अनेकविध क्षेत्रों में सात दशक के दीर्घकाल तक अभूतपूर्व कार्य किया । साधुता और साहित्य के क्षेत्र में पिछले करीब हजार वर्ष तक उनके समकक्ष का महान व्यक्तित्व दृष्टिगत नहीं होता ।
धंधुका नगर में मोढ़ वणिक जाति के चाचिंग और पाहिणी के पुत्र के लक्षण पालने में से ही प्रकट हुए । शास्त्रों के ज्ञाता , सामुद्रिक लक्षणविद्या के जानकार और अनेक ग्रंथों के रचयिता आचार्यश्री देवेन्द्रसूरि उस समय धंधुका में बिराजमान थे । पाँच वर्ष के बालक चांग को लेकर माता पाहिणी श्री देवचंद्रसूरिजी को प्रणाम करने आई , तब श्री देवचंद्रसूरिजी दर्शनार्थ जिनालय की ओर गये थे । चांग स्वयं गुरु महाराज के पाट पर बैठ गया । दर्शन करके वापस आये श्री देवचंद्रसूरिजी ने यह दृश्य देखा । बालक की मुखाकृति तथा साहजिक अभिरुचि देखकर उन्होंने पाहिणी से कहा , " तेरा पुत्र भविष्य में महान साधु बनकर अनेक लोगों का कल्याण करेगा । "
श्री देवचंद्रसूरि संघ के अग्रणियों को लेकर पाहिणी के घर पधारें । पाहिणी ने अपना महाभाग्य समझकर आनंदपूर्वक चांग को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया । उन्हें मुनि सोमचंद्र नाम दिया गया । मुनि सोमचंद्र को किस प्रकार आचार्य हेमचंद्र नाम दिया गया इस विषय में एक दंतकथा प्रचलित है । पाटण के श्रीमंत श्रेष्ठी धनद सेठ ने मुनि को अपने यहाँ गोचरी के लिए पधारने की प्रार्थना की । मुनि सोमचंद्र वृद्ध मुनि वीरचंद्र सहित धनद सेठ के वहाँ गये , तब धनद सेठ की दरिद्रता देखकर सोमचंद्र को मुनि वीरचंद्र ने कहा कि इनके पास बहुत सुवर्ण मुद्राएँ है , परन्तु वे कोयले की तरह काली होने से उनको इसकी खबर नहीं हैं । इसीका नाम है कर्म की प्रबलता ।
धनद सेठ के कानों तक यह बात पहुँची , उन्होंने सोमचंद्र मुनि को उस ढेर पर बिठा दिया । कोयले जैसी काली सुवर्ण मुद्राएँ अचानक सोने की तरह जगमगाने लगी । तब धनद सेठ ने मुनि का आचार्य के रुप में 'हेमचंद्र ' नाम देने के लिए उनके गुरुदेव से कहा । हेमचंद्राचार्य की कीर्ति-कथाएँ गुजरात के राजा सिद्धराज तक पहुँची । एक बार सिद्धराज हाथी पर सवार होकर पाटण के बड़े बाजार से गुजर रहे थे , तब उनकी प्रार्थना के कारण हेमचंद्राचार्य ने एक श्लोक कहा। यह श्लोक सुनकर सिद्धराज प्रभावित हुए । मालवा-विजय के पश्चात् सिद्धराज समक्ष विद्वानों ने भोज के संस्कृत व्याकरण की प्रशंसा की । शत्रु राजा की प्रशंसा सिद्धराज को अच्छी नही लगी , किन्तु जाँच करने पर उसे पता चला कि उसके राज्य में सर्वत्र अभ्यासी भोज के व्याकरण का अध्ययन करते हैं । भोज के व्याकरण से बढ़कर व्याकरण लिखने की सिद्धराज की चुनौती उनके राज्य में एक भी पंडित या विद्वान स्वीकार नहीं पाये , परिणामतः सिद्धराज ने हेमचंद्राचार्य को बिनती की । उन्होंने लगभग एक वर्ष में सवा लाख श्लोक सहित प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के व्याकरण को भी समाविष्ट करते हुए ' सिद्धहेमचंद्रशब्दानुशासन ' नामक व्याकरण तैयार किया । हाथी पर अंबारी ( हौदा ) में उसकी एक प्रत रखकर भारी धूमधामपूर्वक पाटण में शोभायात्रा निकाली गई । गुजरात में पहली बार सरस्वती का इतना विराट सम्मान हुआ । ' सिद्धहेम ' के संक्षिप्त नाम से परिचित यह व्याकरण राजदरबार में पढ़ा गया और भारत उपरांत नेपाल ,श्रीलंका और ईरान जैसे सुदूर के देशों में उसे भेजा गया । तत्पश्चात् आज तक की लगभग आठ सौ वर्ष की अवधि में किसी भी विद्वान ने इस प्रकार के व्याकरण की रचना नहीं की । कुमारपाल गादीपति होगें ऐसी भविष्यवाणी हेमचंद्राचार्य ने की थी , परन्तु कुमारपाल के प्रति वैरभाव के कारण सिद्धराज ने उन्हें मरवा देने के अनेक प्रयत्न किये । एक बार खंभात में गुप्त वेश में कुमारपाल हेमचंद्राचार्य से मिलने गये थे । सिपाहियों के आने पर कुमारपाल को छुपा दिया गया था । गुरु की भावनानुसार हेमचंद्राचार्य ने अनेक ग्रंथों की रचना की । सम्राट कुमारपाल के समय में अमारि घोषणा करके अहिंसा का प्रवर्तन किया । 84 वर्ष की सुदीर्घ जीवन यात्रा के पश्चात् विक्रम संवत् 1229 में पाटण में हेमचंद्राचार्य का कालधर्म ( स्वर्गारोहण ) हुआ ।
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