गिरनार मंडन २२वे तीर्थंकर बाल ब्रम्हचारी श्री नेमिनाथ दादा का कैवल्यज्ञान कल्याणक पर विशेष स्तवन .!!!
#jaineminath #jaishivadevinand
#jaigirnaar ..!! #जय श्री समुद्रविजय के लाल.!!
#चालों रे चालों रे नेमिनाथ की नगरीया
#ऊँची रे ऊँची रे गिरनार की डूंगरिया ..!!
सुप्रसिद्ध गायक - श्री अंकितजी लोढ़ा
https://www.facebook.com/191232074374475/posts/1869217179909281/
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देवलोक जिनालय पालीताणा प्रसतुत
परमात्मा श्री नेमीनाथ के केवलज्ञान के उपलक्ष्य मे रायपुर के सुप्रसिद्ध गीतकार श्री अंकितजी लोढ़ा के मधुर सुरों से सजा बहुत ही सुदंर नया गीत का विडियो प्रथम बार सोश्यल मीडिया पर देवलोक ज़िनालय पालीताणा फ़ेसबुक पेज के माध्यम से आप सभी तक पहुँचाया जाएगा- आप सभी कल दिनांक 17-09-2020 गुरूवार को सुबह 9:00 बजे पेज पर ओनलाइन रहे ।
आप सभी इस विशिष्ट प्रसंग में जुड़ कर भक्ति का अमूल्य लाभ ले.
एनाउन्समेंट विडियो लिंक
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परमात्मा श्री नेमीनाथ के केवलज्ञान के उपलक्ष्य मे रायपुर के सुप्रसिद्ध गीतकार श्री अंकितजी लोढ़ा के मधुर सुरों से सजा बहुत ही सुदंर नया गीत का विडियो प्रथम बार सोश्यल मीडिया पर देवलोक ज़िनालय पालीताणा फ़ेसबुक पेज के माध्यम से आप सभी तक पहुँचाया जाएगा- आप सभी कल दिनांक 17-09-2020 गुरूवार को सुबह 9:00 बजे पेज पर ओनलाइन रहे ।
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⚜️⚜️⚜️ विविध तपमाला तप क्रमांक-41 ⚜️⚜️⚜️
💦 उनोदरीका तप 💦
✩。:*•.──── ❁🔷🔸 ❁ ────.•*:。
बाह्य तप का एक प्रकार उनोदरी तप है । उदर को कुछ खाली रखना उनोदर हैं । यह तप भोजन की इच्छा पर विजय का तप हैं । यह उनोदरी तप पांच प्रकार का है -
अप्पाहारा, अवड्ढा , दुभाग , पत्ता , तहैव देसूणा ।
अट्ठ दुवालस सोलस , चउवीस तहिक्कतीसा य ।।
अल्पाहार , अपार्धा , द्विभागा , प्राप्ता और देशोना यह उनोदरीका है । नौ से बारह कवल तक भोजन करना अपार्धा उनोदरीका है । तेरह से सोलह कवल तक भोजन द्विभागा उनोदरीका हैं । सतरह से चौवीस कवल तक भोजन करना प्राप्ता उनोदरीका है । पच्चीस से इकतीस कवल तक भोजन करना देशोना उनोदरीका है । पुरुष का आहार बत्तीस कवल का है । उस अपेक्षा से यह कहा हैं ।
स्त्री का आहार अट्ठाइस कवल प्रमाण है अतः उनमें उनोदरिका के पांच प्रकार इस प्रकार सात कवल तक अल्पाहार , ग्यारह कवल तक अपार्धा , चौदह कवल तक द्विभागा , इक्कीस कवल तक प्राप्ता और सत्तावीस कवल तक देशोना उनोदरीका ।
पुरुष के उक्त पांचों प्रकार की उनोदरीका जघन्य , मध्यम और उत्कृष्ट भेद से पंद्रह प्रकार की हैं - एक कवल ही लेने से अल्पाहार जघन्या । दो से पांच कवल तक मध्यमाल्पाहार और छः से आठ कवल तक उत्कृष्टाल्पाहारा है । नव कवल तक जघन्यापार्धा , दस ग्यारह कवल तक मध्यमापार्धा और बारहवें ग्रास तक उत्कृष्टापार्धा । तेरह कवल तक जघन्य द्विभागा । चौदह या पंद्रह ग्रास तक मध्यम द्विभागा । सोलह कवल तक उत्कृष्ठ द्विभागा । सतरह और अट्ठारह कवल तक जघन्य प्राप्ता है । उन्नीस से बाइस कवल तक मध्यम प्राप्ता है और चौवीस कवल तक उत्कृष्ट प्राप्ता उनोदरीका है । देशोना जघन्या छब्बीस कवल तक है । ओगनतीस कवल तक मध्यमा देशोना और तीस अथवा इक्कतीस कवल तक उत्कृष्टा देशोना उनोदरीका है । यह उनोदरिका इस प्रकार पंद्रह दिन में होती हैं ।
स्त्री का आहार अट्ठाईस कवल माना है । अतः पांचों उनोदरिका के जघन्य मध्यमोत्कृष्ट भेद इस प्रकार है -
अल्पाहार : एक या दो कवल तक जघन्य । पांच कवल तक मध्यमा और सात कवल तक उत्कृष्टाल्पाहार ।
अपार्धा : आठ कवल तक जघन्या । नव कवल तक मध्यमा और ग्यारह कवल तक उत्कृष्टाल्पार्धा ।
द्विभागा : बारह कवल तक जघन्या । तेरह कवल तक मध्यमा और चौदह कवल तक उत्कृष्टा द्विभागा है ।
प्राप्ता : 16 कवल तक जघन्या । उन्नीस कवल तक मध्यमा और इक्कीस कवल तक उत्कृष्ट प्राप्ता है ।
देशोना : तेइस कवल तक जघन्या । पच्चीस कवल तक मध्यमा और सत्ताईस कवल तक उत्कृष्टा देशोना है ।
इस प्रकार पुरुष और स्त्री की अपेक्षा उनोदरिका के भेद और प्रभेद हैं । यह द्रव्य उनोदरिका है । भावा उनोदरिका के लिए श्री जिन प्रवचन में फरमाया हैं -
कोहाइ अणुदिणं चाओ, जिणवयणभावणाओ अ ।
भावोणोदरिया विहु पन्नता वीयराएहिं ।। 1 ।।
निरंतर क्रोधादिकषायों का त्याग करना और श्री जिन भगवान के प्रवचन पर निष्ठा और श्रद्धा रखना यह भावउनोदरिका तप श्री वीतराग भगवान प्रज्ञप्त है ।
लोक में उनोदरिका इस प्रकार करते है - प्रथम दिन आठ कवल , दूसरे दिन बारह कवल , तीसरे दिन सोलह कवल , चौथे दिन चौविस कवल और पांचवे दिन इकतीस कवल प्रमाण भोजन लेना । स्त्रियों की अपेक्षा -प्रथम दिन सात , दूसरे दिन ग्यारह , तीसरे दिन चौदह , चौथे दिन इक्कीस और पांचवे दिन सत्ताईस कवल आहार लेना । यह पांच दिन में उनोदरिका करने की विधि हैं । साथिया , खमासमणा, प्रदक्षिणा और लोगस्स का काउसग्ग 12-12 करना , माला -20 उनोदरिका तपसे नमः की गिनना ।
सौजन्य : श्री तप विधि संचय पुस्तक से
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अगली पोस्ट क्रमांक- 42
तप - संलेखना तप
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अट्ठ दुवालस सोलस , चउवीस तहिक्कतीसा य ।।
अल्पाहार , अपार्धा , द्विभागा , प्राप्ता और देशोना यह उनोदरीका है । नौ से बारह कवल तक भोजन करना अपार्धा उनोदरीका है । तेरह से सोलह कवल तक भोजन द्विभागा उनोदरीका हैं । सतरह से चौवीस कवल तक भोजन करना प्राप्ता उनोदरीका है । पच्चीस से इकतीस कवल तक भोजन करना देशोना उनोदरीका है । पुरुष का आहार बत्तीस कवल का है । उस अपेक्षा से यह कहा हैं ।
स्त्री का आहार अट्ठाइस कवल प्रमाण है अतः उनमें उनोदरिका के पांच प्रकार इस प्रकार सात कवल तक अल्पाहार , ग्यारह कवल तक अपार्धा , चौदह कवल तक द्विभागा , इक्कीस कवल तक प्राप्ता और सत्तावीस कवल तक देशोना उनोदरीका ।
पुरुष के उक्त पांचों प्रकार की उनोदरीका जघन्य , मध्यम और उत्कृष्ट भेद से पंद्रह प्रकार की हैं - एक कवल ही लेने से अल्पाहार जघन्या । दो से पांच कवल तक मध्यमाल्पाहार और छः से आठ कवल तक उत्कृष्टाल्पाहारा है । नव कवल तक जघन्यापार्धा , दस ग्यारह कवल तक मध्यमापार्धा और बारहवें ग्रास तक उत्कृष्टापार्धा । तेरह कवल तक जघन्य द्विभागा । चौदह या पंद्रह ग्रास तक मध्यम द्विभागा । सोलह कवल तक उत्कृष्ठ द्विभागा । सतरह और अट्ठारह कवल तक जघन्य प्राप्ता है । उन्नीस से बाइस कवल तक मध्यम प्राप्ता है और चौवीस कवल तक उत्कृष्ट प्राप्ता उनोदरीका है । देशोना जघन्या छब्बीस कवल तक है । ओगनतीस कवल तक मध्यमा देशोना और तीस अथवा इक्कतीस कवल तक उत्कृष्टा देशोना उनोदरीका है । यह उनोदरिका इस प्रकार पंद्रह दिन में होती हैं ।
स्त्री का आहार अट्ठाईस कवल माना है । अतः पांचों उनोदरिका के जघन्य मध्यमोत्कृष्ट भेद इस प्रकार है -
अल्पाहार : एक या दो कवल तक जघन्य । पांच कवल तक मध्यमा और सात कवल तक उत्कृष्टाल्पाहार ।
अपार्धा : आठ कवल तक जघन्या । नव कवल तक मध्यमा और ग्यारह कवल तक उत्कृष्टाल्पार्धा ।
द्विभागा : बारह कवल तक जघन्या । तेरह कवल तक मध्यमा और चौदह कवल तक उत्कृष्टा द्विभागा है ।
प्राप्ता : 16 कवल तक जघन्या । उन्नीस कवल तक मध्यमा और इक्कीस कवल तक उत्कृष्ट प्राप्ता है ।
देशोना : तेइस कवल तक जघन्या । पच्चीस कवल तक मध्यमा और सत्ताईस कवल तक उत्कृष्टा देशोना है ।
इस प्रकार पुरुष और स्त्री की अपेक्षा उनोदरिका के भेद और प्रभेद हैं । यह द्रव्य उनोदरिका है । भावा उनोदरिका के लिए श्री जिन प्रवचन में फरमाया हैं -
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लोक में उनोदरिका इस प्रकार करते है - प्रथम दिन आठ कवल , दूसरे दिन बारह कवल , तीसरे दिन सोलह कवल , चौथे दिन चौविस कवल और पांचवे दिन इकतीस कवल प्रमाण भोजन लेना । स्त्रियों की अपेक्षा -प्रथम दिन सात , दूसरे दिन ग्यारह , तीसरे दिन चौदह , चौथे दिन इक्कीस और पांचवे दिन सत्ताईस कवल आहार लेना । यह पांच दिन में उनोदरिका करने की विधि हैं । साथिया , खमासमणा, प्रदक्षिणा और लोगस्स का काउसग्ग 12-12 करना , माला -20 उनोदरिका तपसे नमः की गिनना ।
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जैन धर्म के साथ जुड़े ऐतिहासिक पात्रों की कथा श्रेणी ....
कोशा
पाटलीपुत्र नगर की राजनर्तकी कोशा अनुपम रुप , आकर्षक लावण्य और कलाचातुर्य में निपुण थी । इस कोशा गणिका के यहाँ महामात्य शकटाल का ज्येष्ठ पुत्र स्थूलभद्र रहता था । राजनर्तकी कोशा का स्थूलभद्र पर अत्यधिक प्रेम था , परंतु राज्य के षड्यंत्र में पिता की मृत्यु होने पर स्थूलभद्र ने महामात्य का पद तो ठुकरा दिया , पर इससे भी विशेष उसने संसार -व्यवहार से विरक्त होकर आचार्य संभूततविजयजी से दीक्षा ली । दीक्षा के पश्चात् आचार्यश्री ने मुनि स्थूलभद्र सहित चार मुनिराजों को संयम की अग्निपरीक्षा हो ऐसे कठिन स्थलों पर चातुर्मास करने को कहा । सिंह की गुफा में , विषधर सर्प का बिल या बाँबी में और पनिहारियों से घिरे रहते कुँए के किनारे ध्यानमग्न रहकर चातुर्मास करने की तीन मुनिराजों ने अनुमति माँगी । जबकि आर्य स्थूलभद्र मुनि ने कोशा नर्तकी के भवन में कामोत्तेजक आकर्षक चित्रों से सुशोभित चित्रशाला में षड् रस भोजन का आहार करके चार महीनों तक समस्त विकारों से दूर रहकर साधना करने की आचार्य संभूतविजयजी से आज्ञा माँगी ।
आचार्यश्री महाराज ने इसकी अनुमति दी । राजनर्तकी कोशा के वैभवी आवास में चातुर्मास के लिए स्थूलभद्र के आने से कोशा के हृदय में आनंद का ज्वार उमड़ने लगा । स्वयं को त्याग चुके हुए प्राणप्यारे प्रियतम मानो पुनः लौटे न हो ! कोशा ने कला एवं रुप की अभिव्यक्ति में तनिक भी कमी नहीं रखी , किन्तु मुनि स्थूलभद्र की आत्मकला की स्थिर द्युति देखकर कोशा को अपनी कामवासना बालचेष्टाओं के समान प्रतीत होने पर वह क्षमा-याचना करने लगी । मुनि स्थूलभद्र ने उसे आंतरवैभव की भव्यता तथा दिव्यता का प्रतिबोध दिया और कोशा व्रतधारी श्राविका बन गई । चातुर्मास पूरा करके लौट आये हुए मुनि स्थूलभद्र को अत्यधिक मुश्किल कार्य सम्पन्न करने के लिए आचार्य संभूतविजयजी ने " दुष्कर , दुष्कर , दुष्कर " यों तीन बार कहकर धन्यवाद दिया ।
आचार्यश्री ने मुनि स्थूलभद्र को तीन बार " दुष्कर, दुष्कर , दुष्कर " कहा और अन्य तीन शिष्य की जिन्होंने सिंह , दृष्टिविष सर्प या कुएँ के किनारे उपवासपूर्वक चातुर्मास किया था , उन्हें मात्र एक ही बार
" दुष्कर " कहा । अतः शिष्यों ने अपने गुरु आचार्य संभूतविजयजी से कहा , " मुनि स्थूलभद्र का कार्य दुष्कर-दुष्कर ( महाकठिन ) नहीं , अपिंतु अत्यन्त सहज एवं सुगम है । " इस प्रकार कहकर एक मुनि गुरुआज्ञा की उपेक्षा करके कोशा नर्तकी के यहाँ पहुँचा । कोशा के षड् रस भोजन करवाने एवं आकर्षक वेशभूषा धारण करते ही मुनि मोहित हो गया । कोशा ने उन्हें नेपाल में से अमूल्य रत्नकंबल लाने को कहा । मुनि अनथक परिश्रम तथा तप त्याग का भंग करके नेपाल के नरेश के पास से एक रत्नकंबल माँगकर लाया और कोशा को दिया , तब कोशा ने अपने पैर -पौंछकर कादो-कीचड़वाले गंदे पानी में वह रत्नकंबल फेंक दिया और कहा , " हे मुनि ! तुम्हें इस रत्नकंबल की चिंता हो रही हैं , परंतु उस बात का तनिक भी क्षोभ नहीं होता कि तुमने अत्यंत मूल्यवान ऐसे चारित्र्यरत्न को मलिन कादो-कीचड़ में फेंक दिया । "
कोशा के इस प्रतिबोध से मुनि का कामसंमोह दूर हुआ । वे आचार्यश्री के पास लौट आये और मुनि स्थूलभद्र के कामविजय की प्रशंसा करने लगे ।
चतुर्थ व्रत का नियम धारण करनेवाली राजनर्तकी कोशा के पास राजा किसी पुरुष को आनंदप्रमोद के लिए भेजते तो कोशा उसे आर्य स्थूलभद्र के गुणों की गरिमा सुनाती थी । कोशा को रिझाने या खुश करने आये पाटलीपुत्र के रथकार के पास हस्तलाघव की ऐसी कला थी कि उसने एक के बाद एक बाण चलाकर सरसंधान की श्रेणी रच दी और फिर उन्हें खींचते ही गुच्छें के साथ आम उसके पास आ गये । अत्यंत कठिन कार्य सम्पन्न किया हो ऐसा रथकार को अहंकार हुआ , तब कोशा ने सरसों का ढेंर करके उसमें सुई खोंस कर उस पर कमल के फूल को तरतीब से रखा । फिर उस पर चढ़कर कोशा नृत्य करने लगी । रथकार उसका ऐसा अप्रतिम कौशल देखकर स्तब्ध हो गया । परंतु कोशा ने कहा , " आम के गुच्छ को तोड़ना या सरसों के ढेर पर नाचना दुष्कर नहीं हैं । सही दुष्कर कार्य करने वाले तो मुनि स्थूलभद्र है , जो प्रमदा ( षोड़शी युवती ) के वन में होते हुए भी प्रमादी नहीं हुए । " रथकार का उन्माद और घमंड दोनों पिघल गये और कोशा के उपदेश के फलस्वरुप उसे वैराग्य हो गया ।
अपने संस्कारों से जीवन को धन्य बनानेवाली कोशा और राग के बीच विरागी जीवन जीनेवाले स्थूलभद्र सम्बन्धी जैन साहित्य में कई कथाएँ , रास , फागु , सज्झाय , उपन्यास आदि की रचना हुई है ।
साभार : जिनशासन की कीर्तिगाथा
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देव
कोशा
पाटलीपुत्र नगर की राजनर्तकी कोशा अनुपम रुप , आकर्षक लावण्य और कलाचातुर्य में निपुण थी । इस कोशा गणिका के यहाँ महामात्य शकटाल का ज्येष्ठ पुत्र स्थूलभद्र रहता था । राजनर्तकी कोशा का स्थूलभद्र पर अत्यधिक प्रेम था , परंतु राज्य के षड्यंत्र में पिता की मृत्यु होने पर स्थूलभद्र ने महामात्य का पद तो ठुकरा दिया , पर इससे भी विशेष उसने संसार -व्यवहार से विरक्त होकर आचार्य संभूततविजयजी से दीक्षा ली । दीक्षा के पश्चात् आचार्यश्री ने मुनि स्थूलभद्र सहित चार मुनिराजों को संयम की अग्निपरीक्षा हो ऐसे कठिन स्थलों पर चातुर्मास करने को कहा । सिंह की गुफा में , विषधर सर्प का बिल या बाँबी में और पनिहारियों से घिरे रहते कुँए के किनारे ध्यानमग्न रहकर चातुर्मास करने की तीन मुनिराजों ने अनुमति माँगी । जबकि आर्य स्थूलभद्र मुनि ने कोशा नर्तकी के भवन में कामोत्तेजक आकर्षक चित्रों से सुशोभित चित्रशाला में षड् रस भोजन का आहार करके चार महीनों तक समस्त विकारों से दूर रहकर साधना करने की आचार्य संभूतविजयजी से आज्ञा माँगी ।
आचार्यश्री महाराज ने इसकी अनुमति दी । राजनर्तकी कोशा के वैभवी आवास में चातुर्मास के लिए स्थूलभद्र के आने से कोशा के हृदय में आनंद का ज्वार उमड़ने लगा । स्वयं को त्याग चुके हुए प्राणप्यारे प्रियतम मानो पुनः लौटे न हो ! कोशा ने कला एवं रुप की अभिव्यक्ति में तनिक भी कमी नहीं रखी , किन्तु मुनि स्थूलभद्र की आत्मकला की स्थिर द्युति देखकर कोशा को अपनी कामवासना बालचेष्टाओं के समान प्रतीत होने पर वह क्षमा-याचना करने लगी । मुनि स्थूलभद्र ने उसे आंतरवैभव की भव्यता तथा दिव्यता का प्रतिबोध दिया और कोशा व्रतधारी श्राविका बन गई । चातुर्मास पूरा करके लौट आये हुए मुनि स्थूलभद्र को अत्यधिक मुश्किल कार्य सम्पन्न करने के लिए आचार्य संभूतविजयजी ने " दुष्कर , दुष्कर , दुष्कर " यों तीन बार कहकर धन्यवाद दिया ।
आचार्यश्री ने मुनि स्थूलभद्र को तीन बार " दुष्कर, दुष्कर , दुष्कर " कहा और अन्य तीन शिष्य की जिन्होंने सिंह , दृष्टिविष सर्प या कुएँ के किनारे उपवासपूर्वक चातुर्मास किया था , उन्हें मात्र एक ही बार
" दुष्कर " कहा । अतः शिष्यों ने अपने गुरु आचार्य संभूतविजयजी से कहा , " मुनि स्थूलभद्र का कार्य दुष्कर-दुष्कर ( महाकठिन ) नहीं , अपिंतु अत्यन्त सहज एवं सुगम है । " इस प्रकार कहकर एक मुनि गुरुआज्ञा की उपेक्षा करके कोशा नर्तकी के यहाँ पहुँचा । कोशा के षड् रस भोजन करवाने एवं आकर्षक वेशभूषा धारण करते ही मुनि मोहित हो गया । कोशा ने उन्हें नेपाल में से अमूल्य रत्नकंबल लाने को कहा । मुनि अनथक परिश्रम तथा तप त्याग का भंग करके नेपाल के नरेश के पास से एक रत्नकंबल माँगकर लाया और कोशा को दिया , तब कोशा ने अपने पैर -पौंछकर कादो-कीचड़वाले गंदे पानी में वह रत्नकंबल फेंक दिया और कहा , " हे मुनि ! तुम्हें इस रत्नकंबल की चिंता हो रही हैं , परंतु उस बात का तनिक भी क्षोभ नहीं होता कि तुमने अत्यंत मूल्यवान ऐसे चारित्र्यरत्न को मलिन कादो-कीचड़ में फेंक दिया । "
कोशा के इस प्रतिबोध से मुनि का कामसंमोह दूर हुआ । वे आचार्यश्री के पास लौट आये और मुनि स्थूलभद्र के कामविजय की प्रशंसा करने लगे ।
चतुर्थ व्रत का नियम धारण करनेवाली राजनर्तकी कोशा के पास राजा किसी पुरुष को आनंदप्रमोद के लिए भेजते तो कोशा उसे आर्य स्थूलभद्र के गुणों की गरिमा सुनाती थी । कोशा को रिझाने या खुश करने आये पाटलीपुत्र के रथकार के पास हस्तलाघव की ऐसी कला थी कि उसने एक के बाद एक बाण चलाकर सरसंधान की श्रेणी रच दी और फिर उन्हें खींचते ही गुच्छें के साथ आम उसके पास आ गये । अत्यंत कठिन कार्य सम्पन्न किया हो ऐसा रथकार को अहंकार हुआ , तब कोशा ने सरसों का ढेंर करके उसमें सुई खोंस कर उस पर कमल के फूल को तरतीब से रखा । फिर उस पर चढ़कर कोशा नृत्य करने लगी । रथकार उसका ऐसा अप्रतिम कौशल देखकर स्तब्ध हो गया । परंतु कोशा ने कहा , " आम के गुच्छ को तोड़ना या सरसों के ढेर पर नाचना दुष्कर नहीं हैं । सही दुष्कर कार्य करने वाले तो मुनि स्थूलभद्र है , जो प्रमदा ( षोड़शी युवती ) के वन में होते हुए भी प्रमादी नहीं हुए । " रथकार का उन्माद और घमंड दोनों पिघल गये और कोशा के उपदेश के फलस्वरुप उसे वैराग्य हो गया ।
अपने संस्कारों से जीवन को धन्य बनानेवाली कोशा और राग के बीच विरागी जीवन जीनेवाले स्थूलभद्र सम्बन्धी जैन साहित्य में कई कथाएँ , रास , फागु , सज्झाय , उपन्यास आदि की रचना हुई है ।
साभार : जिनशासन की कीर्तिगाथा
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देवलोक जिनालय पालीताणा एडमिन
टीम
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गिरनार मंडन २२वे तीर्थंकर बाल ब्रम्हचारी श्री नेमिनाथ दादा का कैवल्यज्ञान कल्याणक पर विशेष स्तवन .!!!
#jaineminath #jaishivadevinand
#jaigirnaar ..!! #जय श्री समुद्रविजय के लाल.!!
#कैवल्यज्ञान कल्याणक प्यारे नेम प्रभु का आया
#रैवतक पर्वत पे प्रभु ने कैवल्यज्ञान है पाया
गीतकार- श्री अंकितजी लोढ़ा- रायपुर
https://www.facebook.com/191232074374475/posts/1869798876517778/
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#jaigirnaar ..!! #जय श्री समुद्रविजय के लाल.!!
#कैवल्यज्ञान कल्याणक प्यारे नेम प्रभु का आया
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गीतकार- श्री अंकितजी लोढ़ा- रायपुर
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ज़रूरी संदेश -
देवलोक जिनालय पालीताणा प्रस्तुत गहूँली स्पर्धा
यह प्रतियोगिता दिनांक 21-09-2020 से शुरू होगी , दिनांक 27-09-2020 को रात 9:00 बजे तक रहेगी। प्रतियोगिता का परिणाम दिनांक 01-10-2020 को घोषित किया जाएगा और समय समय पर टेलीग्राम ग्रुप और फ़ेसबुक पेज के माध्यम से सूचना दी जाएगी । तारीख़ 20-09-2020 दोपहर 4:00 बजे तक गहूँली स्पर्धा मे हिस्सा लेने के लिए सभी अपनी अपनी जानकारी भिजवा पायेंगे ।4:00 बजे के बाद नया कोई भी सदस्य स्पर्धा मे शामील नही हो पायेगा । बिना रजिस्ट्रेशन नम्बर आप स्पर्धा मे नही गिने जाएँगे । शाम को ठीक 7:00 रजिस्ट्रेशन आईडी की सूची प्रकाशित कर दी जाएगी ।
गहूँली स्पर्धा मे शामिल होने के लिए लिंक
https://t.me/GahuliCompetitionDJP
गहूँली स्पर्धा के लिए सुप्रसिद्ध गहूँली आलेखन मे पारंगत जजों की कमेटी मे बैंकॉक से सुश्राविका श्रीमती बिन्दुबेन मेहता , उज्जैन से सुश्राविका श्रीमती सरिता जैन (रत्नबोहरा ) और नडीयाद से सुश्राविका श्रीमती निकिता शाह रहेंगे । अंतीम निर्णय कमेटी का ही रहेगा ।
गहूँली स्पर्धा सभी जैन श्रावक श्राविकाओ के लिए है । जो लोग व्यवसायिक रूप से गहूँली बनाते हो वह इस स्पर्धा मे हिस्सा न लेवे ।
इसमें आयु के आधार पर दो ग्रुप रखे गए है ।
A पाँच वर्ष से बारह वर्ष तक
B तेरह वर्ष से अधिक
गहूँली स्पर्धा के लिए देवलोक जिनालय पालीताणा के टेलीग्राम एवं फ़ेसबुक पेज पर आयोजित है । आप सभी को देवलोक जिनालय पालीताणा टेलीग्राम ग्रुप से जुड़कर अपना व शहर का नाम भिजवा कर रजिस्ट्रेशन करवाना होगा । पहले सिर्फ फोटो भेजे और फोटो की गुणवता और उसके पास होने पर आप को विडियो ग्रुप मे भेजना होगा ।
विडियो बनाते समय आप का नाम , शहर का नाम , देवलोक जिनालय पालीताणा द्घारा दिया गया रजिस्ट्रेशन आईडी नम्बर बोलते हुए जिसमे आप का चेहरा सभी को दिखे इस प्रकार से विडियो रिकॉर्ड करना है । अन्य गीत , म्यूज़िक साथ मे नही जोड़ना है ।
जजो की पेनल द्घारा पास किया हुआ विडियो स्पर्धा के लिए फ़ेसबुक पेज पर पोस्ट किया जाएगा ।
1 - गहुॅली आलेखन मे सफेद चावल का उपयोग ही करे , कलर चावल का उपयोग नही करना है ।
2 - गहुॅली 3 फीट लम्बी और 3 फीट चौड़ी जगह मे ही आलेखन करना है । इससे छोटी बना सकते है , पर बड़ी नही ।
3 गहुॅली का आकार , सफाई , सही होने एवं मेम्बर्स की likes और views के आधार पर मार्क दिये जायेंगे ।
4 - गहुॅली में नन्दावर्त अवश्य होना चाहिए ।
5 - गहुॅली में दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवम् सीद्धशीला अनिवार्य नही है ।
6 - गहुॅली स्पर्धा के लिए फोटो और विडियो दोनों ही आपको बनाना है । पहले सिर्फ फोटो भेजे ।फोटो की गुणवता - पास होने पर आप को विडियो भेजने की सूचना दी जाएगी फिर आप अपना विडियो हमारे बताएँ हुए टेलीग्राम ग्रुप पर भेजना है।सुचना मिलने पर आपको तुरंत विडियो भेजना होगा ।
7 -आप को तारीख़ 20-09-2020 को रजिस्ट्रेशन lD नम्बर दिया जायेगा वह फोटो और विडियो मे अवश्य दिखना चाहिए ।आप का नाम , शहर , ग्रुप , ID नम्बर, सफ़ेद काग़ज़ पर लिखकर गहूँली के साथ मे रखकर विडियो बनाना है ।
8 - जानवर ,पक्षियों ,भगवान या साधु,साध्वी के शेप बनाना वर्जित है ।
9 - गहुॅली का आकार पेन ,पेन्सिल से आलेखन हुआ और उस पर गहुॅली आलेखन कीया गया तो गहुॅली स्वीकार नही होगी ।
10 - गहुॅली बनाने मे मोबाईल की मदद लेना वर्जितहै।
11 - कोई भी प्रतीयोगी एक से अधिक फोटो न भेजे ।
12 - विडियो 10 मीनीट से ज्यादा का न हो ।
13 - स्पर्धा से जुड़ने के लिए टेलीग्राम ग्रुप की लिंक
https://t.me/GahuliCompetitionDJP
Step 1 टेलीग्राम ग्रुप मे जुड़ना है
Step 2 अपना नाम ,शहर का नाम भिजवाना है ।
Step -3 जजों द्घारा रजिस्ट्रेशन नम्बर तारीख़ 20-09-2020 दिया जाएगा ।
Step -4 रजिस्ट्रेशन नम्बर मिलने पर सफ़ेद काग़ज़ पर लिखकर गहूँली के साथ मे रख कर फोटो विडियो बनाना है ।
Step-4 गहूँली का फोटो जिसमे आपका रजिस्ट्रेशन नम्बर एवं आप का नाम स्पष्ट दिखाई देता हो वह टेलीग्राम ग्रुप मे भिजवाना है ।
Step-5 जजों की कमेटी द्घारा सूचना मिलते ही आपको अपना विडियो शिघ्र टेलीग्राम ग्रुप मे भिजवाना है ।
14 -गहूँली के पश्चात शुद्ध सफ़ेद चावलों का बिगाड़ न हो इसलिए सभी सदस्यों से निवेदन है कि गहूँली बनाने हेतु बिलकुल साफ़ किये हुए टेबल , प्लेटफ़ॉर्म, प्लाय के टुकड़े , पाटले, अथवा ज़मीन पर कपड़ा, दरी, वेलवेट आदि बिछा कर गहूँली का आलेखन करे । इन अक्षतों का गहूँली मे उपयोग लेने के बाद आप उसे नजदिक के संघ मंदिर में रखे और न कि स्वयं के लिए उपयोग कर सकते है और न ही अनुकंपा मे उपयोग करे । किसी भी व्यक्ति को यह न लगे कि हम चावलों का उपयोग ग़लत ढंग से कर रहे है ।
15-फ़ेसबुक पेज से जुड़ने के लिए लिंक
देवलोक जिनालय पालीताणा प्रस्तुत गहूँली स्पर्धा
यह प्रतियोगिता दिनांक 21-09-2020 से शुरू होगी , दिनांक 27-09-2020 को रात 9:00 बजे तक रहेगी। प्रतियोगिता का परिणाम दिनांक 01-10-2020 को घोषित किया जाएगा और समय समय पर टेलीग्राम ग्रुप और फ़ेसबुक पेज के माध्यम से सूचना दी जाएगी । तारीख़ 20-09-2020 दोपहर 4:00 बजे तक गहूँली स्पर्धा मे हिस्सा लेने के लिए सभी अपनी अपनी जानकारी भिजवा पायेंगे ।4:00 बजे के बाद नया कोई भी सदस्य स्पर्धा मे शामील नही हो पायेगा । बिना रजिस्ट्रेशन नम्बर आप स्पर्धा मे नही गिने जाएँगे । शाम को ठीक 7:00 रजिस्ट्रेशन आईडी की सूची प्रकाशित कर दी जाएगी ।
गहूँली स्पर्धा मे शामिल होने के लिए लिंक
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गहूँली स्पर्धा के लिए सुप्रसिद्ध गहूँली आलेखन मे पारंगत जजों की कमेटी मे बैंकॉक से सुश्राविका श्रीमती बिन्दुबेन मेहता , उज्जैन से सुश्राविका श्रीमती सरिता जैन (रत्नबोहरा ) और नडीयाद से सुश्राविका श्रीमती निकिता शाह रहेंगे । अंतीम निर्णय कमेटी का ही रहेगा ।
गहूँली स्पर्धा सभी जैन श्रावक श्राविकाओ के लिए है । जो लोग व्यवसायिक रूप से गहूँली बनाते हो वह इस स्पर्धा मे हिस्सा न लेवे ।
इसमें आयु के आधार पर दो ग्रुप रखे गए है ।
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गहूँली स्पर्धा के लिए देवलोक जिनालय पालीताणा के टेलीग्राम एवं फ़ेसबुक पेज पर आयोजित है । आप सभी को देवलोक जिनालय पालीताणा टेलीग्राम ग्रुप से जुड़कर अपना व शहर का नाम भिजवा कर रजिस्ट्रेशन करवाना होगा । पहले सिर्फ फोटो भेजे और फोटो की गुणवता और उसके पास होने पर आप को विडियो ग्रुप मे भेजना होगा ।
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1 - गहुॅली आलेखन मे सफेद चावल का उपयोग ही करे , कलर चावल का उपयोग नही करना है ।
2 - गहुॅली 3 फीट लम्बी और 3 फीट चौड़ी जगह मे ही आलेखन करना है । इससे छोटी बना सकते है , पर बड़ी नही ।
3 गहुॅली का आकार , सफाई , सही होने एवं मेम्बर्स की likes और views के आधार पर मार्क दिये जायेंगे ।
4 - गहुॅली में नन्दावर्त अवश्य होना चाहिए ।
5 - गहुॅली में दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवम् सीद्धशीला अनिवार्य नही है ।
6 - गहुॅली स्पर्धा के लिए फोटो और विडियो दोनों ही आपको बनाना है । पहले सिर्फ फोटो भेजे ।फोटो की गुणवता - पास होने पर आप को विडियो भेजने की सूचना दी जाएगी फिर आप अपना विडियो हमारे बताएँ हुए टेलीग्राम ग्रुप पर भेजना है।सुचना मिलने पर आपको तुरंत विडियो भेजना होगा ।
7 -आप को तारीख़ 20-09-2020 को रजिस्ट्रेशन lD नम्बर दिया जायेगा वह फोटो और विडियो मे अवश्य दिखना चाहिए ।आप का नाम , शहर , ग्रुप , ID नम्बर, सफ़ेद काग़ज़ पर लिखकर गहूँली के साथ मे रखकर विडियो बनाना है ।
8 - जानवर ,पक्षियों ,भगवान या साधु,साध्वी के शेप बनाना वर्जित है ।
9 - गहुॅली का आकार पेन ,पेन्सिल से आलेखन हुआ और उस पर गहुॅली आलेखन कीया गया तो गहुॅली स्वीकार नही होगी ।
10 - गहुॅली बनाने मे मोबाईल की मदद लेना वर्जितहै।
11 - कोई भी प्रतीयोगी एक से अधिक फोटो न भेजे ।
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13 - स्पर्धा से जुड़ने के लिए टेलीग्राम ग्रुप की लिंक
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Step 1 टेलीग्राम ग्रुप मे जुड़ना है
Step 2 अपना नाम ,शहर का नाम भिजवाना है ।
Step -3 जजों द्घारा रजिस्ट्रेशन नम्बर तारीख़ 20-09-2020 दिया जाएगा ।
Step -4 रजिस्ट्रेशन नम्बर मिलने पर सफ़ेद काग़ज़ पर लिखकर गहूँली के साथ मे रख कर फोटो विडियो बनाना है ।
Step-4 गहूँली का फोटो जिसमे आपका रजिस्ट्रेशन नम्बर एवं आप का नाम स्पष्ट दिखाई देता हो वह टेलीग्राम ग्रुप मे भिजवाना है ।
Step-5 जजों की कमेटी द्घारा सूचना मिलते ही आपको अपना विडियो शिघ्र टेलीग्राम ग्रुप मे भिजवाना है ।
14 -गहूँली के पश्चात शुद्ध सफ़ेद चावलों का बिगाड़ न हो इसलिए सभी सदस्यों से निवेदन है कि गहूँली बनाने हेतु बिलकुल साफ़ किये हुए टेबल , प्लेटफ़ॉर्म, प्लाय के टुकड़े , पाटले, अथवा ज़मीन पर कपड़ा, दरी, वेलवेट आदि बिछा कर गहूँली का आलेखन करे । इन अक्षतों का गहूँली मे उपयोग लेने के बाद आप उसे नजदिक के संघ मंदिर में रखे और न कि स्वयं के लिए उपयोग कर सकते है और न ही अनुकंपा मे उपयोग करे । किसी भी व्यक्ति को यह न लगे कि हम चावलों का उपयोग ग़लत ढंग से कर रहे है ।
15-फ़ेसबुक पेज से जुड़ने के लिए लिंक
Telegram
GAHULI COMPETITION DATE 21-09-2020 To 27-09-2020
प्रणाम
यह ग्रुप सिर्फ जैन श्रावक -श्रीविकाओ की गहूँली स्पर्धा मे हिस्सा लेने वालों के लिए बना हुआ है ।अगर आप स्पर्धा मे हिस्सा नही ले रहे है तो यह ग्रुप मे शामिल न हो ।
यह ग्रुप सिर्फ जैन श्रावक -श्रीविकाओ की गहूँली स्पर्धा मे हिस्सा लेने वालों के लिए बना हुआ है ।अगर आप स्पर्धा मे हिस्सा नही ले रहे है तो यह ग्रुप मे शामिल न हो ।
देवलोक जिनालय पालीताणा प्रसतुत आज दिनांक 17-09-2020 को संध्या भक्ति रात्री 9:00 बजे से .....
मुम्बई के सुप्रसिद्ध कलाकार श्री विनोद शाह म्यूझिकल इंडस्ट्री का मशहूर नाम जो पिछले करीब ३९ सालों से जैन समाज को अपने सुरीले गीतों द्वारा भक्ति भावों से सराबोर कर रहे हैं। कुछ बहुत ही मशहूर गीतों की पंक्तियाँ यहाँ पर दे रहे है जिससे आपको श्री विनोद शाह द्वारा गाये हुए गीतों से आप का परिचय हो पाये ...
१- मौत नी घड़ी सुधी जो ....
२- सोनामां सुगंध भले ....
३- धारेलु सहु काम सिद्ध करवा ...
४- मुक्ति मले के ना मले....
५- मारूँ आयखु खुटे जे घडिये ...
६- कभी प्यासे को पानी पिलाया नहीं...
७- जिनवर तारूँ शासन ....आदि ।
Live telecasts link
https://www.facebook.com/DevlokJinalayaPalitana/videos/3511208082257783/
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१- मौत नी घड़ी सुधी जो ....
२- सोनामां सुगंध भले ....
३- धारेलु सहु काम सिद्ध करवा ...
४- मुक्ति मले के ना मले....
५- मारूँ आयखु खुटे जे घडिये ...
६- कभी प्यासे को पानी पिलाया नहीं...
७- जिनवर तारूँ शासन ....आदि ।
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माँगलिक
माँगलिक का समय ?
मांगलिक कहने और सुनने के लिए कोइ भी समय निर्धारित नहीं है ।
माँगलिक सुनते समय इन प्रमुख बातों का जरूर ध्यान रखे ।
दोनों हाथ भावपुर्वक जोड़कर , मौनपूर्वक अपना समस्त ध्यान पूज्य गुरूभंगवत पर केन्द्रित करते हुए खड़े रहना चाहिये ।
गुरूभगवंत के मुख से निकलते हरेक शब्द को अतंर तक उतारकर अपने संपुर्ण अस्तित्व को उर्जामय कर रहे हो ऐसे मंगल भाव और विचार धारण करने चाहिए ।
#MANGLIK
रचना देवलोक जिनालय पालिताणा टीम
💥 *देवलोक जिनालय पालिताणा*💥
🇦🇹🇦🇹🇦🇹🇦🇹🇦🇹🇦🇹🇦🇹🇦🇹
फ़ेसबुक पेज को पसंद करे
देवलोक जिनालय पालिताणा
वाटसएप
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मेल आईडी navkar108.n9@gmail.com
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माँगलिक का समय ?
मांगलिक कहने और सुनने के लिए कोइ भी समय निर्धारित नहीं है ।
माँगलिक सुनते समय इन प्रमुख बातों का जरूर ध्यान रखे ।
दोनों हाथ भावपुर्वक जोड़कर , मौनपूर्वक अपना समस्त ध्यान पूज्य गुरूभंगवत पर केन्द्रित करते हुए खड़े रहना चाहिये ।
गुरूभगवंत के मुख से निकलते हरेक शब्द को अतंर तक उतारकर अपने संपुर्ण अस्तित्व को उर्जामय कर रहे हो ऐसे मंगल भाव और विचार धारण करने चाहिए ।
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रचना देवलोक जिनालय पालिताणा टीम
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⚜️⚜️⚜️ विविध तपमाला तप क्रमांक -42 ⚜️⚜️⚜️
💦 संलेखना तप 💦
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संलेखना तप उन महानुभाव तपस्वी जनों को सुलभ हैं कि जिन्होंने चारों कषायों और राग द्वेषादि को स्वनियंत्रित किया हैं । जीवन के अंत में यह तप प्राप्त तपस्वी परम शुभोदय वाले हैं । इहलोक परलोक जीवन मरण और कामभोगादि की आशंसा और आकांक्षाएँ इस तप के अंतराय हैं । जिन महानुभाव के अंतर में यह विचार है कि जीवन के अंत में कषायों अतिचारों और अन्य सामान्य अथवा असामान्य दोषों की आलोचना करके शुभ ध्यान में रहकर मृत्यु प्राप्त हों उन्हें समय से पहले से ही तपाराधना प्रारंभ करनी चाहिए । प्रचलित मर्यादानुसार यह संलेखना तप बारह वर्ष में होता है , जिसका क्रम यह हैं -
चत्तारि विचित्ताइं विगइ निजूहिआइं चत्तारि ।
संवत्सरे अ दुन्निउ , एगंतरिअं च आयामं ।। 1 ।।
नाइनिविगओ अ तवे , छम्मासे परम्मिअं च आयामं ।
अवरे वि य छम्मासे , होइ विगट्ठं तवो कम्मं ।। 2 ।।
वासं कोडिसहिअं आयामं कट्टु आणुपुव्वीए ।
एसो बारस वारिसाई , होइ संलेहणाइ तवो ।।3 ।।
पहले चार वर्ष विचित्र तप करना । फिर चार वर्ष नीवी के पारणे उपवास एकांतर करना । फिर दो वर्ष आयंबिल , नीवी , आयंबिल , नीवी इस क्रम से निरंतर करना । फिर छः महिने तक उपवास पारणा बेला पारणा इस क्रम से परिमित भोजन वाले आयंबिल के पारणे से करना । फिर छः महिने तक चार-चार उपवास आयंबिल के पारणे वाले करना । बाद में एक वर्ष तक निरंतर आयंबिल करना । इस प्रकार बारह वर्ष में यह संलेखना तप होता है । साथिया , खमासमणा , प्रदक्षिणा , लोगस्स का काउसग्ग 12-12 करना । नमो तवस्स की बीस माला गिनना ।
इस तप का तपस्वी तप के प्रारंभ से तप की समाप्ति तक सब प्रकार की विगय का त्यागी होता है । संलेखना तप यंत्र में संलेखना तप में तप इस प्रकार करने का क्रम है --
वर्ष चार यावत : उपवास 2 एकासना , उपवास 4 एकासना , उपवास 5 एकासना , उपवास 6 एकासना , उपवास 15 एकासना , उपवास 30 एकासना ।
वर्ष चार यावत : उपवास 2 नीवी , उपवास 3 नीवी , उपवास 4 नीवी , उपवास 5 नीवी , उपवास 15 नीवी , उपवास 30 नीवी ।
वर्ष दो यावत : आयंबिल , नीवी , आयंबिल ,नीवी इत्यादि पूरणीया ।
छः मास यावत : उपवास 1 आयंबिल , उपवास 2 आयंबिल , उपवास 3 आयंबिल । पूरणीया ।
छः मास यावत : उपवास 4 आयंबिल , उपवास 4 आयंबिल , उपवास 4 आयंबिल । पूरणीया ।
🙏🙏🙏🙏🙏
सौजन्य : श्री तप विधि संचय पुस्तक से
देवलोक जिनालय पालीताणा एडमिन
टीम
अगली पोस्ट क्रमांक- 43
तप - श्री नंदीश्वर तप
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⚜️⚜️⚜️ विविध तपमाला तप क्रमांक -42 ⚜️⚜️⚜️
💦 संलेखना तप 💦
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संलेखना तप उन महानुभाव तपस्वी जनों को सुलभ हैं कि जिन्होंने चारों कषायों और राग द्वेषादि को स्वनियंत्रित किया हैं । जीवन के अंत में यह तप प्राप्त तपस्वी परम शुभोदय वाले हैं । इहलोक परलोक जीवन मरण और कामभोगादि की आशंसा और आकांक्षाएँ इस तप के अंतराय हैं । जिन महानुभाव के अंतर में यह विचार है कि जीवन के अंत में कषायों अतिचारों और अन्य सामान्य अथवा असामान्य दोषों की आलोचना करके शुभ ध्यान में रहकर मृत्यु प्राप्त हों उन्हें समय से पहले से ही तपाराधना प्रारंभ करनी चाहिए । प्रचलित मर्यादानुसार यह संलेखना तप बारह वर्ष में होता है , जिसका क्रम यह हैं -
चत्तारि विचित्ताइं विगइ निजूहिआइं चत्तारि ।
संवत्सरे अ दुन्निउ , एगंतरिअं च आयामं ।। 1 ।।
नाइनिविगओ अ तवे , छम्मासे परम्मिअं च आयामं ।
अवरे वि य छम्मासे , होइ विगट्ठं तवो कम्मं ।। 2 ।।
वासं कोडिसहिअं आयामं कट्टु आणुपुव्वीए ।
एसो बारस वारिसाई , होइ संलेहणाइ तवो ।।3 ।।
पहले चार वर्ष विचित्र तप करना । फिर चार वर्ष नीवी के पारणे उपवास एकांतर करना । फिर दो वर्ष आयंबिल , नीवी , आयंबिल , नीवी इस क्रम से निरंतर करना । फिर छः महिने तक उपवास पारणा बेला पारणा इस क्रम से परिमित भोजन वाले आयंबिल के पारणे से करना । फिर छः महिने तक चार-चार उपवास आयंबिल के पारणे वाले करना । बाद में एक वर्ष तक निरंतर आयंबिल करना । इस प्रकार बारह वर्ष में यह संलेखना तप होता है । साथिया , खमासमणा , प्रदक्षिणा , लोगस्स का काउसग्ग 12-12 करना । नमो तवस्स की बीस माला गिनना ।
इस तप का तपस्वी तप के प्रारंभ से तप की समाप्ति तक सब प्रकार की विगय का त्यागी होता है । संलेखना तप यंत्र में संलेखना तप में तप इस प्रकार करने का क्रम है --
वर्ष चार यावत : उपवास 2 एकासना , उपवास 4 एकासना , उपवास 5 एकासना , उपवास 6 एकासना , उपवास 15 एकासना , उपवास 30 एकासना ।
वर्ष चार यावत : उपवास 2 नीवी , उपवास 3 नीवी , उपवास 4 नीवी , उपवास 5 नीवी , उपवास 15 नीवी , उपवास 30 नीवी ।
वर्ष दो यावत : आयंबिल , नीवी , आयंबिल ,नीवी इत्यादि पूरणीया ।
छः मास यावत : उपवास 1 आयंबिल , उपवास 2 आयंबिल , उपवास 3 आयंबिल । पूरणीया ।
छः मास यावत : उपवास 4 आयंबिल , उपवास 4 आयंबिल , उपवास 4 आयंबिल । पूरणीया ।
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सौजन्य : श्री तप विधि संचय पुस्तक से
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तप - श्री नंदीश्वर तप
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जैन धर्म के साथ जुड़े ऐतिहासिक पात्रों की कथा श्रेणी ....
श्रीदेवी
काकर गाँव में जन्मी हुई श्रीदेवी गुजरात के इतिहास की तेजस्विनी नारी के रुप में विख्यात हैं । उसमें सूझ-बूझ तथा साहस दोनों का विरल संगम था । चाहे जैसी कठिन परिस्थिति में घबड़ाये बिना या भयभीत हुए बिना वह रास्ता बना लेती थी । उस समय कच्छ के रेगिस्तान के किनारे पर आये हुए पंचासर पर राजा भूवड़ ने आक्रमण किया था । पंचासर के राजा जयशिखरी ने विशाल सेना का दृढ़ता से मुकाबला किया , परंतु अंत में राजा जयशिखरी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ । जयशिखरी के पुत्र वनराज ने जैन साधु शीलगुणसूरि से आश्रय प्राप्त किया और उपाश्रय में बड़ा हुआ । उसके मन में लगन थी कि पिता का राज्य वापस प्राप्त करुँ तभी तो मैं सच्चा वनराज । मामा सूरपाल के साथ रहकर वनराज डकैती करने लगा । राज्य वापस लेना हो , तो बड़ी सेना की आवश्यकता रहे । शस्त्र चाहिए । इन सबके लिए वनराज ने जंगल में रहकर वहाँ से जाते-आते राजखजानों को लूट लेना आरंभ किया ।
एक समय वनराज चावड़ा काकर गाँव के सेठ के यहाँ चोरी करने गया । वनराज ने सेठ की कोठरी या भंडारी में जाँच -पड़ताल की । वह मानता था कि भंडारी में से कोई मूल्यवान चीजवस्तु या धनसंपत्ति हाथ लगेगी , पर रात के अँधेरे में भंडारी में चोरी करते हुए वनराज का हाथ दही से भरे हुए बरतन में पड़ा । वनराज रुक गया । इसका कारण यह था कि दही से भरे हुए बरतन में हाथ गिरा यानी वह इस घर का कुटुंबीजन कहलाये । भला अपने घर में लूट कैसे की जाय ? इसलिए उसने खाली हाथों वापस जाना उचित माना ।
मुँह अँधेरे काकर गाँव में सेठ ने देखा तो घर में सब छिन्न-भिन्न पड़ा था । उन्हें ख्याल आ गया कि अवश्य ही घर में कोई चुपचाप चोरी करने आया होना चाहिए । सेठ ने अपनी बहन श्रीदेवी से कहा , " घर में सैंध लगी हो ऐसा लगता है । चोर आकर हमारी माल-मिलकत ले गये हों ऐसा ज्ञात होता है । " भाई-बहन दोनों एक-एक करके वस्तुएँ देखने लगे । देखा तो गहने सलामत थे, घर की नगदी वैसी की वैसी पड़ी थी । वस्त्र इधर-उधर अलग-थलग बिखरे हुए पड़े थे , पर एक भी वस्त्र की चोरी नहीं हुई थी । दोनों ने सोचा कि रात को चोर ने सैंध लगाई होगी । नींद में उन्हें कुछ खबर नहीं हैं । तो फिर बिना कुछ चोरी किये वह वापस क्यों लौट गया होगा ? उन्हें यह बात रहस्यमय ज्ञात हुई ।
तभी श्रीदेवी की दृष्टि दही के बरतन पर पड़ी । उसने देखा तो उसमें किसी के हाथ के पंजे के निशान थे । उसके हाथ की रेखाएँ उसमें पड़ी थी । उन हस्तरेखाओं को देखकर लगता है कि यह पुरुष कैसा भाग्यवान तथा प्रतापी होना चाहिए ! उसकी रेखाएँ उसकी वीरता और तेजस्विता दर्शाति हैं । साथ ही दही में हाथ गिरा उस घर का कुछ भी न लिया जाय ऐसा माननेवाला मानव चोर कैसे हो सकता हैं ? अवश्य , किसी कारणवश ही वह यह कार्य करता होगा । ऐसे व्यक्ति से मुलाकात हो तो कितना अच्छा ?
श्रीदेवी का यह विचार वनराज को ज्ञात हुआ । वनराज रात को गुप्तवेश में श्रीदेवी के घर आया । उसके भाई को प्रणाम किया । श्रीदेवी को देखते ही वनराज के हृदय में भाई का प्रेम उभरने लगा । वन में भटकते हुए राजा और उसके सैनिकों से स्वयं को छिपाते और राज्य वापस प्राप्त करने के लिए दिन-रात कड़ा परिश्रम करते वनराज को यहाँ शांति एवं स्नेह का शीतल , मधुर अनुभव हुआ । श्रीदेवी ने उसे भाई माना और प्रेम से भोजन करवाया । तत्पश्चात् वनराज को सीख दी । ब
भाई ने बहन की सीख मानी । बहन के प्रेम से भावविभोर हुए वनराज ने कहा , " बहन , तू भले ही मेरी सगी बहन न हों , पर मुझ पर प्रेम की वर्षा करनेवाली धर्म की बहन है । मैं राजा बनूँगा , तब तेरे हाथ से ही राजतिलक करवाऊँगा । "
काकर गाँव की श्रीदेवी का विवाह पाटण में हुआ । एक बार श्रीदेवी पाटण से अपने पीहर जा रही थी । फिर जंगल की राह में वनराज मिला और श्रीदेवी ने उस पर स्नेह -अमृत की वर्षा की । आखिर वनराज ने सेना एकत्र करके भूवड़ के अधिकारियों को मार भगाया । पंचासर के स्थान पर सरस्वती नदी के तट पर अणहिलपुर पाटण बसाया । विक्रम संवत् 802 की वैशाख सुदि द्वितीया , सोमवार के दिन यह घटना घटी । वनराज ने राज्याभिषेक के समय धर्म की बहन श्रीदेवी को बुलाकर उसके हाथ से राजतिलक करवाया । राजा वनराज ने अपने ऊपर किए हुए उपकार का उचित बदला चुकाया , तो श्रीदेवी जैसी सद्गुणी गुर्जरी धर्म , समाज और राष्ट्र के उत्थान में सहायक हुई ।
साभार : जिनशासन की कीर्तिगाथा
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श्रीदेवी
काकर गाँव में जन्मी हुई श्रीदेवी गुजरात के इतिहास की तेजस्विनी नारी के रुप में विख्यात हैं । उसमें सूझ-बूझ तथा साहस दोनों का विरल संगम था । चाहे जैसी कठिन परिस्थिति में घबड़ाये बिना या भयभीत हुए बिना वह रास्ता बना लेती थी । उस समय कच्छ के रेगिस्तान के किनारे पर आये हुए पंचासर पर राजा भूवड़ ने आक्रमण किया था । पंचासर के राजा जयशिखरी ने विशाल सेना का दृढ़ता से मुकाबला किया , परंतु अंत में राजा जयशिखरी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ । जयशिखरी के पुत्र वनराज ने जैन साधु शीलगुणसूरि से आश्रय प्राप्त किया और उपाश्रय में बड़ा हुआ । उसके मन में लगन थी कि पिता का राज्य वापस प्राप्त करुँ तभी तो मैं सच्चा वनराज । मामा सूरपाल के साथ रहकर वनराज डकैती करने लगा । राज्य वापस लेना हो , तो बड़ी सेना की आवश्यकता रहे । शस्त्र चाहिए । इन सबके लिए वनराज ने जंगल में रहकर वहाँ से जाते-आते राजखजानों को लूट लेना आरंभ किया ।
एक समय वनराज चावड़ा काकर गाँव के सेठ के यहाँ चोरी करने गया । वनराज ने सेठ की कोठरी या भंडारी में जाँच -पड़ताल की । वह मानता था कि भंडारी में से कोई मूल्यवान चीजवस्तु या धनसंपत्ति हाथ लगेगी , पर रात के अँधेरे में भंडारी में चोरी करते हुए वनराज का हाथ दही से भरे हुए बरतन में पड़ा । वनराज रुक गया । इसका कारण यह था कि दही से भरे हुए बरतन में हाथ गिरा यानी वह इस घर का कुटुंबीजन कहलाये । भला अपने घर में लूट कैसे की जाय ? इसलिए उसने खाली हाथों वापस जाना उचित माना ।
मुँह अँधेरे काकर गाँव में सेठ ने देखा तो घर में सब छिन्न-भिन्न पड़ा था । उन्हें ख्याल आ गया कि अवश्य ही घर में कोई चुपचाप चोरी करने आया होना चाहिए । सेठ ने अपनी बहन श्रीदेवी से कहा , " घर में सैंध लगी हो ऐसा लगता है । चोर आकर हमारी माल-मिलकत ले गये हों ऐसा ज्ञात होता है । " भाई-बहन दोनों एक-एक करके वस्तुएँ देखने लगे । देखा तो गहने सलामत थे, घर की नगदी वैसी की वैसी पड़ी थी । वस्त्र इधर-उधर अलग-थलग बिखरे हुए पड़े थे , पर एक भी वस्त्र की चोरी नहीं हुई थी । दोनों ने सोचा कि रात को चोर ने सैंध लगाई होगी । नींद में उन्हें कुछ खबर नहीं हैं । तो फिर बिना कुछ चोरी किये वह वापस क्यों लौट गया होगा ? उन्हें यह बात रहस्यमय ज्ञात हुई ।
तभी श्रीदेवी की दृष्टि दही के बरतन पर पड़ी । उसने देखा तो उसमें किसी के हाथ के पंजे के निशान थे । उसके हाथ की रेखाएँ उसमें पड़ी थी । उन हस्तरेखाओं को देखकर लगता है कि यह पुरुष कैसा भाग्यवान तथा प्रतापी होना चाहिए ! उसकी रेखाएँ उसकी वीरता और तेजस्विता दर्शाति हैं । साथ ही दही में हाथ गिरा उस घर का कुछ भी न लिया जाय ऐसा माननेवाला मानव चोर कैसे हो सकता हैं ? अवश्य , किसी कारणवश ही वह यह कार्य करता होगा । ऐसे व्यक्ति से मुलाकात हो तो कितना अच्छा ?
श्रीदेवी का यह विचार वनराज को ज्ञात हुआ । वनराज रात को गुप्तवेश में श्रीदेवी के घर आया । उसके भाई को प्रणाम किया । श्रीदेवी को देखते ही वनराज के हृदय में भाई का प्रेम उभरने लगा । वन में भटकते हुए राजा और उसके सैनिकों से स्वयं को छिपाते और राज्य वापस प्राप्त करने के लिए दिन-रात कड़ा परिश्रम करते वनराज को यहाँ शांति एवं स्नेह का शीतल , मधुर अनुभव हुआ । श्रीदेवी ने उसे भाई माना और प्रेम से भोजन करवाया । तत्पश्चात् वनराज को सीख दी । ब
भाई ने बहन की सीख मानी । बहन के प्रेम से भावविभोर हुए वनराज ने कहा , " बहन , तू भले ही मेरी सगी बहन न हों , पर मुझ पर प्रेम की वर्षा करनेवाली धर्म की बहन है । मैं राजा बनूँगा , तब तेरे हाथ से ही राजतिलक करवाऊँगा । "
काकर गाँव की श्रीदेवी का विवाह पाटण में हुआ । एक बार श्रीदेवी पाटण से अपने पीहर जा रही थी । फिर जंगल की राह में वनराज मिला और श्रीदेवी ने उस पर स्नेह -अमृत की वर्षा की । आखिर वनराज ने सेना एकत्र करके भूवड़ के अधिकारियों को मार भगाया । पंचासर के स्थान पर सरस्वती नदी के तट पर अणहिलपुर पाटण बसाया । विक्रम संवत् 802 की वैशाख सुदि द्वितीया , सोमवार के दिन यह घटना घटी । वनराज ने राज्याभिषेक के समय धर्म की बहन श्रीदेवी को बुलाकर उसके हाथ से राजतिलक करवाया । राजा वनराज ने अपने ऊपर किए हुए उपकार का उचित बदला चुकाया , तो श्रीदेवी जैसी सद्गुणी गुर्जरी धर्म , समाज और राष्ट्र के उत्थान में सहायक हुई ।
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